राष्ट्रीय विकल्प की राजनीति
भारत की राष्ट्रीय राजनीति की सच्चाई यह है कि आज देश में केवल दो ही राजनीतिक दल एेसे हैं जिन्हें अखिल भारतीय कहा जा सकता है
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत की राष्ट्रीय राजनीति की सच्चाई यह है कि आज देश में केवल दो ही राजनीतिक दल एेसे हैं जिन्हें अखिल भारतीय कहा जा सकता है और वे हैं भाजपा व कांग्रेस। मगर इन दोनों ही दलों की स्थिति में यह फर्क है कि भाजपा के लोकसभा में 301 सदस्य हैं और कांग्रेस के 53, विगत लोकसभा चुनावों में कुल पड़े 78 करोड़ से अधिक मतों में कांगेस को 12 करोड़ के लगभग मत मिले थे जबकि भाजपा को इसके दुगने के करीब मत प्राप्त हुए थे। यदि हम पिछले चुनावों में भाजपा व उसके सहयोगी दलों को पड़े मत प्रतिशत को देखें तो यह 45.5 के करीब था और कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों का 27.1 प्रतिशत था। इसमें भी अगर अकेले-अकेले भाजपा व कांग्रेस के मत प्रतिशत की बात करें तो यह क्रमशः 34.5 व 19 प्रतिशत के करीब था। इसके बाद विभिन्न क्षेत्रीय दल थे जिनमें वामपंथी भी शामिल थे मगर इनमें से किसी का भी मत प्रतिशत पांच से ऊपर नहीं था। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि देश भर में जहां लोगों की पहली पसन्द भाजपा थी तो दूसरी पसन्द कांग्रेस पार्टी थी। मगर पेंच यह है कि विभिन्न क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में काफी मजबूत थे जिसकी वजह से वे अपने राज्यों की लोकसभा सीटों पर भाजपा के मुकाबले विजय प्राप्त करने में सफल हुए परन्तु इनमें से कई राज्य एेसे भी थे जहां कांग्रेस पार्टी का भी इनसे मुकाबला हो रहा था। इस त्रिकोणीय मुकाबले में सभी क्षेत्रीय दलों को 216 सीटें प्राप्त हुई मगर कांग्रेस को केवल 53 ही मिलीं (एक सीट बाद में उपचुनाव में मिली थी) इससे यह आसानी से सिद्ध होता है कि विरोधी पार्टी कांग्रेस का अस्तित्व पूरे भारत में है, हालांकि इसके मत प्रतिशत में गिरावट आयी है और इस तरह आयी है कि वह अधिसंख्य उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में भाजपा उम्मीदवारों से अधिक मत नहीं ले पायी। जहां तक दक्षिण भारत का सवाल है तो कांग्रेस ने इस इलाके की लगभग डेढ़ सौ सीटों में चालीस से ऊपर सीटें जीतीं और कुछ पूर्वोत्तर इलाकों से भी विजय प्राप्त की। दूसरी तरफ भाजपा ने उत्तर-पश्चिम के राज्यों में अपना झंडा फहराया और एक तरह से मैदान साफ कर दिया और दक्षिण के कर्नाटक में भी मुकाबले की सफलता प्राप्त की। अतः राष्ट्रीय स्तर पर यदि किन्ही दो दलों की तुलना की जा सकती है तो वे भाजपा व कांग्रेस ही बचते हैं। मगर प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दी ने पिछले दिनों कांग्रेस को छोड़ कर अन्य विरोधी दलों का राष्ट्रीय विकल्प देने की बात कही और इसका नेतृत्व किसी क्षेत्रीय नेता के हाथ में देने की तजवीज रखी और तर्क रखा कि कांग्रेस के नेतृत्व में गठित यूपीए अब मौजूद नहीं है अतः क्षेत्रीय दलों को अपना ही गठबन्धन बना कर 2024 में भाजपा का मुकाबला करना चाहिए। ममता दी भूल रही हैं कि 2024 में चुनाव देश की लोकसभा के लिए होंगे न कि विधानसभाओं के लिए। बेशक इसमें कोई दो मत नहीं है कि उन्होंने अपने राज्य प. बंगाल में राज्य स्तर की राजनीति में कांग्रेस को पूरी तरह खत्म करके स्वयं ही असली कांग्रेस की शक्ल ले ली है मगर उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी भी उनके राज्य से कांगेस के दो सांसद हैं। इसके साथ यह भी तथ्य है कि पूरे देश में अभी भी 200 लोकसभा सीटें एेसी हैं जहां सीधा मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच होता है। मगर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी के पास देश चलाने के लिए एक ठोस वैकल्पिक विचारधारा और दृष्टि है जो कि किसी भी क्षेत्रीय दल के पास नहीं है। संपादकीय :पुतिन की भारत यात्रानए वेरिएंट से बचना है तो चलो ''पुराने मंत्र'' परभारत का परागलोकलेखा समिति की शताब्दीदिल्ली सरकार का सस्ता पेट्रोलबूस्टर डोज की जरूरत?इस हकीकत को भी अगर हम दरकिनार कर दें तो जनता के उस 19 प्रतिशत समर्थन का क्या करेंगे जो उसे 2019 के चुनावों में मिला था ? यह इस हकीकत को भी बताता है कि राष्ट्रीय चुनावों में मतदाताओं का नजरिया विधानसभा चुनावों से अलग होता है। मत प्रतिशत इस बात का साक्ष्य है कि कांग्रेस पार्टी के क्षरण काल में भी उसका जनाधार राषट्रव्यापी है जिसकी क्षमता किसी भी अन्य क्षेत्रीय दल में नहीं है अतः यह विचार स्वयं ही हवाई या जमीन से जुड़ा हुआ नहीं है कि कांग्रेस के बगैर भी किसी अन्य विपक्षी राष्ट्रीय विकल्प की कल्पना की जा सकती है। कांग्रेस समूचे विपक्ष को वह छाता प्रदान करती है जिसके नीचे आकर सभी विरोधी दल भाजपा की बारिश से बच सकते हैं। अतः विपक्षी पार्टी शिवसेना का यह कहना उचित है कि केवल यूपीए को मजबूत बना कर ही भाजपा का विकल्प पेश किया जा सकता है। ममता दी जिस गैर भाजपावाद का विमर्श फिलहाल आम जनता के सामने रख रही हैं उसका तब तक राष्ट्रीय स्तर पर क्या महत्व हो सकता है जब तक कि इसका नेतृत्व किसी एेसी पार्टी के हाथ में न हो जिस पर अखिल भारतीय स्तर पर देश के लोग भरोसा न कर सकें। कालान्तर में हम देख चुके हैं कि साठ के दशक में चलाये गये डा. राम मनोहर लोहिया के 'गैर कांग्रेसवाद' का क्या हश्र हुआ था? बेशक उस समय कांग्रेस पार्टी के अलावा किसी भी अन्य पार्टी के पास शासन करने का अनुभव नहीं था मगर आज तो हालात बदल चुके हैं। लगभग हर क्षेत्रीय पार्टी किसी न किसी गठबन्धन का हिस्सा होते हुए केन्द्र में सत्ता का सुख भोग चुकी है और इसके बावजूद इनमें से किसी के पास भी एक भी एेसा नेता नहीं है जिसकी स्वीकार्यता राष्ट्रीय स्तर पर हो। विकल्प कभी भी तिनके जोड़ कर छत बनाने से नहीं बल्कि छत के नीचे तिनके इकट्ठा करके बनता है।