भाई राहुल के बाद प्रियंका गांधी का निराशाजनक प्रदर्शन, सही साबित हुआ कांग्रेसी तुरुप का आखिरी पत्ता फेल होने का संदेह
भाई राहुल के बाद प्रियंका गांधी का निराशाजनक प्रदर्शन
राकेश दीक्षित।
निराशाजनक संभावनाओं के बावजूद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए निडर दिखाई दीं. इस बात को उनके कटु आलोचक भी स्वीकार करेंगे. करीब तीन महीने तक चले चुनावी अभियान के दौरान उन्होंने नारे लगाए. पूरे उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की यात्राएं कीं. आकर्षक नारे गढ़े. मजबूती से मुद्दे उठाए. लोकलुभावने मुद्दों पर वोट मांगने के लिए प्रचार किया. बड़ी भीड़ को आकर्षित किया. लगातार मीडिया में छाई रहीं. जिस प्रदेश की राजनीति में हिंदुत्व और जातिवाद के मुद्दे हावी हैं, वहां अपने लिए एक जगह बनाने में प्रियंका काफी हद तक सफल रहीं.
प्रियंका ने किए 40 रोड शो और 160 रैलियां
यूपी के चनावी दंगल में प्रियंका वाड्रा का रिकॉर्ड प्रभावशाली रहा. प्रदेश में कांग्रेस की कमान संभाल रही प्रियंका गांधी ने 160 रैलियां और 40 रोड शो को संबोधित किया. यह संख्या यूपी के चुनावी अभियान में किसी भी अन्य शीर्ष नेताओं से अधिक है. उन्होंने उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब में भी चुनाव प्रचार किया. उनकी कड़ी मेहनत के बावजूद कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली हैं. प्रदेश में पार्टी का वोट शेयर महज 2 फीसदी है.
अन्य चार राज्यों में भी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. कयामत और निराशा के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगा. पंजाब में कांग्रेस की हार उनके लिए विशेष रूप से चौंकाने वाली होनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने भाई राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
कांग्रेस के लिए परेशानियों की शुरुआत सिद्धू के विवादास्पद नामांकन से हुई और अंततः पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा. चुनाव परिणाम बताते हैं कि पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों में उनके अपरिपक्व हस्तक्षेप से कांग्रेस को और अधिक घाटा हुआ. इस मामले में प्रियंका अपने भाई से अलग नहीं साबित हुई हैं. पंजाब की बदहाली उनकी अकुशलता का सबसे बड़ा उदाहरण है. जहां तक उत्तराखंड की बात है, वहां गांधी भाई-बहनों ने हरीश रावत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए बहुत लंबा इंतजार किया. रावत पंजाब में कांग्रेस की स्थिति और जटिल बनाने में जुटे रहे. इसका परिणाम हुआ कि रावत न केवल फिर से पहाड़ी राज्य के मुख्यमंत्री बनने का अवसर चूक गए, बल्कि अपना चुनाव भी हार गए.
काम नहीं आया व्यक्तिगत आकर्षण
प्रियंका गांधी की दादी से मिलती-जुलती और उम्दा भाषण कला ने यूपी में पार्टी को फिर से जिंदा करने में कोई मदद नहीं की. ऐसा लगता है कि विपक्ष के इस आरोप से मतदाता प्रभावित हुए हैं कि राहुल की तरह उनकी बहन भी अयोग्य राजनीतिज्ञ हैं. राज्य में मरणासन्न कांग्रेस संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए उन्होंने खुद को पर्याप्त समय नहीं दिया. पिछले तीन वर्षों के दौरान जब-तब प्रदेश की यात्राएं कीं, लेकिन वे कांग्रेस को नए सिरे से पुनर्गठित करने की बड़ी चुनौती को संभालने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त साबित हुईं. बेशक, कांग्रेस और प्रियंका खुद विधानसभा चुनाव में पार्टी की किस्मत जानती थीं. वह बोलती रहीं कि नतीजे कुछ भी हों, वह राज्य में बनी रहेंगी. नतीजों से एक दिन पहले उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा, 'हमने अभी-अभी लड़ाई शुरू की है और हमें ऊर्जा और ताकत के साथ चलते रहना है.'
विवादास्पद कोर टीम
पार्टी की कोर टीम में फेरबदल करने की वजह से यूपी के कई वरिष्ठ नेता प्रियंका से नाराज हो गए. क्या उनका यह फैसला सही था? कई कांग्रेसी नेताओं के पार्टी छोड़ने के लिए कोर टीम को दोषी ठहराया गया. ये सभी नेता विधानसभा चुनाव के लिए अपने को अपमानित और उपेक्षित महसूस कर रहे थे. इनमें ललितेश त्रिपाठी, आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद और अनु टंडन शामिल है. प्रियंका के निजी सचिव संदीप सिंह और यूपी कांग्रेस प्रमुख अजय कुमार लालू पर भी आरोप लगे. इन दोनों के ग्राउंड फीडबैक सच्चाई से कोसों दूर थे.
कहा जाता है कि संदीप सिंह पर प्रियंका की पूरी निर्भरता से पार्टी के कार्यकर्त्ता और नेता नाराज हो गए. सिंह के क्रूर व्यवहार और प्रियंका तक किसी भी तरह की पहुंच पर उनके नियंत्रण के बारे में कई शिकायतें मिलीं. आम लोगों के लिए उनसे मिलना लगभग असंभव हो गया. हकीकत है कि संदीप सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं. वे पार्टी में वामपंथी कार्यकर्ताओं को शामिल करने पर जोर देते रहे, जिसका असर पार्टी कार्यकर्ताओं पर अच्छा नहीं हुआ.
प्रारंभिक उत्साह में कमी
जब कांग्रेस ने जनवरी 2019 में प्रियंका के राजनीति में औपचारिक प्रवेश की घोषणा की, तब पार्टी कार्यकर्ता तुरंत सक्रिय हो गए. जल्दबाजी में यह घोषणा कर दी गई कि वह पार्टी को अधिक ऊर्जा और ध्यान देंगी. जितिन प्रसाद ने खुशी से घोषणा करते हुए कहा था, 'उत्तर प्रदेश के लोग एक विकल्प की तलाश में थे और अब उनके पास एक है.' प्रसाद ही सबसे पहले BJP में शामिल हुए. प्रियंका की एंट्री को लेकर यूफोरिया का लंबे समय से इंतजार था. उन्हें अपने भाई से अधिक स्मार्ट, राजनीतिक तौर पर अधिक जानकार, बेहतर वक्ता और भीड़ को आकर्षित करने वाला माना गया. उनके इन सभी गुणों की वजह से 2019 में कांग्रेस की किस्मत बदलने की उम्मीद थी. उनके भाई ने पारिवारिक गढ़ अमेठी को स्मृति ईरानी के हाथों खो दिया. लोकसभा चुनाव से बमुश्किल तीन महीने पहले उन्होंने यूपी की कमान संभाली थी. इसलिए कांग्रेस को उम्मीद थी कि आने वाले समय में प्रियंका का करिश्माई नेतृत्व विधानसभा चुनाव के समय तक पार्टी की किस्मत बदल देगा.
पंजाब में पार्टी का दुखद अंत
जहां तक पंजाब की बात है, अहमद पटेल की मृत्यु के बाद प्रियंका ने पार्टी के लिए क्राइसिस मैनेजर और संकटमोचक की भूमिका निभाई. लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पूर्व राजनीतिक सचिव जैसी निपुणता उनमें नहीं देखी गई. पार्टी को गहरा सदमा लगा. प्रियंका ने नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाने के साथ वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अलग-थलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके बाद उन्होंने पंजाब से उत्तर प्रदेश की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया. एआईसीसी महासचिव ने कांग्रेस की हालत सुधारने के लिए राजनीतिक रूप से सही कदम उठाया और काफी हद तक अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाया. फिर भी, कांग्रेस राज्य में बुरी तरह से पिछड़ गई.
प्रतिबद्धता का अभाव
यूपी में कांग्रेस के विफल होने का एक कारण यह भी है कि प्रियंका में प्रतिबद्धता का अभाव है. हो सकता है कि उनमें थकान या कठिनाई के बावजूद डटे रहने की क्षमता नहीं हो. कभी-कभार प्रदेश की यात्रा या धरना-प्रदर्शन करने से काम नहीं चलने वाला. उन्हें पांच राज्यों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से उत्पन्न पार्टी के आंतरिक कलह का भी मुकाबला करना है. विधानसभा चुनाव के दौरान उनके और राहुल के अलावा और कोई भी स्टार प्रचारक नहीं था.
पार्टी की आंतरिक चुनौतियां
पिछले दो वर्षों में जी-23 के जिन नेताओं ने खुलकर पार्टी में संगठनात्मक बदलाव की मांग की और राहुल गांधी के नेतृत्व पर पहले ही सवाल उठा चुके हैं, वे फिर से "सुधारों" की वकालत कर रहे हैं. निराशाजनक नतीजों ने कांग्रेस के कुछ अंदरूनी सूत्रों को भी हैरान कर दिया है. वे सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि क्या यह पार्टी का अंत है.