अब मुकाबला कड़ा हो गया; दलबदल के बावजूद यूपी की दौड़ में भाजपा ही आगे
अब मुकाबला कड़ा हो गया
संजय कुमार का कॉलम:
योगी आदित्यनाथ के कैबिनेट मंत्रियों और यूपी के अन्य भाजपा-सपा नेताओं के दलबदल को लेकर दो परस्पर विरोधी बातें कही जा रही हैं। पहली यह कि भारत में चुनावों से पहले दलबदल एक रूटीन है और इन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। जो भाजपा छोड़कर गए हैं, वे वैसे भी आदतन दलबदलू हैं और पार्टियां बदलते रहते हैं। इससे हवा के रुख का अनुमान लगाना ठीक नहीं। अगर ऐसा ही होता तो पश्चिम बंगाल में भाजपा चुनाव जीत गई होती, क्योंकि वहां तृणमूल से अनेक नेता टूटकर भाजपा में चले आए थे।
इसके सामने दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि भले ही भारतीय राजनीति में दलबदल होते रहते हों, लेकिन ऐसा नहीं कि इनका कोई महत्व नहीं है। बीते सात वर्षों में विभिन्न पार्टियों- विशेषकर कांग्रेस- से कोई 200 नेता टूटकर भाजपा में आए हैं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि भाजपा के महत्वपूर्ण नेता पार्टी छोड़कर सपा में गए हैं। दलबदल से चुनावी जीत की गारंटी नहीं दी जा सकती। ऐसा होता तो पार्टियों के लिए चुनाव जीतना ज्यादा आसान होता, क्योंकि तब वे इसी पर ध्यान केंद्रित करतीं।
लेकिन बड़े पैमाने पर होने वाले दलबदल से यह धारणा नहीं बनाई जा सकती कि हवा किस दिशा में बह रही है। सवाल यह है कि क्या सपा और उसके गठबंधन सहयोगी अपने बुनियादी समर्थक वर्ग और स्विंग-वोट्स के आधार पर चुनाव जीतने में समर्थ होंगे या क्या सपा का भी वही हाल होगा, जो पश्चिम बंगाल में भाजपा का हुआ था? यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल में हार के बावजूद भाजपा एक ताकतवर विपक्षी दल के रूप में उभरी थी और उसका वोट-शेयर पिछले चुनावों के 10.16% से बढ़कर 37.97% हो गया था।
स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान के बारे में भाजपा चाहे जो कहे, लेकिन इससे नेताओं की छवि को ज्यादा नुकसान नहीं होता। लोकप्रिय नेता जब दल बदलते हैं तो अपने साथ समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा ले जाते हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतने वाले अनेक विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में चले गए थे और इसके बावजूद उनमें से अनेक चुनाव जीतने में सफल रहे थे। सिंधिया की लोकप्रियता के दम पर अनेक दलबदलुओं ने चुनावी वैतरणी पार कर ली।
2017 में भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य भी अलग-अलग पार्टियों के टिकट पर चार विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। यूपी में दलबदल के कारण भाजपा को ओबीसी वोटों का नुकसान जरूर होगा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इससे सपा के पक्ष में एक सकारात्मक माहौल भी बना है। चुनाव लोकप्रिय धारणा पर लड़े जाते हैं। इससे सपा को फ्लोटिंग-वोटर्स को अपने पक्ष में लामबंद करने में मदद मिल सकती है।
वहीं निचली ओबीसी जातियों- जिन्होंने पिछले चुनावों में भाजपा को भरपूर समर्थन दिया था- के समर्थन में सेंध लग सकती है। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे डाटा बताता है कि 2017 के विधानसभा चुनावों में 61 प्रतिशत गैरयादव-ओबीसी जातियों ने भाजपा को वोट दिया था, जो 2019 के आम चुनाव में बढ़कर 74 प्रतिशत हो गया, जबकि 2012 में यह केवल 18 प्रतिशत था।
इसके बावजूद भाजपा को कम आंकना ठीक नहीं होगा, क्योंकि अपर्णा यादव और आरपीएन सिंह के आने से कुछ हद तक भाजपा छोड़कर गए नेताओं की भरपाई हुई है। भाजपा ने बहुत सारे गैरयादव-ओबीसी और दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। दलबदल के कारण मुकाबला कड़ा जरूर हुआ है और सपा-रालोद गठजोड़ तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन भाजपा अब भी यूपी में चुनाव जीतने के लिए दूसरों की तुलना में ज्यादा सक्षम नजर आ रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)