राजनीतिक सुस्ती : ओटीपी के युग में पते का प्रमाण मांगना, सौ करोड़ से अधिक भारतीयों की जीवन सुगमता की आकांक्षा
भारत निश्चित रूप से बेहतर कर सकता है।
सरकार हो या समाज, सभी मानते हैं कि तालाब के बगैर जल संकट से पार पाना मुश्किल है। योजनाएं तो बनती हैं, पर क्रियान्वयन के स्तर पर पानी की दौड़ भूजल की ओर ही दिखती है। वर्ष 2016 के केंद्रीय बजट में पांच लाख तालाब खोदने की बात की गई थी। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के पहले कार्यकाल के पहले सौ दिनों के कार्य संकल्प में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प हो, राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण हो या फिर मध्य प्रदेश में 'सरोवर हमारी धरोहर' या 'जल अभिषेक' जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं-इन्हें देखकर लगता है कि अब ताल-तलैयों के दिन बहुरेंगे।
पर जब गर्मी शुरू होते ही देश में पानी की मारा-मारी, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं, तब समझ में आता है कि तालाबों को सहजने की प्रबल इच्छाशक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या तालाबों की बेशकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं। अभी फिर घोषणा हुई कि आजादी के 75 साल के उपलक्ष्य में हर जिले में 75 तालाब खोदे जाएंगे।
क्या हमें फिलहाल नए तालाबों की जरूरत है? या क्या हमारी नई अभियांत्रिकी तालाब खोदने के पारंपरिक जोड़-घटाव को समझती है? बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में चार दशक पहले एक हजार तालाब थे। आज भी वहां 600 तालाब ऐसे हैं कि यदि उनमें नाली का पानी मिलने से रोक दिया जाए और कब्जे हटा दें, तो पूरा टीकमगढ़ पानी से तर होगा तथा मछली, कमल गट्टा और सिंघाड़ा से आम लोगों के घर में लक्ष्मी प्रवेश कर जाएंगी।
करीबी जिले छतरपुर में किशोर सागर तालाब से अवैध कब्जे हटाकर उसे संपूर्ण रूप देने के लिए एनजीटी से लेकर उच्च न्यायालय तक कई बार आदेश दे चुका है, पर पिछले एक दशक से प्रशासन तालाब की माप ही नहीं कर पा रहा! उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैकड़ोंनिजी तालाबों के कारण पड़ा था। कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, पर जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी, उन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया।
फिर तालाबों से बदबू आई, तो उन्हें ढककर नई कॉलोनियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया। कालाहांडी हो या मणिपुर की लोकटक झील, भोपाल के तालाब हों या तमिलनाडु में पुलीकट-हर कोने में ऐसे तालाब-सरोवर पहले से हैं, जिनकी देखभाल की दरकार है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें हों या 1944 के बंगाल दुर्भिक्ष के बाद गठित आयोग का दस्तावेज, सभी में कहा गया है कि भारत में सिंचाई के लिए तालाब ही मजबूत माध्यम हैं। नए तालाब जरूर बनें, पर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यों बचा जा रहा है?
आजादी के समय देश में करीब 24 लाख तालाब थे। पर 2000-01 में तालाब, पोखरों की गणना से पता चला कि हम करीब 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इनमें से करीब चार लाख, 70 हजार का इस्तेमाल हो रहा है और करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यदि सरकार तालाबों के संरक्षण के प्रति गंभीर है, तो गत पांच दशकों के दौरान तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल आगमन क्षेत्र में बाधा खड़ी करने पर कड़ी कार्रवाई करने, नए तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार करवाना जरूरी है।
यह तभी संभव है, जब न्यायिक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से हो। हमने नए तालाब तो नहीं ही खोदे, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने उन इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा कर खूब मुनाफा कमाया, जिसमें राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी उनके साझेदार बने। यदि नदी-जोड़ जैसी किसी योजना के समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, उन्हें अतिक्रमण मुक्त बनाने और उनके पानी की आवाजाही के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च की जाए, तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, न देश का कंठ सूखा रहेगा, न ही जमीन की नमी मारी जाएगी।सौ करोड़ से अधिक भारतीयों की जीवन सुगमता की आकांक्षा अक्सर राजनीतिक सुस्ती और प्रणालीगत उदासीनता के बीच फंसी पाई जाती है। शासन प्रभावी रूप से दो दुनियाओं के बीचफंसा हुआ है। एक डिजिटल प्रणाली है, जहां भारतीय 21वीं सदी के परिणामों का आनंद उठाते हैं और फिर तीसरी दुनिया का अनुभव है, जहां शासन अब भी औपनिवेशिक खुमार से उबर रहा है। इसका सटीक उदाहरण भारतीय पासपोर्ट बनवाने या उसका नवीनीकरण कराने की प्रक्रिया में प्रकट होता है।
इस प्रक्रिया का पहला हिस्सा पहली दुनिया है, जिसका श्रेय टीसीएस द्वारा तैयार और विदेश मंत्रालय द्वारा सक्षम प्रणाली को जाता है। आवेदक ऑनलाइन एक फॉर्म भरता है। फिर उसे मिलने की एक तिथि मिलती है, जिस दिन वह केंद्र पर जाता है और जरूरी दस्तावेज सौंपता है। यदि सब कुछ ठीक रहा, तो एक पखवाड़े के भीतर उसे पासपोर्ट मिल जाता है। दूसरे चरण में 'पुलिस सत्यापन' प्रक्रिया के लिए उसे उत्तर-औपनिवेशिक दुनिया में लौटना पड़ता है।
पहले से ही काम के बोझ से दबे पुलिस विभाग (जहां हर पांचवां पद खाली है) को हर वर्ष एक करोड़ से अधिक आवेदकों के पते और पिछले जीवन का सत्यापन करना पड़ता है। सत्यापन के लिए पुलिस विभाग या तो एक अधिकारी को आवेदक के घर भेजता है या उसे पुलिस स्टेशन में बुलाता है। कल्पना कीजिए कि आपको अपने पासपोर्ट का नवीनीकरण कराना है, पर आपने घर बदल लिया है! पासपोर्ट जारी करने वाला प्राधिकरण (केंद्रीय पासपोर्ट संगठन) दो दस्तावेज चाहता है-पहचान का प्रमाण और पते का प्रमाण।
आप आधार कार्ड/ड्राइविंग लाइसेंस और बैंक स्टेटमेंट देते हैं। अब यह मानते हुए, कि पिछला जीवन स्पष्ट है, पुलिस विभाग को पहचान और पते के उन्हीं दस्तावेजों की जांच करने का काम सौंपा जाता है, जिन्हें जारी करने वाला प्राधिकारी पहले ही जांच चुका है। क्या अंतरविभागीय विश्वास इतना कमजोर है कि एक विभाग को वही काम दोहराना होगा, जो पहले ही हो चुका है? जाहिर है, कानून को पहचान सत्यापित करने के लिए सिस्टम की जरूरत होती है, ताकि कोई धोखाधड़ी से पासपोर्ट न ले रहा हो।
पासपोर्ट प्राधिकरणप्रत्येक आवेदक के बायोमेट्रिक्स को पंजीकृत करता है। आधार पर एक अरब से अधिक लोग पंजीकृत हैं। क्या ओटीपी के जमाने में तकनीक इसका समाधान नहीं हो सकती? यात्रा दस्तावेज पर पते का प्रकाशन समस्याएं बढ़ाता है। कई देशों (ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और यहां तक कि इस्राइल) के पासपोर्ट पर घर का या कोई अन्य पता नहीं होता, जबकि कुछ केवल यात्रा दस्तावेज भेजने के लिए संपर्क पता चाहते हैं। इसलिए यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि भारतीय पासपोर्ट में आवासीय पता क्यों दिया जाना चाहिए।
पता मांगने की यह लत केवल पासपोर्ट तक सीमित नहीं है-इसका असर नागरिकों को बुनियादी सेवाएं तक पाने के संघर्ष में दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, बैंक में खाता खुलवाने के लिए भी पता देना होता है। तथ्य यह है कि ग्राहक अपना पैसा बैंक में जमा कर रहा है, इसलिए ग्राहक प्रमुख है और बैंक एजेंट है। रिजर्व बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि ज्यादातर बैंकिंग कार्य डिजिटल होते हैं, फिर भी बैंक सबूत के साथ जानना चाहते हैं कि आप कहां रहते हैं।
सच है कि राष्ट्रीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय संधियों को देखते हुए बैंकों के लिए केवाईसी सुनिश्चित करना आवश्यक है। यह भी उतना ही सच है कि बैंक ग्राहकों की पहचान या तो आधार या सरकार द्वारा जारी दस्तावेज के जरिये करते हैं। तो ऐसे युग में, जब जगहें बदलना आम बात है, व्यवस्था इस पर जोर क्यों देती है कि ग्राहक घर बदलने पर हर बार पते का प्रमाण दे? सच्चाई यह है कि जहां-जहां अवसर और संभावनाएं होती हैं, भारतीय वहां-वहां जीवन और आजीविका की तलाश में जाते रहते हैं।
वर्ष 2011 कीजनगणना बताती है कि 45 करोड़ से ज्यादा लोग उन जगहों पर नहीं रहते, जहां उनका जन्म हुआ। आंतरिक प्रवास जिलों के भीतर, राज्यों के भीतर और देश भर में हो सकता है। इसके अलावा दस करोड़ से ज्यादा लोग विभिन्न राज्यों में मौसमी प्रवास करते हैं। बचत करने, खर्च करने और पैसे भेजने के लिए उन्हें बैंकिंग सुविधा की जरूरत होती है। लेकिन जो लोग खाता खुलवाना चाहते हैं, उनसे पते का प्रमाण मांगा जाता है। सभी भारतीय नौकरी नहीं करना चाहते।
छोटे शहरों के लोग उद्यमी बनना चाहते हैं। छोटे व्यवसाय स्थापित करने के लिए अक्सर उन्हें बैंकिंग सुविधा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। सिस्टम आर्थिक जुड़ाव के लिए आधार और संचार पते को एक टेम्प्लेट के रूप में क्यों नहीं जोड़ सकता? पता मांगने की इस लत के कारण अन्य सेवाएं भी प्रभावित होती हैं, विशेष रूप से पंचायत, नगरपालिका और राज्य सरकार के विभागों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं। यह देखते हुए, कि बहुत से भारतीय अपना घर लेने से पहले किराये में रहते हैं, नई वास्तविकता को स्वीकार करने में सरकार का क्या जाता है?
उसे लोगों को सेवाओं तक पहुंचने में सक्षम बनाने के लिए एक व्यवस्थित समाधान के साथ आना चाहिए, चाहे वे कहीं भी रह रहे हों। 15 अगस्त, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि स्वतंत्र भारत के लिए 'जीवन की सुगमता' अनिवार्य है और हम इस पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इसे आगे ले जाना चाहते हैं। ऐसा करने के लिए सरकार को अविश्वास की भावना खत्म करनी होगी। जीवन सुगमता की चर्चा इस सरकार ने कई बार की है।
लेकिन प्रणालीगत सुस्ती सरकारी इरादे पर हावी रही, जिससे वादा हकीकत में नहीं बदल पाया। मुद्दा क्षमता को लेकर नहीं है। यह एक राजनीतिक अर्थव्यवस्था है, जिसने 1.3 अरब से अधिक लोगों को पहचान देने के लिए आधार स्थापित किया, एक महीने में 5.04 अरब लेन-देन दर्ज करने के लिए यूपीआई को मजबूत किया, टोल टैक्स वसूलने के लिए फास्टैग शुरू किया, लोगों को टीके की 200 करोड़ खुराक और डिजिटल प्रमाणपत्र दिया गया।
सफलता की कहानियों में सबक होते हैं। शुरुआत एक सर्वेक्षण से करनी चाहिए कि सेवाओं तक पहुंच को कौन-सी चीज प्रभावित करती है। फिर नीति निर्माताओं और स्टार्ट-अप उद्यमियों की चुनौती होगी कि वे ऐसे समाधान लेकर आएं, जिसे आबादी का बड़ा हिस्सा पा सके। युवा व आधुनिक भारत और इसकी पुरातन शासन व्यवस्थाओं के बीच की खाई गहरी है। भारत निश्चित रूप से बेहतर कर सकता है।
सोर्स: अमर उजाला