हमारे उत्साह से डरा मुर्गा

इसे इससे फर्क नहीं पड़ता कि आम इनसान उसके लिए कितना खतरनाक है, लेकिन

Update: 2022-01-03 05:20 GMT
यह मुर्गा मेरा उत्साह देखकर मरा जा रहा है। इससे पहले भी जब कभी मैं उत्साह में आता रहा हूं, मुर्गा घबरा जाता है। इसे इससे फर्क नहीं पड़ता कि आम इनसान उसके लिए कितना खतरनाक है, लेकिन यह खामख्वाह के उत्साह से डरता है। अब साल के आखिर में क्रिसमस से नए साल के आगाज में लोगों का उत्साह इसकी चिंता बढ़ा गया है। इसे मालूम है कि इनसान का उत्साह हमेशा कातिल बन जाता है। यह सही है कि मुर्गों की तरह हम भी किसी न किसी उत्साह में मारे जाते हैं या कम से कम उत्साह से निकली कातिल फिजाओं का शिकार हो जाते हैं। ईश्वर न करे कि आपका कोई पड़ोसी सफाई के प्रति अति उत्साही हो जाए। उसके घर की सफाई का उत्साह पूरे परिवेश में फैल सकता है। नगर निकायों ने जब से सफाई का उत्साह पाल रखा है, डंपिंग साइट्स बढ़ गई हैं। विकास के प्रति नागरिक उत्साह को ही लें, तो यह बात समझ आ जाएगी कि हर खड्ड क्यों कांप रही है। रेत का खनन दरअसल विकास का उत्साह है और मुफ्त में माफिया बदनाम हो रहा है। अपने आसपास ही देखिए कि अगर पड़ोसी अपने विकास के प्रति अति उत्साही हो गए, तो आप मुर्गे की तरह डर जाओगे।
पड़ोसी का विकास आपके जीवन के रोशनदान बंद कर सकता है या आपकी खिड़की, उसकी खिड़की से भिड़ जाएगी तो पता चलेगा कि गली में विकास का आगमन हो गया है। आश्चर्य यह कि हम भारतीयों को उत्साही होने की कला आ गई है। जन्म लेने की स्थिति चाहे जो भी हो, लेकिन आजादी के बाद के उत्साह ने हमें चीन के बराबर आबादी तक पहुंचा दिया। अति उत्साह में इतना पढ़ गए कि हमारी शिक्षा मुर्गा बन गई है। प्रधानमंत्री देश को पढ़ाने का उत्साह भर रहे हैं और इधर शिक्षा डर रही है कि कहीं अति शिक्षित देश में उसकी रही-सही लाज भी कहीं चली न जाए। एक मुर्गा ही है, जो न तो उत्साह में पैदा होता है और न ही औरों के उत्साह में जीवित रहता है। इसलिए जब कभी मैं देश को उत्साह से देखता हूं या उत्साह में आगे बढ़ता हूं, तो मेरा मुर्गा विलाप करता है।
यह मेरे मुर्गे का ही हाल नहीं, हर घर के मुर्गे देश के उत्साह से आतंकित हैं। इसीलिए मुर्गा भले ही सुबह बांग देता रहे, लेकिन कभी भी रात में जुबान नहीं खोलता। इनसानों के भीतर भी जो मुर्गे बन गए, हर सुबह को नींद से उठाते हैं, लेकिन रात की खामोशी में चुप रहते हैं। देश भी मुर्गों के लिए दिन को रात और रात को दिन बनाने मंे जुटा है। मुर्गे को किसी विशेष धर्म से डर नहीं, लेकिन धर्म की सुबह से धर्म की रात तक डर ही डर है। वह धार्मिक स्थलों पर भी मुर्गा है और अधर्म के रास्ते पर भी मुर्गा ही रहेगा, लेकिन डर यह है कि देश में धर्म का उत्साह फैल रहा है। मुर्गा पूरा जन्म निभाता हुआ उत्साहित नहीं होता, लेकिन अपने आसपास के उत्साह को महसूस करता है। आश्चर्य यह कि कोविड काल में भी मुर्गे को इनसान का उत्साह डराता रहा है और अब ओमिक्रॉन के बावजूद मुर्गे को इनसान नहीं, उनका उत्साह देख रहा है। साल के अंत तक इनसान को सिर्फ अपने उत्साह की चिंता है। मैं भी अपने आसपास के उत्साह में भूल जाता हूं कि मेरे व्यवहार से मुर्गा डर जाएगा। अब क्रिसमस से नए साल के आगमन में मैं उत्साहित हूं, तो मुर्गा डर रहा है। कभी सोचता हूं कि देश के लिए उत्साहित रहूं या मुर्गे के लिए शांत रहूं, लेकिन देश को प्रगति चाहिए तो मुर्गे जरूर हलाल होंगे। मैं भी देश और अपनी सरकारों की बेहतरी के लिए उत्साहित होने की ऊर्जा में इतना मशगूल हो गया कि सामने अपने ही मुर्गे का एक-एक पंख कटता गया। सारी जिंदगी मेरी तरक्की से कितने मुर्गे डरे या मरे, इसका हिसाब लगाते एक और साल बीत गया।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
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