यही वजह रही कि जब धर्म के आधार पर 1947 में पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो भारत के लोगों ने धर्मनिरपेक्षता को अपना ईमान बनाया और ऐलान किया कि हिन्दोस्तान के हर नागरिक को मूल मानवीय अधिकार प्राप्त होंगे। संविधान में अपनाये गये इस मूल सिद्धान्त की चमक हमें हर संकट के समय दिखाई पड़ जाती है और इस प्रकार दिखाई पड़ती है कि जहां सारी प्रशासनिक और सरकारी व्यवस्थाएं चरमराने लगती हैं और ढह जाती हैं तो 'मानवीय' व्यवस्था उठ कर खड़ी हो जाती है और पूरे ढांचे को सहारा देने लगती है। कोरोना के संकट के इस वीभत्स दौर में जहां श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों के आगे लाशों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी हुई हैं और लोग अपने परिजनों का ही अंतिम संस्कार करने से भय खा रहे हैं अथवा बहाने बना कर दूरी रख रहे हैं, वहां एेसे भी लोग हैं जो इस दुख की घड़ी में आगे आकर मानवता का झंडा ऊंचा रखे हुए हैं। इनमें हिन्दू, मुसलमान, सिख सभी शामिल हैं। इनका धर्म ऐसे समय में केवल मानवता है और ये इंसानियत के पैरोकार बन कर पूरे भारत में भरोसा पैदा कर रहे हैं। यह कुछ और नहीं बल्कि भारत की मिट्टी में घुली हुई इसांनियत की वह खुशबू है जो धर्म के उन ठेकेदारों को ललकार रही है जिनका काम लोगों में मजहब को दीवार बना कर बांटता रहा है।
नागपुर के 'प्यारे खां' ने सिद्ध कर दिया है कि यह भारत केवल उसी गांधी का भारत रहेगा जिसने पूरी दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ा कर इंसानियत को पहला धर्म बताया। आज जबकि पूरे भारत में आक्सीजन के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है और सरकारी सुविधाएं दम तोड़ रही हैं और सरकारें एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगी हुई हैं तो ऐसे समय में प्यारे खां ने अपने चार सौ करोड़ रुपए के ट्रांसपोर्ट व्यापार के सभी स्रोतों को नागपुर में जरूरतमन्दों के लिए आक्सीजन सप्लाई करने में लगा दिया है। पूरे देश में इनका परिवहन तन्त्र फैला हुआ है और 300 ट्रकों की कम्पनी के मालिक हैं। ये सभी ट्रक जहां से भी आक्सीजन उपलब्ध होती है नागपुर लाते हैं और यहां के अस्पतालों व जरूरतमन्दों में इसे सप्लाई करते हैं। प्यारे खां एक जमाने में नागपुर स्टेशन के बाहर सन्तरे बेचा करते थे और बाद में उन्होंने थ्री व्हीलर भी चलाया और इसी क्रम में अपना ट्रांसपोर्ट कारोबार स्थापित किया। उनकी तरक्की का यह अध्याय अहमदाबाद के भारतीय प्रबन्धन संस्थान में पढ़ाया भी जाता है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के ही अहमदमहल कस्बे में चार एेसे मुस्लिम युवा हैं जो अब तक लगभग एक हजार से अधिक हिन्दू शवों का उनकी रीति के अनुसार दाह संस्कार कर चुके हैं। इन्होंने ऐसे लोगों का दाह संस्कार किया जिनके शवों को लोग श्मशान के बाहर छोड़ कर चले जाते हैं अथवा जिन्हें घर से श्मशान घाट तक लाने वाला कोई नहीं मिलता।
इसी प्रकार दिल्ली व उसके आसपास के गाजियाबाद इलाके में सिखों के गुरुद्वारों में आक्सीजन लंगर चल रहे हैं। सीमापुरी में तो सिख भाई श्मशान घाटों तक पर अन्तिम संस्कार कर रहे हैं। यह सब भारत के लोकतन्त्र की ही करामात है। इस लोकतन्त्र ने जिस तरह बिना किसी भेदभाव के सभी को समान अधिकार दिये वहीं यह भी सुनिश्चित किया कि इस व्यवस्था में लोगों के स्वास्थ्य से लेकर भोजन व अन्य दैनिक जरूरतों की भरपाई करना हर सरकार का मूल दायित्व होगा। महात्मा गांधी ने इसी सन्दर्भ में अपने अखबार 'हरिजन' में स्वतन्त्रता से पूर्व लेख लिख कर आगाह किया था कि प्रजातन्त्र में जो भी सरकार अपने लोगों की इन मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती है वह सरकार नहीं बल्कि अराजकतावादियों का एक समूह होती है परन्तु महात्मा गांधी के ही आग्रह पर संविधान की सम्पूर्ण संरचना मानवतावादी सिद्धान्तों को केन्द्र में रख कर बाबा साहेब अम्बेडकर ने की। इसका मन्तव्य हम आज यह जरूर निकाल सकते हैं कि ऐसा इसलिए किया गया कि जब ऐसी परिस्थिति बने कि समूची व्यवस्था गड़बड़ाने लगे तो लोग स्वयं आगे बढ़ कर पूरी व्यवस्था को संभाल लें।
भारत की यह विशेषता भी रही है कि जब इसकी व्यवस्था के चारों खम्भे कांपने लगते हैं तो लोग स्वयं उठ कर पूरे तन्त्र को कन्धा दे देते हैं जिससे हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली लगातार दमदार रहे। सवाल मरने वालों के सरकारी या गैर सरकारी आंकड़ों का नहीं है बल्कि मानवता को मरने न देने का है। सवाल उन जान बचाने वालों का है जो अपनी जान पर खेल कर इंसानियत का परचम बुलन्द किये हुए हैं। पूरे भारत में न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो संकट की इस घड़ी में भारतीयता के उस जज्बे को जिन्दा रखे हुए हैं जिसके लिए भारत पहचाना जाता रहा है। यह तो वह मुल्क है जिसकी धरती को सूंघ कर 13वीं शताब्दी में 'अमीर खुसरो' को भी कहना पड़ा था-
'छाप-तिलक सब छीनी रे मौ से नैना मिलाय के'