मतांतरण का सुनियोजित धंधा: मतांतरण केवल आस्था, विश्वास, उपासना पद्धति का ही रूपांतरण नहीं, बल्कि राष्ट्रांतरण भी है

सर्वसाधारण ही नहीं, अपितु शिक्षित वर्ग भी बहुधा मत, संप्रदाय, मजहब, रिलीजन आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल कर बैठता है।

Update: 2021-07-06 08:10 GMT

भूपेंद्र सिंह| सर्वसाधारण ही नहीं, अपितु शिक्षित वर्ग भी बहुधा मत, संप्रदाय, मजहब, रिलीजन आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल कर बैठता है। वस्तुत: धर्म और मजहब-रिलीजन में जमीन-आसमान का अंतर है। एक में विस्तार है तो दूसरे में सीमाबद्धता। मजहब या रिलीजन एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर को मानने के लिए बाध्य करता है। इसके अलावा वह अन्य किसी मत या सत्य को स्वीकार नहीं करता। जो-जो उससे असहमत या भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति उसमें निषेध-अस्वीकार से आगे कई बार घृणा या वैमनस्यता भी पाई जाती है। भिन्न प्रतीकों-चिन्हों को ही वे अपनी अंतिम और एकमात्र पहचान बना लेते हैं। जबकि धर्म एकत्व तलाशने, चेतना-संवेदना को विस्तार देने तथा आंतरिक उन्नयन का लक्ष्य लेकर चलता है। वह समरूपता का पोषक नहीं, बल्कि विविधता, वैशिष्ट्य एवं चैतन्यता का संरक्षक है। वह किसी विशेष मत या सत्ता को येन-केन-प्रकारेण प्रतिस्थापित करने का बाह्य-आक्रामक अभियान नहीं, अपितु सत्य का अनुसंधान है। वह करणीय-अकरणीय, कर्तव्य-अकर्तव्य के सम्यक बोध या उत्तरदायित्व का दूसरा नाम है।

धर्म धारण किया जाता है और मजहब एवं रिलीजन कुबूल या स्वीकार किया जाता है
सनातन संस्कृति में धर्म एक व्यापक अवधारणा है, जो मानव मात्र के लिए है, किसी समूह या जाति विशेष के लिए नहीं। इसीलिए हर यज्ञ-अनुष्ठान के बाद सनातन संस्कृति में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो-जैसी मंगलकामनाएं की जाती हैं। यहां किसी विशेष मत, पंथ, संप्रदाय, समुदाय की जय-जयकार नहीं की जाती। गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं कि जब-जब धर्म का नाश होता है, अधर्म बढ़ता है, मैं अवतरित होता हूं। उन्होंने यह नहीं कहा कि जब-जब किसी मत या पंथ का नाश होता है। कुल मिलाकर धर्म धारण किया जाता है और मजहब एवं रिलीजन कुबूल या स्वीकार किया जाता है।
धर्म में समावेश, समन्वय, सह-अस्तित्ववाद पर जोर रहता है
धर्म में समावेश, समन्वय, सह-अस्तित्ववाद पर जोर रहता है। वह सार्वजनिक समरसता के सिद्धांत पर अवलंबित होता है। धर्म व्यक्ति, समाज, प्रकृति, परमात्मा और अखिल ब्रह्मांड के मध्य सेतु-समन्वय स्थापित करता है। वह सबके कल्याण एवं सत्य के सभी रूपों-मतों को स्वीकारने की बात करता है। धर्म कहता है-एकं सत विप्रा: बहुधा वदंति, सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। मनु ने धर्म की व्याख्या करते हुए जो दस लक्षण बताए उनमें किसी के प्रति अस्वीकार या असहिष्णुता तो दूर, कहीं रंच मात्र संकीर्णता और अनुदारता के संकेत तक नहीं हैं।
जिद-जुनून, सोच-सनक का ही परिणाम है मतांतरण
जबकि सभी अब्राहमिक मतों में उनके पैगंबरों की वाणी को ही अंतिम, अलौकिक और एकमात्र सत्य माना गया है, शेष को लौकिक तथा मिथ्या। इस श्रेष्ठता ग्रंथि, भेद बुद्धि और आरोप-आक्रमण-विस्तार की नीति के कारण ही वह हरेक से संघर्षरत है। न केवल औरों के साथ, बल्कि उनके अपने मत के भीतर भी अधिक शुद्ध, अधिक सच्चा और अधिक धार्मिक होने को लेकर लगातार संघर्ष देखने को मिलता है। दुनिया के कल्याण की इस एकांगी-मनमानी मान्यताओं-व्याख्याओं ने स्थिति को और विकट, भयावह एवं संघर्षपूर्ण बना दिया है। ऐसी जिद-जुनून, सोच-सनक का ही परिणाम है मतांतरण।
मतांतरण का सुनियोजित धंधा वर्षों या दशकों से नहीं, अपितु सदियों से चलाया जा रहा
मतांतरण का सुनियोजित धंधा वर्षों या दशकों से नहीं, अपितु सदियों से चलाया जा रहा है। इस कड़ी में उत्तर प्रदेश में बीते दिनों उजागर हुआ मुफ्ती जहांगीर कासमी, मोहम्मद उमर गौतम और उसकी संस्था इस्लामिक दावा सेंटर द्वारा कराया जा रहा मतांतरण का खेल भी जुड़ गया है। सनातन धर्म और दर्शन अपने उदार, सहिष्णु, सर्वसमावेशी सोच के कारण उनके निशाने पर हमेशा से रहा है। आज भारत का कोई ऐसा प्रांत, कोई ऐसा जिला नहीं जहां ईसाई और इस्लामिक संस्थाएं मतांतरण के धंधे को संचालित नहीं कर रहीं। निर्धन-वंचित समाज एवं भोले-भाले आदिवासियों को वे अपना आसान शिकार बनाते हैं। उनकी कट्टर-मजहबी सोच का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मूक-बधिर, बीमार, बेसहारा, दिव्यांग जनों को भी वे नहीं छोड़ते। कोई सेवा-चिकित्सा के नाम पर यह धंधा चला रहा है तो कोई दीन-ईमान, जन्नत-दोजख और जन्नत के बाद नसीब होने वाले तमाम काल्पनिक ऐशो-आराम और सुखों के नाम पर। किसी इलाके की तेजी से बदलती हुई जनसांख्यिकीय स्थिति और घुसपैठ भी अब इसमें सहायक भूमिका निभाने लगी है।
मतांतरण केवल आस्था-विश्वास-उपासना पद्धति का ही रूपांतरण नहीं, वह राष्ट्रांतरण भी है
सनद रहे कि मतांतरण केवल आस्था-विश्वास-उपासना पद्धति का ही रूपांतरण नहीं, वह राष्ट्रांतरण भी है। मतांतरित होते ही व्यक्ति की राष्ट्र, समाज और संस्कृति के प्रति धारणा और भावना बदल जाती है। वह अपने पुरखों, परंपरा और विरासत के प्रति हीनता की ग्रंथि पाल लेता है। इससे उसकी कल्पना का आदर्श समाज, आकांक्षाएं और भविष्य के सपने भी बदल जाते हैं। तीर्थ से लेकर प्रकृति-परिवेश के प्रति उसके सोच और श्रद्धा के केंद्र बदल जाते हैं। जीवन के आदर्श, मूल्य, गौरवबोध तथा अतीत और वर्तमान के जय-पराजय, मान-अपमान, शत्रु-मित्र के प्रति उसका संपूर्ण बोध और विचार बदल जाता है। देश पर आक्रमण करने वाले आक्रांता और देश को गुलाम बनाने वाली सत्ताएं उनके लिए पीड़ा-टीस-कलंक के नहीं, गौरव की विषयवस्तु बन जाते हैं। क्या यह सत्य नहीं कि अखंड भारत से विलग होकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बनने तथा देश के भिन्न-भिन्न प्रांतो-हिस्सों में पलती-पनपती आतंकी-अलगाववादी गतिविधियों के मूल में यह मतांतरण ही है? यह अकारण नहीं कि स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों ने मतांतरण का पुरजोर विरोध किया था। सनातन घटा, देश बंटा-यह केवल धारणा या कल्पना नहीं, यथार्थ है।


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