ओछे राज के छोटे-छोटे डर

इस पृथ्वी पर राक्षसी ताकतों, तानाशाही, इंसान को जंजीरों में जकड़वाने वाले कठमुल्ला धर्म, व्यवस्था से लड़ने

Update: 2021-03-24 11:55 GMT

उफ! कैसी यह हिंदूशाही?-2: याद करें किस राज में ऐसा हुआ जो उसने एक प्राइवेट विश्वविद्यालय में उस प्रोफेसर को 'पॉलिटिकल लायबिलिटी' बना नौकरी से हटवाया जो स्वतंत्रचेता है और जिसे दुनिया में पढ़ा, माना जाता है! विचारें नरेंद्र मोदी राज में प्राइवेट अशोका यूनिवर्सिटी द्वारा प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता से पिंड छुड़ाने की घटना पर! जो हुआ क्या वह मौजूदा हिंदूशाही के ओछेपन का सत्य लिए हुए नहीं है? क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि आज की सत्ता डर में, ओछी-टुच्ची चिंताओं में वक्त जाया करते हुए है?

हां, गजब है जो नरेंद्र मोदी हिंदू राज के छप्पर फाड़ मौके को टुच्चे कामों से कलंकित बना रहे हैं। मौका है दुनिया में भारत के लोकतंत्र का मान बढ़वाने का। हिंदुओं की उदारवादी प्रतिष्ठा व समझदारी साबित करने का। दुनिया को यह बतलाने का कि इस पृथ्वी पर राक्षसी ताकतों, तानाशाही, इंसान को जंजीरों में जकड़वाने वाले कठमुल्ला धर्म, व्यवस्था से लड़ने की पैदल प्रतिरोधी सेना यदि कोई है तो वह 138 करोड़ लोगों की आबादी को लिए भारत और उसका हिंदू धर्म है! सत्य है आज का यह कि चीन व रूस जैसे देशों पर अंकुश के लिए दुनिया के सभ्य देश भारत और नरेंद्र मोदी को देख रहे हैं, जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदूशाही का फोकस प्रताप भानु मेहता, दिशा रवि, तापसी पन्नू आदि उन चेहरों पर है, जिनकी स्वतंत्र चेतना से लोकतंत्र और देश जिंदादिल बनता है लेकिन मोदी उलटे सत्ता को खतरा समझते हैं।

जान लें अपना मतलब नहीं हैं। मैं कुछ नहीं हूं। न कुछ होने की गलतफहमी है। बावजूद इसके चालीस साल के पत्रकारीय जीवन का यह विश्वास तो है कि बुद्धि की स्वतंत्र चेतना में जो समझ आया वह लिखता रहा और यही धर्म-कर्म, पुण्यता में जीवन का संतोष और सार्थकता है। वैसा ही भाव प्रताप भानु मेहता का शैक्षिक जीवन, कॉलम लेखन में रहा होगा। अनुभव-चिंतन-मनन में जो विचार बने उन्हें लिखा। वे भी मेरी तरह नरेंद्र मोदी से उम्मीद लिए हुए थे। उन्होंने सन् 2006 के बाद मनमोहन सरकार के भटकाव पर दबा कर लिखा। लिखते-लिखते नरेंद्र मोदी से उम्मीद बनी तभी सन् 2014 से पहले 'इंडियन एक्सप्रेस' का उनका कॉलम अंग्रेजीदां मध्य वर्ग में मोदी का माहौल बनवाने वाला था। बाद में उनका मोहभंग हुआ, देश-राजनीति-समाज-आर्थिकी भटकती समझ आई तो प्रताप भानु मेहता की प्रखर आलोचना में भक्त हिंदू तिलमिलाए। और इसी महीने खबर आई कि उन्हें बतौर कुलपति, प्रोफेसर नियुक्त करने वाले विश्वविद्यालय ने 'पॉलिटिकल लायबिलिटी' मान इस्तीफा लिया और पिंड छुड़ाया।

यह क्या है? एक प्रोफेसर जो पढ़ाता है, एक स्तंभकार जो अखबार में लिखता है, एक वेबसाइट मालिक जो इधर-उधर से संसाधन जुटा मीडिया की आजादी के लिए खपते हुए वेबसाइट चलाता है, उन्हें नौकरी से हटवाना, ईडी की छापेमारी हिंदूशाही की गौरवगाथा है या कलंक कथा? प्रताप भानु मेहता का किस्सा यों छोटा है लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य की हिंदुवादी राजनीति, समझ का वैश्विक प्रतीकात्मक लक्षण इसलिए है क्योंकि इससे चाल, चेहरा, चरित्र प्रकट होता है। हम हिंदू क्या विचार-शास्त्रार्थ, 32 करोड़ देवी-देवताओं की आस्थागत भिन्नताओं, अध्यात्म-दर्शन के भिन्न रूपों-मतों की अच्छाईयों को भुला कर इस्लाम के तौहिदी मिजाज के रंग में नहीं रंग रहे हैं? एकेश्वरवादी हुंकारे वाला यह नारा नहीं तो क्या कि बोलो जयश्री राम नहीं तो हिंदू विरोधी! न हिंदूशाही को बोध है, न भक्त हिंदू लंगूरों को पता है, न नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की समझ है कि दुनिया में यदि भारतवंशी हिंदू के प्रति 'अद्भुत', बुद्धिमना कर्मयोगी होने का सम्मान है तो वह इसलिए है क्योंकि हिंदू मिजाज कट्टरवादी, एकेश्वरवादी धर्मों की सीमाओं में नहीं जीता है वह संकीर्णता की जोर-जबरदस्ती के कलंक लिए हुए नहीं है। याद करें केरल में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा प्रोफेसर टीजे जोसेफ के हाथ काटने की घटना को! इस्लामी कट्टरपंथियों को प्रोफेसर की स्वतंत्रचेता अभिव्यक्ति बरदाश्त नहीं हुई और ईशनिंदा का हल्ला कर उसका हाथ काट लिया!

क्या वैसा हिंदू का चाल,चेहरा, चरित्र है? क्या मोदी को, हिंदूशाही को असहिष्णुता का वह चरित्र बनवाना चाहिए?

हिंदू परंपरा शंकराचार्य बनाम मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ की है न कि विरोधी को जेल में डालने की, छापे डलवाने की, बैन-पाबंदी लगवाने की, नौकरी से हटवाने की या सृजनात्मकता पर ताला लगवाने की है। हम हिंदुओं ने, संघ-भाजपाइयों ने भी बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन की 'लज्जा' किताब की रक्षा में हल्ला बनाया था कि इस स्वंतत्र चेता लेखिका को भारत शरण दिए रहे। यही हिंदू के अच्छेपन का वह नैसर्गिक भाव है, जिससे हिंदू दुनिया के उदार-विचारवान-सभ्य देशों, समाजों में रमता है, खिलता है। विदेशी राज के अनुभवों को याद करें तो विचारें कि मुगलों ने क्या हिंदू भक्त कवियों की बुद्धि पर तलवार लटकाई थी? क्या इतिहास का यह सत्य नहीं है कि इस्लामी राज में हिंदू भक्ति परंपरा फली-फूली और सूर, तुलसी, कबीर, मीरा अपनी विचार भिन्नताओं के बावजूद परस्पर सम्मान के साथ दोहे रचते गए। क्या यह सत्य नहीं कि अंग्रेजों के वक्त भी हिंदू समाज विचार भिन्नताओं के साथ स्वतंत्रचेता था? लाल-बाल-पाल, गांधी बनाम सावरकर, नेहरू बनाम लोहिया, सेकुलर बनाम सांप्रदायिक की तमाम परस्पर विरोधी विचारधाराओं में कब यह नौबत आई कि अंग्रेज या नेहरू सरकार ने यह टुच्चापन सोचा कि विरोधी का बोलना, लिखना, इमेज खराब करना सत्ता को असुरक्षित बनाना है। इसलिए आलोचना के पीछे लंगूर छोड़ो, मीडिया को गुलाम बनाओ, एक्टिविस्टों को राजद्रोही-देशद्रोही करार दे कर जेल में डालो या नौकरी से निकलवाओ और हर संस्था की स्वतंत्र चेता बुद्धि को 'पॉलिटिकल लायबिलिटी' में कन्वर्ट कराओ!

वापिस सोचें प्रताप भानु मेहता के किस्से पर। अपना मानना है कि हाल में जब स्वीडन की वैश्विक संस्था वी-डेम ने अपनी रिपोर्ट में भारत के लोकतंत्र को पाकिस्तान जैसा और बांग्लादेश से गया गुजरा करार दिया तो मोदी सरकार गुस्साई होगी। तभी प्रताप भानु मेहता टारगेट बने क्योंकि वे कभी इस संस्था से जुड़े रहे होंगे। नतीजतन हरियाणा के सोनीपत में स्थित अशोका विश्वविद्याल को मैसेज बना कि तुम्हारी हिमाकत जो प्रताप भानु मेहता को नौकरी दे रखी है। और प्रताप भानु मेहता की छुट्टी!

तो इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा एक प्रोफेसर के हाथ काटने और हिंदूशाही द्वारा एक प्रोफेसर की नौकरी खत्म करवाने में क्या फर्क? दोनों के पीछे का सत्य मजा चखाने, औकात बतलाने, विचारने-सोचने-अभिव्यक्ति की आजादी पर क्या तलवार लटकाना नहीं है? सर्वाधिक गंभीर और भारत राष्ट्र-राज्य के खोखलेपन का साक्ष्य अशोका विश्वविद्यालय का प्रकट हुआ चरित्र है। यह विश्वविद्याल अरबपति उन धन्ना सेठों-कंपनियों के पैसे से बना है, जिनका सपना आक्सफोर्ड-हार्वर्ड जैसे विश्वविधालय बना कर भारत को विश्व गुरू बनाना है। मतलब प्राइवेट विश्वविद्यालयों के नाम पर भारत में शिक्षा की जो आधुनिक-तामझाम वाली उच्च शिक्षा की संस्थाएं हैं, उसकी नंबर एक प्रतीक संस्था! बावजूद इसके प्रताप भानु मेहता के मामले में इस विश्वविद्यालय ने अकादमिक आजादी में कैसा चरित्र दिखाया? हाकिमों ने आंखे दिखाई नहीं की ऑक्सफोर्ड-हार्वर्ड की बात करने वाले विश्वविद्याल के डायरेक्टरों ने पेशाब कर दिया।

मुझे हैरानी है कि नेहरू-इंदिरा ने कैसे इलाहाबाद के सरकारी विश्वविद्यालय में आरएसएस के प्रो. राजेंद्र सिंह, डॉ. मुरली मनोहर जोशी को प्रोफेसर रहने दिया? कैसे नुरूल हसन की इंदिरा शाही के दिनों एमएल सोंधी जैसे जनसंघी जेएनयू में प्रोफेसर थे या आईआईटी दिल्ली ने डॉ. सुब्रहमण्यम स्वामी को नौकरी दी थी!

तभी नरेंद्र मोदीकृत हिंदूशाही में वह है जो अहिंदू सा है! भारत में हिंदू होने का 'अच्छापन' फिलहाल विलुप्त है और दुनिया सुन-सुन कर थक रही है कि भारत अब अच्छा नहीं रहा। वहां आजादी से जीना संभव नहीं। लोकतंत्र आंशिक है और पाकिस्तान, बांग्लादेश से गया गुजरा! मीडिया-प्रेस-न्यायपालिका, संस्थाएं सब अपना तेज, ओज, गंवा कर या तो मुर्दा हैं या भोंपू हैं।

सचमुच नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदूशाही को अंदाज नहीं कि छोटे-ओछे-टुच्चे कामों से उनकी, हिंदुओं की, भारत की दुनिया में कैसी बदनामी हो रही है? दुनिया के तमाम नामी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, शिक्षाविदों, वाशिंगटन, लंदन, पेरिस आदि के लोकतंत्रवादी-उदारवादी थिंक टैंकों में न केवल नरेंद्र मोदी के प्रति निराशा है, बल्कि हिंदू राजनीतिक आंकाक्षाओं को फासीवादी माना जाने लगा है। हां, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के नामी प्रोफेसरों ने सामूहिक पत्र से यदि प्रताप भानु मेहता के साथ एकजुटता बताने वाला पत्र लिखा तो क्या ऐसा होना अमेरिकी, ब्रितानी, ऑस्ट्रेलियाई आदि सरकारों में मोदी सरकार को अछूत बनाने वाला नहीं होगा? भारत में शैक्षिक स्वतंत्रता, शिक्षा स्तर आदि के तमाम पहलूओं पर वहां यह सोच बन रही होगी कि जिस देश में अकादमिक बौद्धिक स्वतंत्रता 'पॉलिटिकल लायबिलिटी' है वहां ज्ञान-विज्ञान-सत्य की खोज वाली क्या पढ़ाई होती होगी! येल, हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड, एमआईटी, न्यूयॉर्क, स्टैनफोर्ड, कोलंबिया, कैंब्रिज याकि दुनिया के अधिकांश नामी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों ने प्रताप भानु मेहता के साथ हुए व्यवहार के हवाले जो आवाज गूंजाई है वहीं अब सभ्य-लोकतांत्रिक देशों में बतौर इंडिया (हिंदूशाही) पर्याय ट्यून में गूंजती रहेगी!

गौर करें, वैश्विक विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों ने प्रताप भानु मेहता पर राय व्यक्त की, जबकि भारत में चुप्पी रही। क्या आजाद भारत में शैक्षिक स्वतंत्रता का सुख भोग चुके डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने क्षोभ जताया? क्या भारत के कथित नामी सरकारी-प्राइवेट विश्वविद्यालयों की फैकल्टी, प्रोफेसरों ने शैक्षिक-बौद्धिक आजादी के लिए प्रताप भानु मेहता से एकजुटता दिखलाई? दुनिया के प्रोफेसरों की बुद्धि कुलबुलाई लेकिन भारत में नहीं! तो क्या भारत का शैक्षिक मानस ठूंठ, बुद्धिहीन प्रमाणित नहीं?

जवाब में अपनी पुरानी थीसिस फिर प्रासंगिक। हजार साला गुलामी ने हाकिम, हुकूमत को दिल-दिमाग पर ऐसा हावी बना रखा है कि न अशोका विश्वविद्यालय के अरबपति फाउंडर निर्भीक हो सकते हैं और न 138 करोड़ आबादी में 138 ऐसे बुद्धीमना मिलेंगें जो शैक्षिक स्वतंत्रता की अलख में आंदोलन का हुंकारा मारें। गनीमत है जो अभी 'इंडियन एक्सप्रेस' से प्रताप भानु को लिखने की जगह है। यदि मोदी और उनकी सरकार ने चाहा तो एक्सप्रेस के लिए भी प्रताप भानु वैसे ही 'पॉलिटिकल लायबिलिटी' हो जाएंगे जैसे अशोका विश्वविद्यालय में हुए। यदि ऐसा हुआ तो प्रताप भानु कहां लिखेंगे-छपेंगे? हिंदूशाही ने पूरे भारत को मोदी के मंदिर में या दुश्मनों के पाले में बदल डाला है। भारत वह देश हो गया है, जिसका लोकतंत्र न पाकिस्तान, बांग्लादेश के समतुल्य बनता है और न हांगकांग समतुल्य! इसलिए कि हांगकांग में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ते लोग और मीडिया मालिक आज भी हैं तो पाकिस्तान में 'डॉन' अखबार और अदालतें सचमुच सेना व इमरान सरकार से लड़ती-भिड़ती हुई हैं। आप ऐसा नहीं मानते, मत मानिए। मगर स्वीडेन की वैश्विक संस्था वी-डेम ने बांग्लादेश के लोकतंत्र को भारत से बेहतर बताया है और भारत को पाकिस्तान सरीका और उसकी तिलमिलाहट में प्रताप भानु पर मोदीशाही की गाज गिरी है तो जान लें भारत की लोकतंत्र रियलिटी का यह दुनिया के आगे स्वंयस्फूर्त खुलासा है। आपके मानने, न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ना


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