एन. रघुरामन का कॉलम:
इस बुधवार रात इंदौर-भोपाल हाईवे पर मैंने कम से आधा दर्जन खेत देखें जहां तेज लपटें और काले धुएं का गुबार टिमटिमाते आकाश की ओर उड़ रहा था क्योंकि खेतों में किसान फसल काटने के बाद अगली फसल की तैयारी के लिए पराली जला रहे थे। जब-जब मैं इस धुएं से गुजरा, जलने की तेज गंध से मेरी सांसों पर असर आया। मुझे कार का शीशा चढ़ाकर एसी चालू करना पड़ा।
इसने मुझे शाम की ठंडी हवा का आनंद लेने से रोक दिया और मैं अखबार पढ़ने लगा। एक खबर ने मुझे चौंका दिया। महाराष्ट्र का अकोला 44.2 डिग्री सेल्सियस तापमान के साथ मंगलवार को दुनिया की सबसे 15 गर्म जगहों में टॉप पर रहा। इस हफ्ते दर्ज 15 सबसे गर्म जगहों में चार भारत से थीं, शेष पाकिस्तान, लीबिया, नाइजर, चाड से थीं। अकोला के बाद महाराष्ट्र से ही जलगांव और बाकी दो शहर मप्र के खरगोन-खंडवा थे।
हालांकि अनुमान था कि शनिवार तक लू के थपेड़े चलेंगे, लेकिन पर्यावरणीय वैज्ञानिकों की प्रतिष्ठित वैश्विक संस्था, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी दी है कि अगर नीतियों पर तत्काल प्रभाव से सख्ती नहीं की गई तो तापमान कई डिग्री बढ़ जाएगा और फिर इससे विध्वंसकारी परिणाम सामने आएंगे।
सोमवार को जारी रिपोर्ट, आईपीसीसी की जलवायु विज्ञान समीक्षा का तीसरा व आखिरी हिस्सा थी, इसमें हजारों वैज्ञानिकों ने सात साल डाटा जुटाने के बाद जलवायु संकट की ओर बढ़ती दुनिया के सामने संभवतः आखिरी चेतावनी पेश की। रिपोर्ट के प्रकाशन में कुछ घंटों की देरी हुई क्योंकि कुछ सरकारें, नीति निर्माताओं के लिए जारी 63 पृष्ठों की समरी में दिए आखिरी संदेश को लेकर वैज्ञानिकों से कई सत्रों में तकरारें करती रहीं।
इसमें कहा गया कि न केवल सरकारों-व्यवसायों को बड़े पैमाने पर प्रयास करने की जरूरत है, बल्कि सभी क्षेत्रों में उत्सर्जन कम करने के लिए लोगों को भी हाथ मिलाना होगा। वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गिरावट शुरू होने में अब दुनिया के पास तीस महीने का समय है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो फिर हम जलवायु संकट के सबसे बुरे प्रभावों से बचने का मौका चूक जाएंगे। हममें से हरेक को हर जगह उत्सर्जन में तुरंत और भारी कटौती के बारे में सोचना होगा।
यूक्रेन में जारी युद्ध के कारण जैसे-जैसे महंगाई बढ़ रही है, अनाज और ऊर्जा की कीमतें बढ़ेंगी और कई देशो जीवाश्म ईंधन की ओर रुख कर रहे हैं, यही जलवायु त्रासदी का सबसे बड़ा दोषी है। आईपीसीसी को डर है कि जीवाश्म ईंधन के उत्पादन में बढ़ोतरी से हालात बिगड़ेंगे। पौधरोपण जरूरी है, पर जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जन की भरपाई के लिए काफी नहीं, तो हम क्या करें?
आईपीसीसी का कहना है कि उपाय अभी भी हाथ में हैं। सुझाव है कि कोयले को जल्द चलन से बाहर करें। मीथेन उत्सर्जन एक तिहाई कम करें। जंगल उगाना व मिट्टी संरक्षण जरूरी है- हाल ही में सद्गुरु द्वारा प्रमोट प्रमुख मिशनों में से एक को याद करें। जीवाश्म ईंधन वाली नई इकाई की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
व्यवसायों को नई प्रौद्योगिकियों जैसे हाइड्रोजन ईंधन, कार्बन कैप्चर अपनाना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि सही नीतियां जीवनशैली व व्यवहार में बदलाव ला सकती हैं जिसके परिणामस्वरूप 2050 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 40-70% की कमी हो सकती है।
फंडा यह है कि सरकार नीतियों पर काम करती है, ऐसे में आइए हम हमारे हिस्से का थोड़ा-थोड़ा योगदान दें, शायद मिट्टी का संरक्षण या पौधरोपण या ऊर्जा बचाने के लिए जीवनशैली में बदलाव, क्योंकि अपनी धरती को बचाने के लिए यह 'अभी नहीं तो कभी नहीं' है। याद रखें हमें बच्चों के लिए एक स्वच्छ ग्रह छोड़ने की जरूरत है।