पितृपक्षः राजनीतिक हित-अहित के आधार पर राष्ट्र पितरों का महिमा मंडन और खंडन
इस पितृपक्ष की अंतिम अमावस्या को पिता का श्राद्ध किया तो स्मृतियों-भावों-विचारों का एक विचित्र ही प्रवाह चल पड़ा
राहुल देव इस पितृपक्ष की अंतिम अमावस्या को पिता का श्राद्ध किया तो स्मृतियों-भावों-विचारों का एक विचित्र ही प्रवाह चल पड़ा. अपने पिता-माता सबके लिए ही विशिष्ट होते हैं. उन्हें श्रद्धा के साथ पूज्य भाव से स्मरण करना, निमंत्रित करना है कि वे आएं हमारा तैयार किया भोजन स्वीकार करें, हमें आशीर्वाद दें, इस भावना के साथ हम श्राद्ध करते हैं. भावना करते हैं कि, वे जहां हैं पितर लोक में संतोष और सुख से रहें. अपनी संतानों को अपने आशीष कवच में सुरक्षित रखें. कहते हैं कि हमारे पितर श्राद्ध पर हमारी श्रद्धा और बुलावे की प्रतीक्षा करते हैं. वे आते हैं, भोग ग्रहण करते हैं, हमें असीस कर लौट जाते हैं.
हर पितृपक्ष पर हर संतान पिता-माता की स्मृतियों में डूबती है, आंसुओं भरा स्मरण करती है एक समूचा जीवन, बचपन, कैशोर्य, तरुणाई जो उनकी वत्सल छाया में गुज़ारी. हमें बनाने में, ढालने में, यहां तक लाने में उनका तप, स्नेह, त्याग और सहज श्रम याद आता है और हम कृतज्ञता के सागर में डुबकियां लगा उन्हें सश्रद्ध प्रणाम करते हैं. हमने भी दिवंगत पिता और उनकी उदारता, स्वाभिमानी संघर्षशीलता, वृहत्तर कुटुम्ब ही नहीं व्यापक समाज के सदस्यों के प्रति सह्रदय उदारता को याद किया, उनके सक्रिय देशप्रेम की तड़प को नमन किया. उन संस्कारों को प्रणाम किया जिनके एक अंश ने ही हमारे जीवन को कुछ सार्थकता, सम्मान से शोभित किया. उनकी ईश्वर भक्ति, उनके साथ बैठ कर सुने-गाए हुए भजन, रामचरितमानस, मंत्र आज भी संताप हरते हैं, अंतःकरण पावनता से भरते हैं. फिर बाबा-दादी, नाना-नानी, सास-ससुर, चाचाओं, मामाओं सहित तमाम उन बड़ों को याद किया जिन्होंने हमें गढ़ा, स्नेह और आशीष दिए.
हमें जो हमारे पितरों ने दिया क्या हम उसका शतांश भी अपने बच्चों को देते हैं? मेरे धार्मिक-आध्यात्मिक संस्कार पिता-मां के साथ रोज़ शाम को घर के मंदिर के आगे बैठ कर हनुमान चालीसा, रामचरितमानस का भाव में डूब कर सस्वर पाठ करते पिता को सुनते हुए बने हैं, उनके, मां और छोटे भाई के साथ भजन गाते हुए गहरे हुए हैं. वे सब संस्कार अनुकूल वातावरण में जग कर मन में फिर बजने-गूंजने लगते हैं, मानस की विभिन्न स्तुतियां और हनुमान चालीसा के पद अपने आप मौन अन्तरगान में जीवन्त हो जाते हैं.
अब घर में मंदिर तो है, पत्नी रोज़ कुछ पूजा- कुछ पाठ भाव से करती हैं, लेकिन हम अपने बच्चों के साथ दिवाली-जन्माष्टमी के रस्मी निबाह के अलावा कभी उस भाव और तरल आस्था में डूब कर एक साथ उस तरह से न बैठ सके, साथ गा न सके. अब न हम बचपन के बच्चे हैं, न वह समय है, न आज के बच्चे वैसे हैं. समय बदल गया है, हम भी बदल गए हैं. शुरू से सावधान रहते तो किसी न किसी अंश में तो कर ही सकते थे. समय की कमी ऐसी भी विकट नहीं होती कि हम ज़रूरी काम न कर पाएं. अब चाहें तो भी संभव नहीं. बच्चे अपनी राहें पकड़ चुके हैं. उनको हम ये स्मृतियां नहीं दे पाए हैं. वे अपने बच्चों को संस्कारों के नाम पर क्या देंगे जब हम उनके पितर हो चुके होंगे? क्या पितृपक्ष में वे भी वैसे ही उस जैसा सोचेंगे जैसे मैं बैठा सोच रहा हूँ?
सोचते-सोचते मन कुछ नई दिशाओं में दौड़ने लगा
हम अपने पितरों की कितनी पीढ़ियों को नाम-परिचय सहित याद कर सकते हैं? सामान्यतः दो या तीन. कोई बहुत ही वंशावली विशारद हो, अध्येता हो तो चार या पांच. इसके भी पहले जाने के लिए अपने पारिवारिक पंडों की शरण में जाना पड़ता है जो अपने यजमानों की वंशावलियों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी दर्ज करने की अद्भुत भारतीय प्रथा की तकनीक में दक्ष हैं.
अपने माता-पिता जिन्हें हम समझते हैं कि हम अंतरंगता से जानते हैं या बाबा-दादी, नाना-नानी जिन्हें हम उतना नहीं फिर भी काफी जानते हैं, इन सबको दरअसल हम कितना जानते हैं? हम अपने माता-पिता के जीवन की संपूर्णता को भी उतना ही जानते हैं जितना हमने होश में देखा है और उसके पहले के बारे में जितना उन्होंने बताया है. एक समूचा जीवन जिन खट्टे-मीठे अनुभवों, भीतरी और बाहरी उतार-चढ़ावों-बदलावों से गुज़र कर बनता है उसे कोई दूसरा कैसे-कितना जान सकता है जब तक व्यक्ति एक ईमानदार, निर्मम आत्मकथा न लिख दे?
हम खुद को ही पूरी तरह कितना जानते हैं
सवाल तो यह है कि हम खुद को ही पूरी तरह कितना जानते हैं, समझते हैं. क्या हम बचपन से अब तक के अपने सारे अनुभवों, घटनाओं को उनकी संपूर्णता में, सारे ज्ञात-अज्ञात कारणों, प्रयोजनों, प्रेरणाओं को सचमुच जानते हैं? यह वही जान सकता है जो अपने एक-एक व्यवहार को निर्मम तटस्थता और अंतर्दृष्टि के साथ देखने में सक्षम हो. लेकिन हम सब आत्म-मोह और आत्म-रति में डूबे हुए मनुष्य नहीं हैं. क्या जो अपनी हर दुर्बलता, गलती, अज्ञान, क्षुद्रता को सतही अहंकार से ढके हुए जीते रहते हैं. बिरले हैं जो अपनी असली सच्चाइयों का सामना करने, उन्हें स्वीकार करने की हिम्मत रखते हैं.
जब हमारे आत्म-ज्ञान का हाल यह है तो क्या हम सचमुच कह सकते हैं कि हम अपने माता-पिता के अंतर-बाह्य जीवन को उनकी संपूर्णता में जानते हैं? नहीं. इस कसौटी को अपने बाबा-दादी की पीढ़ी तक ले जाएं तो तुरंत समझ आ जाएगा कि उन्हें तो हम बहुत ही कम जानते हैं. और बाबा-दादी के माता-पिता को, उनके बाबा-दादी, नाना-नानी को? उत्तर है लगभग शून्य. यह इसलिए नहीं कि हम नासमझ हैं बल्कि इसलिए कि यह संभव नहीं है. जीवन केवल प्रमुख घटनाओं में ही नहीं जिया जाता, दरअसल उनके बीच के अनगिनत स्तरों और आयामों में जिया जाता है.
यह सब लिखने का प्रयोजन यह स्पष्ट करना है कि हम अपने सीमित पारिवारिक इतिहास में ही जितना पीछे जाते हैं हमारी जानकारी उतनी ही कम, हलकी, सतही होती जाती है. इस इतिहासपरक जिज्ञासा श्रंखला को यदि देशों, समाजों, धर्मों, ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर ले जाएं तो उनके बारे में सब कुछ तो दूर काफी कुछ जानना भी कई गुना दुष्कर हो जाता है. यह इतिहास की प्रकृति है. इसीलिए वह नित्य आविष्कृत-निर्मित होता रहता है- शोध से, अध्ययन से, नई प्रविधियों और नई दृष्टियों से. इतिहास कभी अंतिम नहीं होता सदा अनंतिम रहता है.
अधिकांश पुरानी सभ्यताओं में पुरखों की पूजा
पितर यानी पुरखे हर सभ्यता में पूज्य रहे हैं. अधिकांश पुरानी सभ्यताओं में पुरखों की पूजा, उन्हें प्रसन्न रखने के रस्मो-रिवाज़ रहे हैं. सबमें यह समझ रही है कि वे थे इसलिए हम हैं, उन्हीं से हैं. उनके पितर न होते तो वे न होते, इसी तरह उनके पितरों के पितर…और यूं पितरों की एक अनन्त और अज्ञात श्रंखला से हम स्वयं को जुड़ा अनुभव करते हैं. हम एक अनन्त परंपरा का फल हैं, उसके वर्तमान हैं. कुछ दिनों-महीनों-बरसों बाद हम स्वयं पितर होंगे अपनी संतानों के. शायद वे भी पितृपक्ष में हमें यूं ही याद करेंगे, न्योतेंगे, खिलाएंगे…. फिर वे स्वयं पितर बन जाएंगे एक दिन और फिर उनके…
पितृपक्ष में क्या हम केवल अपने पारिवारिक पितरों को याद करते हैं? क्या वंश की पैतृक परंपरा के पुरखे ही हमारे एकमात्र पितर हैं? या हमारे इन असंख्य पितरों के अपने असंख्य पितरों और फिर उनके अपने-अपने असंख्य पितरों की असंख्य श्रंखलाएं, इतनी कि कुछ ही देर में इन असंख्य संख्यात्मक संभावनाओं के आगे बुद्धि और कल्पना जवाब देने लगते हैं, बढ़ते-बढ़ते मानवता मात्र को अपने घेरे में नहीं समा लेतीं? और अगर अपने मानवीय पितरों से पहले के प्राणि-पितरों के बारे में सोचने लगें तो क्या सृष्टि मात्र हमारा पितर नहीं बन जाती?
गांधी को कोसने वालों से मन दुखी
मंदिर में बैठने से पहले से मन दुखी था, आहत था. सुबह-सुबह एक यूट्यूब चर्चा सुन ली थी जिसमें अपने ही तीन परिचित मिल कर गांधी को कोस रहे थे, चुन-चुन कर उनके ऐसे प्रसंगों का ऐसा घृणित विश्लेषण कर रहे थे कि गांधी से अनजान सुनने वाले उनसे घृणा करने लगे. गांधी के इस शवोच्छेदन में एक के बाद एक झूठ बोले जा रहे थे. ऐतिहासिक घटनाक्रमों, तथ्यों, घटनाओं की ऐसी मूर्खता और द्वेष से भरी व्याख्याएं की जा रही थीं कि दो घंटे की चर्चा पूरी सुन न सका. गांधी को राष्ट्रपिता क्यों कहा जाता है इस पर लंबा विषवमन हुआ. क्या ऐसे सनातन राष्ट्र का उन्हें पिता बनाया जा सकता है? किसने बना दिया? वे अंग्रेज़ों के एजेंट थे, अंग्रेज़ों ने उन्हें योजना के तहत दक्षिण अफ्रीका से भारत भेजा था. अपनी यौन विकृतियों का शिकार परिवार की ही युवा लड़कियों को बनाने वाले इस पापी, पतित, नैतिक अपराधी को क्यों इतना महिमा मंडित किया जाता रहा है? यानी गांधी के अपराधों की ऐसी सूची जो गोडसे के पास भी नहीं थी शायद.
उसके कुछ ही दिन बाद देश की सर्वोच्च हिंदू धार्मिक विभूतियों में से एक से संक्षिप्त संवाद का अवसर मिला. बातों के क्रम में उन्होंने गांधी के बारे में ऐसी बातें कहीं जो कभी सुनी ही नहीं थीं. वे न केवल गांधी को भारत विभाजन के लिए अकेला जिम्मेदार मानते थे, जैसा आज के लाखों पढ़े-लिखे अनपढ़ मानने लगे हैं, बल्कि यह भी ज्ञान दे डाला कि गांधी ने ही जिन्ना के दिमाग में पाकिस्तान का विचार डाला था. मैं सन्नाटे में था. इतने ऊँचे पद पर बैठे पूज्य व्यक्ति का ऐसा अज्ञान और दुराग्रह देखना त्रासद था. स्पष्ट था कि उन्होंने गांधी के बारे में कुछ नहीं पढ़ा था. उन्होंने बस यह बताया कि गांधी के एक करीबी से उन्होंने यह सुना था. उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के बारे में भी कुछ जानकारी नहीं थी. बताने पर मौन हो गए. यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था कि उन्होंने भारत का संविधान भी नहीं देखा था.
गांधी के जीवन में ही उनकी प्रखर आलोचना होती रहती थी. आज इतने वर्षों बाद तो उनके बहुत से कामों, निर्णयों, तरीकों, दर्शन पर तरह के सवाल उठाए ही जा सकते हैं, उठाए भी जा रहे हैं. उनके जीवन के हर पक्ष को उलट-पलट कर उसकी समीक्षा की जा रही है. यह होना ही चाहिए.
सावरकर के साथ भी ऐसा ही हो रहा है
ऐसा ही सावरकर के साथ किया जा रहा है. उन पर एक के बाद जीवनियां, पुस्तकें आ रही हैं. उन्हें गांधी से बड़ा और महानतर सिद्ध करने के संगठित प्रयास हो रहे है. इसमें कोई बुराई नहीं. हर ऐतिहासिक व्यक्तित्व के विविध आयामों पर निरंतर शोध-अध्ययन होना ही चाहिए. लेकिन भारतीय इतिहास और विचारधाराओं के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े इन दोनों व्यक्तित्वों का जिन दृष्टियों और तरीकों से पुनरावलोकन, पुनर्विश्लेषण किया जा रहा है वे एकदम विरोधाभासी हैं- गांधी का महिमामर्दन और सावरकर का महिमामंडन. ईमानदार इतिहास लेखन का काम यह नहीं, गिराना-उठाना नहीं, तथ्यों को सामने लाना है।
मन में प्रश्न उठा क्या इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए उसके प्रमुख चरित्रों, पात्रों को वैचारिक मतभेदों के बावजूद हम अपने पितर नहीं मान सकते? क्या एक को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरे को गालियां देना, उसका चरित्रहनन करना अनिवार्य है? ये सब राष्ट्र पितर हैं. गांधी-सावरकर भी, नेहरू-सुभाष बोस भी, सरदार पटेल-मौलाना आज़ाद भी, भगत सिंह-विनोबा भावे भी.
हमारे पारिवारिक पुरखे भी एक जैसे महान नहीं थे
आखिर हमारे पारिवारिक पुरखों में भी सब तो एक जैसे महान, उदात्त चरित्र वाले नहीं थे. सबकी अपनी कमज़ोरियां थीं, अपनी ऊंचाइयां थीं, अपना बड़प्पन था तो अपनी क्षुद्रताएं भी रही होंगी. फिर भी हम जब उनका स्मरण करते हैं तो उनकी अच्छाइयों को आगे रख कर. उनके चरित्र का योजना बना कर पोस्टमॉर्टम नहीं करते.
ऐतिहासिक चरित्रों को पारिवारिक व्यक्तियों की तरह नहीं देखा जा सकता. सबका सटीक और निरंतर आंकलन आवश्यक है. इतिहास के परिचित पन्नों और व्यक्तित्वों के बारे में संसार भर में शोध, अध्ययन, पुनरावलोकन, विमर्श, लेखन चलता रहता है. यह ज़रूरी है. इतिहास एक निरंतर सक्रिय, गत्यात्मक विषय है जिसमें नए तथ्यों की खोज और उनके आधार पर पुरानी घटनाओं, परिघटनाओं, कालों, देशों, समाजों और ऐतिहासिक पात्रों का नया मूल्यांकन तथा समीक्षा चलती रहती है. लेकिन पुनर्मूल्यांकन का मतलब पूर्वाग्रह-दुराग्रह, द्वेष और सुविधानुसार राजनीतिक हित-अहित के आधार पर व्यक्तियों का महिमा मंडन और खंडन नहीं होना चाहिए. यह इतिहास विधा को तो प्रदूषित करता ही है पीढ़ियों के दिलो-दिमाग को असत्यों, दुराग्रहों और विकृत इतिहास बोध से भरता है. समाज को इसकी दूरगामी कीमत चुकानी पड़ती है. दुर्भाग्य से आज यह चलन में है.