पर्यूषण: एक इंसान को दूसरे के निकट लाने का जैन समाज का आठ दिनों का महापर्व
एक इंसान को दूसरे के निकट लाने का जैन समाज का आठ दिनों का महापर्व
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
पर्यूषण पर्व जैन समाज का आठ दिनों का एक ऐसा महापर्व है जिसे खुली आंखों से देखते ही नहीं, जागते मन से जीते हैं. यह आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुंचा देता है, जो प्रतिवर्ष सारी दुनिया में मनाया जाता है. जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में इस पर्व का अपूर्व महत्व है.
पर्यूषण पर्व जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है. यह पर्व भीतर की ओर मुड़कर देखने की बात सिखाता है. मनुष्य का मन तब तक हल्का-भारहीन नहीं बन सकता, जब तक वह अंतर की गहराई में पहुंचकर भारमुक्त नहीं हो जाता. भार-मुक्तता उपदेश सुन लेने मात्र से प्राप्त नहीं हो सकती. वह प्राप्त हो सकती है, आराधना-विराधना के शास्त्रीय ज्ञान से. इस हेतु प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है.
प्रतिक्रमण का अर्थ है प्रमाद के कारण जो गलतियां हुईं और उससे चेतना पर जो व्रण या घाव हो गए हैं उनकी दैनिक, पाक्षिक एवं सांवत्सरिक अवसर पर चिकित्सा कर घाव को भर देना.
प्रतिक्रमण के द्वारा भूलों के कारणों की खोज की जा सकती है, तथा उनका निवारण भी किया जा सकता है. प्रति का अर्थ है-वापस, और क्रमण का अर्थ है-लौटना. वापस अपने आप में लौट आना. जैसे-असत्य से सत्य की ओर आना, अशुभ से शुभ की ओर आना, प्रमाद से अप्रमाद की ओर आना, वैर से मैत्री की ओर कदम बढ़ाना.
आज का मनुष्य जो इतना अशांत है, उसका मूल कारण आत्मावलोकन का अभाव है. हर कोई दूसरे को तो दोषी ठहरा रहा है, लेकिन अपनी भूल को स्वीकार करने में किंचित मात्र भी पहल नहीं कर पा रहा है. प्रतिक्रमण द्वारा जानबूझकर या अनजाने में हुई गलतियों का चिंतनपूर्वक निराकरण किया जा सकता है. प्रतिक्रमण का प्रयोग भूत, भविष्य एवं वर्तमान इन तीनों कालों की शुद्धि का आध्यात्मिक प्रयोग है. आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका क्षय करने वाली है. सत्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही अपनी शत्रु है. अतः किसी को मित्र बनाना है तो उसका रहस्य भी अंतर में खोजें और शत्रुओं को मिटाना है तो उसका राज भी अंतर में ही मिलेगा.
वस्तुतः पर्यूषण भीतर की सफाई का अमोघ उपाय है. संपूर्ण जैन समाज इस पर्व के अवसर पर जागृत एवं साधनारत हो जाता है. दिगंबर परंपरा में इसकी 'दशलक्षण पर्व' के रूप में पहचान है. उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी और संपन्न होने का दिन चतुर्दशी है. दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है. जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है.
वर्ष भर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं. कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठानपूर्वक उपवास करते नजर आते हैं.
पर्यूषण पर्व का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा में अवस्थित होना. परि उपसर्ग व वस् धातु में अन् प्रत्यय लगने से पर्यूषण शब्द बनता है. पर्यूषण का एक अर्थ है-कर्मों का नाश करना. कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी.
यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है. यह कषाय शमन का पर्व है. यह पर्व 8 दिन तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो उसको शांत करने का उपक्रम इस दौरान किया जाता है. धर्म के 10 द्वार बताए गए हैं उसमें पहला द्वार है-क्षमा. क्षमा यानी समता. क्षमा जीवन के लिए बहुत जरूरी है जब तक जीवन में क्षमा नहीं तब तक व्यक्ति अध्यात्म के पथ पर नहीं बढ़ सकता.
इस पर्व में सभी अपने को अधिक से अधिक शुद्ध एवं पवित्र करने का प्रयास करते हैं. प्रेम, क्षमा और सच्ची मैत्री के व्यवहार का संकल्प लिया जाता है. खानपान की शुद्धि एवं आचार-व्यवहार की शालीनता को जीवनशैली का अभिन्न अंग बनाए रखने के लिए मन को मजबूत किया जाता है. मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवनशैली का समर्थन आदि तत्व पर्यूषण महापर्व के मुख्य आधार हैं. ये तत्व जन-जन के जीवन का अंग बन सकें, इस दृष्टि से पर्यूषण महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है.
पर्यूषण महापर्व का अंतिम चरण- क्षमावाणी या क्षमायाचना है, जो मैत्री दिवस के रूप में आयोजित होता है. इस तरह से पर्यूषण महापर्व एवं क्षमापना दिवस-यह एक इंसान को दूसरे के निकट लाने का पर्व है.