अब यह किसान आन्दोलन क्या सिर्फ राकेश टिकैत और चडूनी के राजनीतिक स्वार्थों के लिए जारी है?

तथाकथित किसान नेताओं की पोल खुलती जा रही है

Update: 2021-11-28 07:33 GMT

अजय झा जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, तथाकथित किसान नेताओं की पोल खुलती जा रही है. एक हफ्ते से भी ज्यादा समय गुजर चुका है जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी. खबर है कि कल से शुरू होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही सरकार अपने वायदे के अनुसार इन तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए बिल पेश करेगी. चूकि सभी विपक्षी दल राजनीतिक कारणों से कृषि कानूनों के वापसी की वकालत कर रहे थे, इसलिए उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इस बिल पर कोई विरोध नहीं होगा और इसी सप्ताह तीनों कृषि कानून इतिहास के पन्नों में समा जाएंगे. पर क्या इसके बाद किसानों का आन्दोलन समाप्त हो जाएगा? शायद नहीं, क्योंकि इसके जारी रहने से ही इस आन्दोलन में शामिल नेताओं के हितो का फायदा है, आम किसानों का फायदा भले हो या ना हो.

ज़रा पीछे चलते हैं. पिछले वर्ष सितम्बर के आखिरी सप्ताह में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हस्ताक्षर होने के बाद संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद संसद द्वारा पारित कृषि बिल कृषि कानून बना था. उस समय किसानों के ये बड़े-बड़े नेता कहां थे, किसी को पता ही नहीं. कृषि कानूनों का विरोध पंजाब में शुरू हुआ जो स्थानीय स्तर का विरोध था. रेल की पटरी पर बैठ कर विरोध शुरू हुआ जो ज्यादा दिन चलता भी नहीं अगर पंजाब के तात्कालिक मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी गिरती साख और बढ़ती अलोकप्रियता के कारण आग में घी डालने का काम नहीं किया होता.
किसान आंदोलन को कांग्रेस का पूरा समर्थन था
अमरिंदर सिंह के उकसाने पर ही पूरे पंजाब से किसान इस विरोध में जुड़ने लगे. अमरिंदर सिंह ने ही उन्हें दिल्ली जा कर विरोध करने की सलाह दी. उन्हें हरियाणा में पहले रोकने का प्रयत्न किया गया और बाद में उन्हें हरियाणा-दिल्ली की सीमा पर रोक दिया गया. जब दिल्ली की सीमा पर पंजाब के किसान, जिनमें से अधिकतर सिख थे, बैठे थे तो फिर लंगर भी लगना ही था, गुरुबाणी भी होनी ही थे और टेंट भी लगना ही था. उस समय तक राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चडूनी का कहीं नामों निशान नहीं था.
विरोध अमरिंदर सिंह के इशारों पर भले ही शुरू हुआ हो, कांग्रेस पार्टी के कुछ बड़े नेता जिनका संबंध हरियाणा से है, उन्हें लगा कि मुद्दा काफी सही है जिसपर मोदी सरकार को घेरा जा सकता है और साथ में ही राहुल गांधी के दरबार में उनके अंक बढ़ जाएंगे. उन कांग्रेसी नेताओं ने इस विरोध को तन, मन और धन से समर्थन देना शुरू किया, हरियाणा के किसानों से भी आवाहन किया गया कि वह भी इससे जुड़ जाएं, और ऐसा ही कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हुआ. विरोध आन्दोलन में तब्दील होता गया और अमरिदर सिंह मज़े में आग लगा कर दूर से हाथ सेंकने का काम कर रहे थे, आग में लकड़ी और घी डालने का काम अब कांग्रेस पार्टी के संरक्षण में हो रहा था. इस बात का पूरा इंतजाम था कि खाने-पीने, सुख-सुविधाओं और पैसे की कमी के कारण यह आन्दोलन ख़त्म ना हो जाए. समर्थन के नाम पर किसानों को उकसाने और बरगलाने की राजनीति शुरू हो गयी जो आज भी बदस्तूर जारी है.
आंदोलन खत्म होने के बाद बेरोजगार हो जाएंगे टिकैत और चडूनी
जिन किसानों को यह भी नहीं पता था कि ये कानून हैं क्या, वह भी इसमें त्रुटी निकालने लगे. राहुल गांधी, प्रियंका गांधी से ले कर सड़क पर बैठा एक आम किसान, सभी एक ही भाषा बोलने लगे जैसे कि किसी मास्टरजी ने इम्तिहान के पहले बच्चों को घोंटा लगवा दिया हो कि इस सवाल का जवाब यह होगा और उस सवाल का जवाब वह. गावों और छोटे कस्बों में अक्सर देखा जाता है कि कहीं भी थोड़ी हलचल दिखी कि लोग मजमा देखने को खड़े हो जाते हैं. गावों से बेरोजगार युवक दिल्ली की सीमा पर मजमा देखने आने लगे, यहां पूरे सुख-सुविधा का मुफ्त में इंतजाम होने के कारण वह वापस नहीं जाना चाहते थे. पर अब जबकि इन तीनों कानूनों को निरस्त करने की वैधानिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है, आन्दोलन चलते रहने का अब औचित्य क्या है? औचित्य है. जैसे मुफ्त के सुख-सुविधा के कारण बेरोजगार युवक घर वापस नहीं जाना चाहते, ठीक उसी तरह बेरोजगार नेता भी घर वापस नहीं जाना चाहते, ताकि फिर से उनकी जमी जमाई दूकान ना बंद हो जाए.
इस श्रेणी में टिकैत और चडूनी का नाम सबसे आगे है. दोनों की राजनीति में दिलचस्पी है. ये पूर्व में चुनाव भी लड़ चुके हैं और उनकी जमानत तक नहीं बची थी. चडूनी अब पंजाब चुनाव में किसानों के प्रतिनिधियों को उतारने की बात करते दिख रहे हैं और केंद्र में किसानों की सरकार बनाने का सपना भी देख रहे हैं. जिन्हें चडूनी के बारे में ज्यादा नहीं पता है तो उन्हें बता दें कि किसान नेता बनने से पहले वह ट्रेड यूनियन नेता होते थे. उनके बारे में विख्यात है कि वह किसी कारखाने में, खास कर चीनी मिल में किसी बात पर हड़ताल करवा देते थे और जब मिल मालिक उनकी जेब गर्म कर देते थे तो हड़ताल सिर्फ आश्वासन पर ही खत्म हो जाता था. और इस बार जबकि आश्वासन नहीं बल्कि सरकार ने किसानों की मुख्य मांग मान ली है, फिर भी वह आन्दोलन जरी रखने पर अमादा हैं. कारण साफ़ है – पंजाब चुनाव. उन्हें भी पता है कि वह पंजाब के किसनों के नेता नहीं हैं और उनके किसी उम्मीदवार के जीतने की सम्भावना नहीं के बराबर है, पर वह पंजाब चुनाव तक आन्दोलन जारी रखना चाहते हैं, ताकि उनका किसी पार्टी से समझौता हो जाए, ठीक उसी तरह जैसे चीनी मिलों के मालिकों के साथ उनका समझौता हो जाता था.
सरकार मानेगी एमएसपी की मांग?
रही बात टिकैत की तो उनपर पैसों के लिए हड़ताल करने का आरोप नहीं है. बहुत बड़े व्यापारी हैं जिनकी संपत्ति कई सौ करोड़ की है. उन्हें सिर्फ लोकसभा का सदस्य बनना है. राजनीति का चस्का इतना है कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी वह बीजेपी के खिलाफ प्रचार करने चले गए थे और अभी हाल ही में हैदराबाद भी गए थे, जहां हैदराबाद के लोगों से उन्होंने आग्रह किया कि वहां के स्थानीय सांसद असदुद्दीन ओवैसी को लोग उत्तर प्रदेश जाने से रोकें ताकि वह वहां बीजेपी को चुनाव में लाभ नहीं दिलवा सकें. टिकैत का हैदराबाद से क्या लेना देना? तेलंगाना या आंध्रप्रदेश के किसान तो आन्दोलन में शामिल भी नहीं थे. किसान तो सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के ही थे और इसकी थोड़ी सुगबुगाहट उत्तराखंड और राजस्थान में भी दिखी थी. तो क्या अन्य राज्यों के किसान, किसान नहीं थे या फिर कृषि कानून उनपर लागू नहीं हो रहा था?
बहुत जल्द ही यह पता चल जाएगा कि टिकैत किसके कहने पर आन्दोलन को जारी रखना चाहते हैं और किसके कहने पर वह हैदराबाद तक पहुंच गए ताकि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट नहीं बंटे. इनका मकसद सिर्फ इतना ही है कि आन्दोलन कम से कम मार्च तक जारी रहे, ताकि पांच राज्यों के चुनाव में यह मुद्दा बना रहे. इन्हें भी पता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग सरकार चाह कर भी नहीं मान सकती है, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो सरकार का सारा पैसा फसल खरीदने में ही चला जाएगा और देश पाकिस्तान की तरह दिवालिया हो जाएगा. समय आ गया है कि जनता, खासकर किसान ही ऐसे नेताओं को बेनकाब करें ताकि उनके हितों की आड़ में टिकैत और चडूनी जैसे नेता अपने निजी हितों को किसी दल के पास गिरवी ना रख पाएं, ताकि भविष्य में कोई भी सरकार किसानों के सही मांग को भी शक की निगाह से ना देखने लगे.
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