सांस्कृतिक प्रतीकों की राजनीति: हिंदुत्व की राजनीति के प्रभावी होने से विपक्ष भी खुद को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ने में जुट गया

संस्कृति को राजनीतिक विमर्श से जोड़ना आसान नहीं

Update: 2021-03-11 15:58 GMT

भाजपा अपनी राजनीति को रचनात्मक ढंग से किस तरह विकसित करती जा रही है, इसके प्रमाण दिन-प्रतिदिन पुष्ट होते जा रहे हैं। इस रचनात्मक राजनीति में सर्वाधिक नवोन्मेषी विस्तार स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। यह नवोन्मेष क्या है और कैसा है? प्रधानमंत्री मोदी भारतीय राजनीति के भाव और भाषा, दोनों को ही अपने ढंग से प्रभावित कर रहे हैं। वह जबसे राष्ट्रीय राजनीति में आए, तभी से उन्होंने अपने भाषणों में स्थानीय बोलियों-भाषाओं को महत्व देना शुरू कर दिया था। वह बिहार, असम या मणिपुर, तमिलनाडु आदि जहां भी जाते, वहां की लोक बोलियों में पहले संबोधन करते, फिर हिंदी में अपनी बात कहते। इस प्रयोग ने उनकी बातों एवं संदेशों को स्थानीयता से जोड़ने में मदद की। भाषा के अलावा स्थानीय पोशाकों यथा पगड़ी, हैट, अंगवस्त्र इत्यादि को भी उन्होंने गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी जैसे लोकप्रिय नेताओं की तरह धारण कर सार्वजनिक एवं चुनावी मंचों पर आना जारी रखा। विपक्ष के नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और अर्रंवद केजरीवाल आदि ने भी स्थानीय पोशाकों एवं क्षेत्रीय रीति-रिवाजों से स्वयं को जोड़कर जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश तो की है, किंतु मोदी को छोड़कर शायद ही कोई अन्य नेता ऐसा कर पाने में सक्षम हुआ हो।

पीएम मोदी मोटिवेशनल व्याख्यान के स्टाइल से लोगों को आकर्षित करते हैं
प्रधानमंत्री मोटिवेशनल स्पीकर की तरह शब्दों के संक्षिप्तीकरण का भी इस्तेमाल करते हैं। इससे वह अपने भाषणों में एक लय भी पैदा करते है। 'पांच पी', 'तीन सी' जैसे मुहावरों का प्रयोग और फिर उन्हें एक-एक कर व्याख्यायित करते हुए वह अपने संबोधन से प्रेरक प्रभाव पैदा करने की कोशिश करते हैं। अब तो कई अन्य नेता भी व्याख्यान की इस शैली का प्रयोग करने लगे हैं। मोदी स्थानीय बोलियों एवं मुहावरों से स्थानीय जनता को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करने के साथ ही शिक्षित युवकों के एक बड़े समुदाय को मोटिवेशनल व्याख्यान के स्टाइल से भी आकर्षित करते हैं।
भाजपा की दूसरी रचनात्मक रणनीति: संदेशों का स्थानीयकरण करने की कोशिश
भाजपा के राजनीतिक विमर्श में दूसरी रचनात्मक रणनीति यह दिखाई पड़ती है कि परंपराओं, लोकदेवों, लोकनायकों इत्यादि के माध्यम से भी अपने संदेशों का स्थानीयकरण करने की कोशिश हो रही है। एक तरफ भगवान राम का आख्यान, दूसरी तरफ जनजातीय समूहों के बीच रामायण के ही लघु चरित्रों अर्थात् शबरी, सुग्रीव एवं बाली आदि की चर्चा भाजपा के राजनीतिक विमर्श में साफ सुनी जा सकती है। मुसहर जाति के लोग इससे प्रसन्न दिखते हैं कि वाराणसी के पास जयापुरा में भाजपा के लोगों ने उनकी कुलदेवी मां शबरी का मंदिर बनवाया। अरुणाचल प्रदेश के राजनीतिक विमर्श में बाली एवं सुग्रीव के लोक वृत्तांतों का सहारा लेकर भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता अपना संदेश वहां के जनजातीय समूहों के बीच प्रसारित करते मिल जाएंगे। इन दिनों बंगाल में विधानसभा का सघन चुनाव प्रचार चल रहा है। वहां 'मतुआ' समुदाय उन वर्गों में गिना जाता है, जो हाशिये पर है। वह एक बड़ा वोट बैंक भी है। बंगाल के लिए भाजपाई चुनावी उद्घोष में न केवल जय श्रीराम की ध्वनि सुनने को मिलती है, बल्कि वनवासी क्षेत्रों के नायक 'भगवान बिरसा मुंडा' भी उनके राजनीतिक विमर्श में शामिल हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को मात देने के लिए भाजपा मतुआ समूह की 'ठाकुरबाड़ी' को भी व्यापक महत्व देने की रणनीति पर काम कर रही है। इस रणनीति की काट करने में जुटीं ममता बनर्जी भी भाजपा शैली में चुनाव प्रचार कर रही हैं। यही काम गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने भी किया था।

भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति से विपक्ष भी धार्मिक प्रतीकों से जुड़ने के लिए मजबूर

हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने बहराइच में एक कार्यक्रम के दौरान 'मरी माई की कृपा..' का इस्तेमाल किया। यह मरी माई कौन हैं और एवं हमारे राजनीतिक समुदाय में कितने नेता 'मरी माई' से परिचित हैं? 'मरी माई' अवध, मध्य उत्तर प्रदेश एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में पूजी जाने वाली स्थानीय देवी हैं। कई गांवों में पीपल वृक्ष के नीचे 'मरी माई' का स्थान आपको मिल जाएगा। उत्तर प्रदेश में कई जगह उनके मंदिर भी बने हैं। हिंदुत्व की राजनीति के लगातार प्रभावी होने से ऐसी राजनीतिक स्थिति बनती जा रही है कि विपक्ष भी खुद को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ने के लिए उन्मुख हो रहा है। बीते दिनों स्वामी रविदास जयंती के अवसर पर प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव जैसे विपक्ष के कई नेताओं ने वाराणसी का दौरा किया।

हिंदू संस्कृति से जोड़ने की अनवरत कोशिश ही भाजपा को शक्तिवान बनाती है

वस्तुत: हिंदुत्व, जो भाजपा की राजनीति को सांस्कृतिक ऊर्जा प्रदान करता है, में अनंत देवी-देवताओं की प्रतीक शृंखला मौजूद है। हिंदुत्व की भाजपाई व्याख्या भाजपा को सहज ही अनेक जातियों एवं समूहों के लोकमन में बैठने की जगह प्रदान करती है। हिंदू संस्कृति के अनंत प्रतीक हर किसी राजनीतिक समूह के लिए खुले हैं, किंतु भाजपा उन्हें खोजने एवं उनसे अपने विमर्श को जोड़ने की अनवरत कोशिश कर रही है। यह कोशिश ही उसे शक्तिवान एवं प्रभावी बनाती है। इस प्रक्रिया में उसके विमर्श में प्रतीकों की एक पिरामिडीय संरचना बनती जा रही है। इसमें राम, कृष्ण जैसे अवतारों के साथ-साथ अन्य स्थानीय एवं ग्रामीण लोक देव भी जुड़ते जा रहे हैं।

भाजपा दार्शनिक आधार में भी संस्कृति को अपने विमर्श का मूल मानती है

भाजपा अपने दार्शनिक आधार में भी संस्कृति को अपने विमर्श का मूल मानती है। अत: उसके कार्यकर्ता संस्कृति विशेषकर हिंदू समाज की संस्कृति को अपने विमर्श में जोड़ने में अन्य राजनीतिक समूहों से तुलनात्मक रूप से ज्यादा दक्ष साबित होते हैं। दैवीय प्रतीकों के उपयोग की इस आकाशगंगा के निर्माण से भाजपा का राजनीतिक विमर्श तीन लक्ष्य साधने में सफल हो पाता है। एक तो उसके संदेश बहुआयामी हो जाते हैं। दूसरे, उसके संदेश का प्रसार बहुल सामाजिक समूहों में हो पाता है। तीसरे, ऐसे प्रयासों से उसके संदेशों का स्थानीयकरण हो पाता है। ऐसे प्रयास भाजपा के संदेशों को आधार तल देने में सफल होते हैं। इस प्रकार भाजपा के संदेशों का 'ग्रास रूट' बनता जाता है।

संस्कृति को राजनीतिक विमर्श से जोड़ना आसान नहीं

संस्कृति को राजनीतिक विमर्श से जोड़ना आसान नहीं। इसमें जो विमर्शकार सिद्धहस्त नहीं, वे इसका गलत उपयोग भी कर डालते हैं, जिससे नकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं। भाजपा अनेक तरह से सांस्कृतिक ऊर्जाकोषों का नवोन्मेषी उपयोग भारतीय जनतंत्र की राजनीति में करती दिखती है। उसके विमर्श में तर्क से ज्यादा जन-भावना तक पहुंचने की कोशिश दिखती है। भावनाओं के जरिये राजनीतिक विमर्श स्थापित करने की यात्रा एक तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। उसमें थोड़ा सा असंतुलन असफल भी बना सकता है।


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