किसान आंदोलन के जरिये राजनीतिक दल संकीर्ण हितों को पूरा करने की फिराक में
असामाजिक तत्वों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनने का अवसर न दें
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसानों का आंदोलन अब जो रूप ले चुका है उससे यह नहीं लगता कि किसान संगठन अपनी मांगों को लेकर गंभीर हैं। अब तो उनकी अगंभीरता का परिचय इससे भी मिल रहा है कि कुछ संगठन भीमा-कोरेगांव में हिंसा के साथ-साथ दिल्ली दंगों के आरोपितों के बचाव में उतर आए हैं और वह भी यह जानते हुए कि इन सब पर इतने गंभीर आरोप हैं कि अदालतों ने उन्हें जमानत देने से भी परहेज किया है।
आखिर इस तरह के लोगों का समर्थन कर या समर्थन लेकर किसान संगठन क्या हासिल करना चाहते हैं और देश को क्या संदेश देना चाहते हैं? खेती-किसानी का दंगों और हिंसा के आरोपितों से क्या संबंध है? क्या लोकतंत्र और विरोध के अधिकार का यही अर्थ है?
कृषि मंत्री ने किसानों से कहा- असामाजिक तत्वों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनने का अवसर न दें
यह उचित है कि केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जिद पर अड़े किसान संगठनों को यह नसीहत दी कि वे असामाजिक तत्वों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनने का अवसर न दें, लेकिन यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अब यह किसानों का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है। चूंकि इसमें वे लोग हावी हो गए हैं जिनका लोकतंत्र और संवाद में विश्वास संदिग्ध है इसलिए आंदोलन की आड़ में एक अलग एजेंडे को पूरा करने की कोशिश की जा रही है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि गतिरोध दूर करने के लिए सरकार के हर प्रस्ताव को न केवल खारिज किया जा रहा है, बल्कि विरोध के नाम पर ऐसे तौर-तरीके अपनाने की धमकी दी जा रही है जो अलोकतांत्रिक और व्यवस्था भंग करने वाले हैं। ऐसे तौर-तरीके वैचारिक अतिवाद की निशानी हैं। यह अतिवाद एक चुनी हुई सरकार के शासन करने के अधिकार को भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है। अब यह साफ है कि इस आंदोलन के जरिये राजनीतिक दल भी अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने की फिराक में हैं और वामपंथी अतिवाद-नक्सलवाद से प्रेरित संगठन भी।
पंजाब के किसानों का रुख विरोधाभासी
इस आंदोलन को लेकर पंजाब के किसानों का रुख विचित्र और विरोधाभासी है। यह वह राज्य है जिसने हरित क्रांति में सबसे अधिक योगदान दिया और आज राजनीतिक उकसावे पर यहीं के किसान एक और हरित क्रांति में बाधक बन रहे हैं। पंजाब की कांग्रेस सरकार और अकाली दल ने न केवल राजनीतिक लाभ के लिए किसानों को सड़कों पर उतारा, बल्कि वे उन्हें उकसा भी रहे हैं। पंजाब में कांट्रैक्ट फार्मिंग 2006 से ही लागू है। इससे यहां के किसान लाभान्वित भी हुए हैं और अब जब इसी व्यवस्था को नए कानूनों का अंग बनाया गया है तो केवल यह डर दिखाकर उसका विरोध किया जा रहा है कि कॉरपोरेट जगत किसानों की जमीन हथिया लेगा। यह हौवा तब खड़ा किया जा रहा है जब ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया जब किसी किसान की जमीन कॉरपोरेट ने हथिया ली हो। किसान एक तरफ कॉरपोरेट जगत का हौवा खड़ा कर रहे हैं और दूसरी तरफ उन आढ़तियों के हितों की चिंता करके सड़कों पर उतरे हुए हैं जो खुद भी व्यापारी ही हैं। कुछ किसान संगठन यह भी देखने-समझने से इन्कार कर रहे हैं कि वे उन लोगों के हाथों का खिलौना बनने का काम कर रहे हैं जो इस मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने पर तुले हुए हैं।
नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान संगठन मनमानी पर आमादा
नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान संगठन और उनका साथ दे रहे लोग किस तरह मनमानी पर आमादा हैं, इसका प्रमाण कई दौर की वार्ता की नाकामी तो है ही, किसानों की अर्तािकक मांगें भी हैं। पहले उनका विरोध केवल नए कानूनों पर केंद्रित था, लेकिन अब उन्होंने प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रस्तावित कानून में पराली जलाने पर दंड के प्रावधान को वापस लेने और बिजली सब्सिडी में सुधार के खिलाफ भी जिद पकड़ ली है। किसान संगठन यह भी समझने के लिए तैयार नहीं कि मंडी कानून पर राज्य फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हैं।
कृषि में पूंजी निवेश, नई तकनीक और उद्योगीकरण समय की मांग
अपने देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी इस समय कृषि से जुड़ी हुई है। अगर इतनी बड़ी आबादी की आय नहीं बढ़ेगी और वह सशक्त नहीं होगी तो क्या देश का विकास संभव है? क्या कृषि में पूंजी निवेश, नई तकनीक और उद्योगीकरण समय की मांग नहीं है? क्या निजी निवेशक इस आश्वासन के बिना निवेश के लिए राजी होंगे कि वे अपने हिसाब से कृषि में उत्पादन करा सकें? किसान संगठनों को यह समझना चाहिए कि कृषि में निजी निवेश की भागीदारी मात्र दो प्रतिशत है और यह क्षेत्र तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक इसमें नए निवेशक नहीं आएंगे। यह स्पष्ट है कि किसान संगठनों को उकसाने और भड़काने का काम वे संगठन कर रहे हैं जो विचारधारा के स्तर पर निजी निवेश के खिलाफ हैं और यह मानते हैं कि सब कुछ सरकार के स्तर पर ही किया जाना चाहिए। मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था उन्हें स्वीकार नहीं।
नए कृषि कानूनों पर संसद में बहस को लेकर विपक्षी दलों का तर्क आधारहीन
विपक्षी दलों का यह तर्क आधारहीन है कि नए कृषि कानूनों पर संसद में बहस नहीं हुई। तथ्य यह है कि मानसून सत्र में जब इनसे संबंधित विधेयक संसद में लाए गए थे तब उन पर 12 घंटे बहस हुई थी। यह बात अलग है कि विपक्षी दलों की दिलचस्पी मोदी सरकार को कोसने में थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी समाप्त होने का डर दिखाने में हर विपक्षी दल आगे था। विपक्षी दलों ने यह रुख तब अपनाया जब वे अच्छी तरह जानते हैं कि एमएसपी को कानूनी रूप नहीं दिया जा सकता, क्योंकि केंद्र सरकार देश भर का खाद्यान्न नहीं खरीद सकती।
बहुमत वाली मोदी सरकार को संवैधानिक दायरे में फैसले करने से कोई रोक नहीं सकता
किसान आंदोलन में जैसे तत्वों की घुसपैठ हो चुकी है उसके बाद मोदी सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह न तो किसी दबाव को स्वीकार करे और न ही ऐसे कोई संकेत दे कि वह चंद लोगों की मनमानी के आगे झुकने के लिए तैयार है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कोई भी न तो एक बहुमत वाली सरकार को संवैधानिक दायरे में फैसले करने से रोक सकता है और न ही दिल्ली में एक और शाहीन बाग बनाने की इजाजत दी जा सकती है। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जो दल अथवा संगठन भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक रूप से सामना नहीं कर पा रहे हैं वे अराजकता के सहारे अपने मंसूबे पूरे करने की कोशिश करें और ऐसा करते हुए लोकतंत्र की दुहाई भी दें। रेलवे ट्रैक रोकना, सड़कें बाधित करना और किसी प्रतिष्ठान पर तोड़फोड़ की अपील करना विरोध के लोकतांत्रिक तौर-तरीके नहीं हैं। ऐसे तौर-तरीकों को न तो जनता की सहानुभूति और समर्थन मिल सकता है और न ही सरकार की हमदर्दी।