टीबी मुक्त भारत की तैयारी : सामाजिक कलंक मिटाने के सार्थक प्रयास और मानव संसाधनों की भूमिका

सिर्फ आर्थिक मदद ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सभी साझेदारों की ओर से उनके समय, प्रयास और प्रतिबद्धता की भी जरूरत होगी।

Update: 2022-10-01 01:35 GMT

भारत में करीब 26 लाख लोग आज भी तपेदिक (टीबी) से पीड़ित हैं। विश्व में एक चौथाई मरीजों के साथ भारत दुनिया में टीबी का सबसे बड़ा केंद्र है। हाल ही में जारी नेशनल टीबी प्रिवेलेंस इन इंडिया रिपोर्ट (2019-21) से पता चलता है कि भारत में 15 साल से अधिक उम्र के लोगों में माइक्रोबायोलॉजिकल रूप से पुष्ट टीबी का अनुपात प्रति लाख आबादी पर 316 मरीज है। पल्मोनरी टीबी का सबसे अधिक प्रसार दिल्ली में है, यहां प्रति लाख आबादी पर मरीजों की संख्या 534 है।

वहीं केरल प्रति लाख आबादी पर 115 मरीजों के साथ सबसे आखिरी पायदान पर है। टीबी हमेशा से भारत की सबसे बड़ी जन स्वास्थ्य समस्याओं में से एक रही है। भारत ने सतत विकास लक्ष्यों की तय सीमा से पांच वर्ष पहले यानी 2025 तक देश को टीबी मुक्त बनाने का लक्ष्य रखा है। भारत की यह प्रतिबद्धता तब है, जब दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली कोरोना महामारी के कारण पटरी से उतर चुकी है। सरकार देश को टीबी मुक्त बनाने के लिए दोगुनी प्रतिबद्धता के साथ काम कर रही है।
टीबी नेशनल स्ट्रेटेजिक प्लान (एनएसपी) 2020-2025 इसी का प्रमाण है। नए एनएसपी में लक्ष्यों को नए सिरे से तय किया गया है, ताकि भारत से टीबी उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय प्रयासों में तेजी लाई जाए। एनएसपी के प्रमुख प्रयासों में पॉपुलेशन स्क्रीनिंग, निजी क्षेत्र में मरीजों की देखभाल के उच्च मानक, सफल इलाज की उच्च दर और डायग्नोसिस के लिए नई तकनीक का उपयोग आदि शामिल हैं। टीबी सिर्फ जनस्वास्थ्य से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक विकास, पोषण और जीवन-शैली से भी गहराई से जुड़ा हुआ है।
टीबी की बीमारी को सामाजिक कलंक भी माना जाता है, जिसके चलते मरीज को भेदभाव के साथ-साथ आजीविका खत्म होने जैसे नुकसान भी झेलने पड़ते हैं। टीबी को जड़ से खत्म करने के लिए पहले से अधिक प्रयास, निवेश और सहयोग की आवश्यकता है। बीते कुछ वर्ष में भारत ने टीबी से होने वाली मौतों की दर के साथ ही संक्रमण दर कम करने की दिशा में भी बेहतर प्रदर्शन किया है। इस बीमारी से पीड़ित लोगों में विविधता और भिन्नता को देखते हुए कुछ नए तरीके के सहयोगियों, जैसे कॉरपोरेशन, सिविल सोसाइटी, युवाओं, समुदाय आधारित संगठन और समुदाय के सदस्यों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है।
ये सभी भागीदार टीबी के खिलाफ जंग में जीत हासिल करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इस साल की थीम (इनवेस्ट टू एंड टीबी : सेव लाइव्स) टीबी के सफाए के लिए निवेश की जरूरत पर जोर डालती है। यह निवेश सिर्फ वित्तीय ही नहीं, बल्कि मानव संसाधन के रूप में भी होना चाहिए। हालांकि टीबी की समाप्ति को लेकर शीर्ष स्तर पर जबर्दस्त राजनीतिक प्रतिबद्धता देखने को मिलती है, पर इसके बावजूद हमें अभी मौजूदा साझेदारी को मजबूत करने और नए साझेदारों को शामिल करने की जरूरत है।
देश के विभिन्न राज्यों ने टीबी पर नियंत्रण को लेकर बड़ी सफलता हासिल की है। हम इन राज्यों की पहलों और उनकी सफलता की कहानियों से सीख सकते हैं। छत्तीसगढ़ टीबी रोगियों के लिए पोषण कार्यक्रम शुरू करने वाला पहला राज्य था, जिसके बाद इस पहल को राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया। उत्तर प्रदेश में राज्यपाल, सरकारी अधिकारियों एवं कॉरपोरेट घरानों का द्वारा 38,000 से अधिक बच्चों को गोद लेना, बिहार में पोषण अभियान की तर्ज पर एक जनांदोलन शुरू करना और कर्नाटक में टीबी मुक्त पंचायत कार्यक्रम में सांसदों एवं विधायकों को शामिल करने के लिए प्रोत्साहन- ऐसी ही पहल हैं।
सफल प्रयासों से सीखना और उन पर अमल करना इस बीमारी से निपटने का आसान तरीका हो सकता है। देश की बड़ी आबादी में अपनी सेहत का खुद ख्याल रखने की आदत विकसित ही नहीं हो पाई है, जिसके चलते इस बीमारी के संक्रमण का खतरा बहुत अधिक हो जाता है। नेशनल टीबी प्रिवेलेंस इन इंडिया रिपोर्ट बताती है कि टीबी के 63.6 फीसदी रोगियों ने इलाज के लिए कोई पहल ही नहीं की है। हर साल लगभग चार लाख टीबी के मामले दर्ज ही नहीं किए जाते।
डायग्नोसिस में देरी और इलाज बीच में ही बंद करने से टीबी की बीमारी और भी गंभीर हो सकती है। इससे इलाज का खर्च बढ़ सकता है, और टीबी के फैलने का जोखिम भी बढ़ सकता है। ऐसे में अधिक टीबी मरीजों वाले राज्यों और अधिक जोखिम वाले समूहों में निवेश और संसाधन उपलब्ध कराना बेहद जरूरी है। इसके तहत लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य शिक्षा और इलाज की जानकारी उपलब्ध कराने पर जोर देना होगा। रोगियों से भेदभाव खत्म करने के लिए प्रशिक्षण और चैंपियनों का उपयोग किया जा सकता है।
साथ ही, टीबी फोरम एवं पेशेंट सपोर्ट ग्रुप की स्थापना कर समाज में जागरूकता फैलाई जा सकती है। वित्तीय और मानव संसाधनों के बड़े निवेश से युवा तकनीक का इस्तेमाल कर बड़ा बदलाव ला सकते हैं। मशहूर हस्तियों को अभियान में शामिल करने से हमें वैसे ही नतीजे मिल सकते हैं, जैसे पोलियो और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े अभियानों में देखने को मिले। तेज और सटीक डायग्नोसिस, लगातार इलाज जारी रखने, आईईसी गतिविधियों, स्वयंसेवकों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए आधुनिक तकनीक की मदद ली जा रही है।
इसके अलावा कई क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग की संभावनाएं भी तलाशी जा रही हैं। पर यह सब काम सरकार अकेले नहीं कर सकती। तालमेल को और बेहतर बनाने तथा तकनीक का इस्तेमाल कर गुम मरीजों को खोजने में विभिन्न क्षेत्रों की साझेदारी जरूरी है। यह साझेदारी टीबी रोगियों के इलाज के लिए डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों की क्षमता बढ़ाने में भी मदद कर सकती है। यदि 2025 तक भारत को टीबी मुक्त बनाने का लक्ष्य हासिल करना है, तो तपेदिक के खिलाफ सबको साथ लेकर समाधान पर ध्यान देना होगा। सिर्फ आर्थिक मदद ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सभी साझेदारों की ओर से उनके समय, प्रयास और प्रतिबद्धता की भी जरूरत होगी। 

सोर्स: अमर उजाला

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