पाकिस्तानी सेना को आशंका, चीन की गोद में बैठने के चलते कहीं पाक का अंजाम श्रीलंका जैसा न हो जाए

इससे वह इशारों में ही सही, लेकिन भारतीय सेना की तुलना पाकिस्तानी फौज से कर गए

Update: 2022-04-02 14:29 GMT
दिव्य कुमार सोती। अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने आइएसआइ के पूर्व मुखिया हामिद गुल की अंगुली पकड़कर अपनी राजनीतिक यात्रा आरंभ की थी। इमरान को राजनीति में लाने वाले गुल वही शख्स थे, जिन्होंने तालिबान को भी खड़ा किया था। आज जो पाकिस्तानी सेना इमरान की राजनीतिक बलि लेना चाहती है, उसी ने साढ़े तीन साल पहले छल-बल से उनकी सरकार बनवाई थी। इसी कारण समय-समय पर इमरान सेना के साथ अपने बेहतरीन रिश्तों का दम भरते रहे, पर एकाएक सब बदल गया और अब स्थिति यह है कि इमरान के हाथ से सत्ता की लगाम छूटने वाली है।
कुछ दिन पहले ही इमरान खान ने भारतीय विदेश नीति की तारीफ के पुल बांधे और भारतीय सेना को भ्रष्टाचार मुक्त बताया था। इससे वह इशारों में ही सही, लेकिन भारतीय सेना की तुलना पाकिस्तानी फौज से कर गए और एक तरह से अपनी फौज को भ्रष्टाचार में डूबा बता गए। इमरान खान ने यह सब तब बोला जब उनकी सरकार अपने सांसदों की घटती संख्या के चलते गंभीर संकट में घिरी हुई थी। इमरान अपनी फौज को नीचा दिखाने के लिए यह सब इसलिए बोल रहे थे, क्योंकि उन्हें समझ आ गया था कि वह अब उन्हें सत्ता से चलता करना चाहती है।
जाहिर है कि भारतीय सेना से अपनी ऐसी तुलना पाकिस्तानी सेना को नागवार गुजरी। इसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदला। नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार के मामलों में क्लीन चिट मिल गई। इमरान खान की सरकार का एक और घटक एमक्यूएम पाला बदलकर विपक्ष के साथ हो लिया। यह सब दिखाता है कि पाकिस्तानी तंत्र पर सेना की कितनी मजबूत पकड़ है। शायद अब पाकिस्तानी सेना ने नवाज शरीफ परिवार को कुर्सी पर बैठाने की ठानी है। यह वही नवाज शरीफहैं, जिनका अतीत में फौज से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। नवाज शरीफ के छोटे भाई शाहबाज शरीफ अब जनरल बाजवा की तारीफ में यह कह रहे हैं कि जनरल साहब ने उनसे कहा है कि नवाज शरीफ की सरकारों में पाक फौज को बहुत सम्मान और संसाधन मिलते रहे।
इमरान खान के सेना से खराब हुए रिश्तों की कहानी पाकिस्तानी फौज की आंतरिक राजनीति और उसके विकसित होते वैश्विक नजरिये के बारे में कई महत्वपूर्ण संकेत देती है। सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से इमरान के रिश्ते तब खराब हुए, जब पिछले साल उन्होंने अपने चहेते आइएसआइ प्रमुख फैज हमीद को हटाकर बाजवा की पसंद नदीम अंजुम को नया आइएसआइ मुखिया बनाने में आनाकानी की। कहते हैं कि बाजवा को हमीद का काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद वहां जाना और सार्वजनिक तौर पर दिखना पसंद नहीं आया। विपक्षी दल हमीद को इमरान का आदमी बताते आए थे। उन पर इमरान की सरकार बनवाने से लेकर विपक्षी नेताओं को धमकाने के आरोप थे। ऐसे में जब तालिबान का कब्जा होते ही हमीद काबुल में प्रकट हुए और सिराजुद्दीन हक्कानी को गृहमंत्री बनवा दिया तो पाकिस्तान में यह संदेश गया कि मुल्क की अफगानिस्तान नीति इमरान चला रहे हैं और तालिबान को जो सफलता मिली, वह बाजवा के नेतृत्व में नहीं, बल्कि इमरान और हमीद ने दिलवाई।
बाजवा को आइएसआइ के मुखिया की तालिबान से सार्वजनिक निकटता इसलिए भी रास नहीं आई, क्योंकि इससे अमेरिका चिढ़ सकता था। ऐसा हुआ भी। बाजवा चाहते हैं कि अमेरिका से 20 साल के छद्म युद्ध के बाद मिली सामरिक गहराई को समग्रता में सहेजा जाए। इसीलिए पाकिस्तानी फौज कश्मीर को लेकर भी काफी हद तक शांत है। वह पाकिस्तान के पूरी तरह चीन के पाले में जाने को लेकर भी सशंकित और असहज है। इसका कारण चीन का हर कर्ज का पूरा हिसाब-किताब मांगना, ग्वादर और सीपैक जैसी परियोजनाओं में पाकिस्तानी हितों को दरकिनार कर चीनी हितों को सर्वोपरि रखना, घटिया सैन्य साजोसामान भेजना और चीन में मुसलमानों पर बढ़ते अत्याचार हैं।
वहीं खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के बीच सेना को लग रहा है कि पूरी तरह चीन की गोद में बैठने के चलते कहीं पाकिस्तान का अंजाम भी श्रीलंका जैसा न हो जाए। पाकिस्तान जितना चीन की ओर झुका जा रहा है, उतना ही चीन को लेकर सामरिक संतुलन बनाने के लिए अमेरिका भारत पर निर्भर होता जा रहा है, जो पाकिस्तानी सेना के लिए चिंताजनक है। यही कारण है कि जब चीनी सेना पूर्वी लद्दाख में भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रही थी, तब पाकिस्तानी सेना ने भारत के साथ संघर्षविराम किया, ताकि अमेरिका को यह संदेश दिया जा सके कि पाकिस्तान चीन के साथ सैन्य जुगलबंदी कर भारत के लिए दो मोर्चों पर युद्ध का खतरा उत्पन्न कर हिंद प्रशांत क्षेत्र का सामरिक संतुलन बिगाड़ने की हद तक नहीं जाना चाहता।
बाजवा यह भी चाहते थे कि इमरान खान अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन द्वारा आयोजित डेमोक्रेसी समिट में जाएं, मगर चीन को खुश रखने के लिए इमरान ने ऐसा नहीं किया। जबकि तमाम देशों द्वारा बहिष्कृत बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक में चले गए। जब बाजवा यूक्रेन का दौरा कर जेलेंस्की सरकार से टी-84 टैंकों के सौदे पर आगे बढ़कर चीनी वीटी-4 टैंकों को नकारने की योजना बना रहे थे, तब इमरान मास्को पहुंच गए और वह भी यूक्रेन पर रूसी हमले के कुछ घंटों पहले। पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र में रूस को लेकर मतदान से भी अनुपस्थित रहा। ध्यान रहे कि रूस पाकिस्तान को टी- 90 टैंक देने से मना कर चुका था। वहीं अमेरिकी कठपुतली जेलेंस्की अगर टी-84 टैंक देने को तैयार थे तो यह अमेरिका की मौन सहमति के बिना संभव नहीं था।
अगर इमरान सत्ता से बाहर हुए, जिसके प्रबल आसार दिख रहे हैं, तो नई सरकार सेना की मंशा के अनुरूप अमेरिका और चीन से रिश्तों में संतुलन बनाती दिखेगी। वह यूक्रेन को लेकर भारत के रवैये पर अमेरिकी असंतोष को भुनाने का भी प्रयास कर सकती है। जो भी हो, भारत को इस घटनाक्रम पर गहनता से नजर रखनी होगी।
(लेखक काउंसिल फार स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)
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