मोदी के राजनीतिक विरोधियों के दो वर्ग हैं। एक दाएं-बाएं देखकर विरोध करता है। दूसरा, लगातार विरोध में लगा रहता है। मोदी का विरोध बाहर ही नहीं घर में भी है। संघ परिवार के विभिन्न अनुषंगिक संगठनों में से कोई एक समय-समय पर विरोध की आवाज बुलंद करता ही रहता है। किसानों के नाम पर चल रहा आंदोलन पहले अहिंसक से हिंसक हुआ और फिर गैर-राजनीतिक से राजनीतिक। विरोध के इस वातावरण में किसी भी सरकार के हाथ-पांव फूल सकते हैं। विरोध का आलम यह है कि तिरंगे के अपमान के साथ गणतंत्र दिवस एवं लाल किले की मर्यादा तार-तार करने और पुलिस वालों पर जानलेवा हमला करने वालों का भी समर्थन किया जा रहा है
आपने इससे पहले देश में कोई ऐसा आंदोलन देखा है, जिसमें चार सौ पुलिस वाले घायल हो जाएं, उन पर लाठी, डंडे, लोहे के रॉड से ही नहीं तलवार से भी हमला हो और ऐसा करने वाले सीना तान कर घूम रहे हों। जैसे पीड़ित ही दोषी हों। ट्रैक्टरों को अभी तक हमने खेतों में चलते देखा था। 26 जनवरी को उन्हें हथियार के रूप में इस्तेमाल होते हुए भी देखा। विरोधियों के हिसाब से यह सब जायज है, क्योंकि वह मोदी के विरोध में है। मोदी इन सबसे कतई विचलित नहीं लगते। अपने समर्थकों और देश के आमजन की सहज बुद्धि पर शायद ही किसी प्रधानमंत्री को ऐसा भरोसा रहा हो। उनके मन में यह बात बहुत गहरे बैठी हुई है कि लोग ईमानदार आदमी का साथ देते हैं।
भारतीय समाज के मानस में एक बात गहरे पैठी हुई है कि ईमानदार आदमी अच्छा होता है और वह व्यक्तिगत स्वार्थ पर समाज के हित को वरीयता देता है। इसीलिए विपक्ष के इतने बड़े नेताओं के होते हुए भी उन्हें 1975 में एक जयप्रकाश नारायण, 1986-87 में एक वीपी सिंह और 2011 में एक अन्ना हजारे की जरूरत पड़ी। इन तीनों अवसरों पर सत्तारूढ़ दल और उसके नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। जनमानस में उनकी विश्वसनीयता नहीं रह गई थी और लोकप्रियता निचले पायदान पर थी। जेपी, वीपी और अन्ना के सफल होने का यह एक बहुत बड़ा कारण था। विपक्ष के दुर्भाग्य से उसके सामने ऐसा कोई नेता नहीं है। देश के सौभाग्य से वर्तमान सरकार का नेतृत्व ईमानदारी की मिसाल है। उसकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता कम होने के बजाय बढ़ी ही है। मोदी से पहले केवल नेहरू ही ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो सत्ता में आने के बाद भी विश्वसनीय और लोकप्रिय बने रहे।
कहावत है कि अच्छी अर्थनीति खराब राजनीति होती है और अच्छी राजनीति खराब अर्थनीति। मतलब यह कि दोनों को एक साथ नहीं साध सकते, पर ऐसा लगता है कि मोदी 'एकै साधे सब सधें, सब साधे सब जाए' की नीति में विश्वास करते हैं। पिछले करीब पौने सात सालों ने यह दिखाया है कि अर्थनीति हो या राजनीति, फैसले अच्छी नीयत से किए जाएं तो नतीजा अच्छा ही निकलता है। जब-जब संकट की घड़ी आई, मोदी ने देश के लोगों पर भरोसा किया और देशवासियों ने मोदी पर। नेता और जनता के इस परस्पर भरोसे की तुलना कुछ हद तक जवाहरलाल नेहरू के समय से की जा सकती है। तब कांग्रेस के लोग मानकर चलते थे कि नेहरू जो कहेंगे, देश उसी को सच मानेगा। लोग मानकर बैठे हैं कि दर्द कितना भी बड़ा हो, उसकी दवा मोदी के पास है।
लगभग चार दशक से मैं भारतीय राजनीति को करीब से देख रहा हूं। मुझे याद नहीं कि विपक्ष कभी इतना निस्तेज और साख विहीन रहा हो। यह स्थिति जनतंत्र के लिए अच्छी नहीं है, लेकिन वास्तविकता को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता। किसी भी सरकार के खिलाफ मुद्दा हो तो विपक्ष की ताकत बढ़ती है, पर यह भी सही है कि मुद्दे केवल अवसर देते हैं। अवसर का लाभ उठाने के लिए विश्वसनीयता जरूरी होती है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता का उद्धरण दिया। इस कविता का अर्थ था कि चिड़ियों को पौ फटने से पहले ही रोशनी का आभास हो जाता है और वे चहचहाने लगती हैं।
कोरोना महामारी से देश जिस तरह निपटा, चीन को सीमा पर जिस तरह का जवाब दिया गया, वैक्सीन के विकास और टीकाकरण में जिस तरह की शुरुआत हुई और अब बजट के जरिये आíथक मोर्चे पर जिस तरह की पहल हुई, वह नए भारत के अभ्युदय का संकेत है। मोदी ने न केवल इस संकेत को पहचान लिया है, बल्कि इसकी पूरी तैयारी भी कर ली है। आने वाला समय भारत का है और उसके स्वागत की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। यह बात तमाम दुनिया को नजर आ रही है। कुछ लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही, क्योंकि उनकी निंदा हीनभावना से उत्पन्न हुई है। जब आप कर्म के मामले में कमजोर होने लगते हैं तो निंदा आपके स्वभाव का स्थायी भाव बन जाती है। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि-ईष्र्या-द्वेष से प्रेरित निंदा करने वाले को कोई दंड देने की जरूरत नहीं है। निंदक बेचारा स्वयं दंडित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के मारे सो नहीं पाता। निरंतर अच्छा काम करते जाने से उसका दंड भी सख्त होता जाता है। हम और आप ऐसा होते हुए देख रहे हैं।