किसानों और तीन नए कृषि कानूनों को लेकर संसद में बेनकाब होता विपक्ष, काले कानूनों में काला क्या है?

यह अच्छा हुआ कि राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान किसानों और नए कृषि कानूनों के विषय में व्यापक बहस हुई।

Update: 2021-02-06 02:08 GMT

यह अच्छा हुआ कि राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान किसानों और नए कृषि कानूनों के विषय में व्यापक बहस हुई। इस बहस में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के संबोधन के समय यदि विपक्ष बगलें झांकने वाली स्थिति में दिखा तो इसी कारण कि वह कृषि कानूनों को लेकर दुष्प्रचार करने में लगा हुआ है और यह बताने की स्थिति में नहीं कि इन कथित काले कानूनों में काला क्या है? विपक्षी दल अनुबंध खेती के प्राविधान का विरोध तो कर रहे हैं, लेकिन उनके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं कि आखिर पंजाब समेत करीब दो दर्जन राज्यों ने अनुबंध खेती संबंधी कानून क्यों बनाए हुए हैं? क्या यह विचित्र नहीं कि किसान आंदोलन में सबसे ज्यादा भागीदारी पंजाब के किसान संगठनों की ही है। साफ है कि किसानों का आंदोलन राजनीति प्रेरित और ऐसी अफवाहों पर आधारित है कि यदि कृषि कानून लागू हुए तो एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म हो जाएगी और किसानों की जमीनें छीन ली जाएंगी। विपक्ष को इससे अवगत होना चाहिए कि इस दुष्प्रचार का सहारा केवल किसान संगठन ही नहीं ले रहे, बल्कि वे देश विरोधी ताकतें भी ले रही हैं, जो भारत को बदनाम करने का अभियान चला रही हैं।

आखिर कृषि कानूनों के खिलाफ किए जा रहे दुष्प्रचार में हिस्सेदारी करके विपक्ष किसके हितों की पूर्ति कर रहा है? यह कहां की समझदारी है कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने के फेर में देश विरोधी तत्वों के हस्तक्षेप की अनदेखी कर दी जाए? सवाल यह भी है कि जो विपक्षी दल राज्यसभा में किसानों के मसले पर चर्चा के लिए राजी हो गए, वही लोकसभा में हंगामा क्यों करने में लगे हुए हैं? कृषि कानूनों और किसानों को लेकर लोकसभा में विपक्षी दलों का हंगामा जारी रहना तो यही बताता है कि वे बहस से भाग रहे हैं। जिस तरह विपक्षी दल यह बताने की स्थिति में नहीं कि कृषि कानूनों में खामी क्या है, उसी तरह किसान संगठन भी यह स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि इन कानूनों में क्या खराबी है? वे केवल यही रट लगाए हैं कि तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। यह हठधर्मिता के अलावा और कुछ नहीं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि सरकार तीनों कृषि कानूनों के आपत्तियों वाले प्राविधान न केवल संशोधन को तैयार है, बल्कि डेढ़ साल के लिए इन कानूनों के अमल को भी रोकने को राजी है। किसान नेताओं को यह भी मंजूर नहीं। वे कृषि कानूनों की समीक्षा के प्रस्ताव को भी स्वीकार करने से इन्कार कर रहे हैं, जबकि इससे उनके ही हित सधेंगे।


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