पूर्वोत्तर की जंग जो तय करेगी

भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी है

Update: 2022-12-19 06:58 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी है और खामी भी कि हम हमेशा किसी न किसी चुनाव में व्यस्त रहते हैं। गुजरात, हिमाचल और एमसीडी के चुनावों के बाद नए साल की शुरुआत में सतबहनी, यानी पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से तीन की बारी है। इनमें से त्रिपुरा को भारतीय जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत के साथ जीता था, पर मेघालय और नगालैंड में उसकी सरकारें राजनीतिक 'मैनेजमेंट' से उपजी थीं। मेघालय में तो कांग्रेस 21 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, मगर वह सरकार बनाने में नाकामयाब रही।

त्रिपुरा से बात शुरू करते हैं। फरवरी 2018 का विधानसभा चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण था। पश्चिम बंगाल के बाद देश में बस यही एक राज्य था, जिस पर वामपंथियों की लगातार 25 सालों से अबाध हुकूमत थी। गजब के ईमानदार माणिक सरकार यहां मुख्यमंत्री हुआ करते थे, लेकिन जब नतीजे आए, तो उनका सारा किया-दिया धरा का धरा रह गया। भारतीय जनता पार्टी को आवश्यक बहुमत के जादुई आंकड़े 31 से अधिक 35 सीटें हासिल हुईं। वामपंथी 16 सीटों पर अटक गए थे। हालांकि, दक्षिणपंथ और वामपंथ की इस सियासी जंग में हासिल हुए मत प्रतिशत में महज 1.37 फीसदी का मामूली फर्क था। पिछले चुनावों तक मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1.79 फीसदी मतों पर सिमट गई थी। इसके साथ ही त्रिपुरा का नाम उन राज्यों की फेहरिस्त में जुड़ गया था, जहां विधानसभा में कांग्रेस को एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी।
कांग्रेस के लिए अस्तित्व बचाने-बढ़ाने की चुनौती इन चुनावों में भी बरकरार रहेगी। त्रिपुरा के साथ मेघालय और नगालैंड में उसका संगठन कमजोर हुआ है। ये तीन राज्य लोकसभा में कुल पांच सांसदों का योगदान करते हैं। देखने में ये आंकड़े भले विराट न लगें, पर यह सच है कि सतबहिनी के सूबे अरुणाचल, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा कुल 24 लोकसभा सीटों का योगदान करते हैं। इनमें से फिलहाल 14 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का परचम लहरा रहा है। अगर 2024 में विपक्ष भाजपा के साथ बराबरी की लड़ाई लड़ने में कामयाब हो जाता है, तो इनका महत्व और बढ़ जाएगा।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में ही पूर्वोत्तर के राज्यों पर खास जोर देने की नीति अपनाई थी। साथ ही गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई में यहां अलगाववादियों को मुख्यधारा में लाने की सार्थक कोशिश हुई। चुनाव सामने देख भाजपा ने अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। मेघालय में पिछले हफ्ते तृणमूल कांग्रेस के दो और एक निर्दलीय विधायक ने भगवा दल का दामन यूं ही नहीं थाम लिया। क्षेत्रीय दलों से साझेदारी, जनजातीय रिश्तों के समीकरण और 'डबल इंजन' सरकारों का फॉर्मूला लेकर भगवा दल यह चुनाव जीतने के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखेगा। कांग्रेस को यहां इन सबसे एक साथ जूझना होगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि विपक्षी एकता के पुन: पैरोकार बने नीतीश कुमार की भी नजर इन राज्यों पर है। वह जब एनडीए से अलग हुए, तब माना गया था कि गैर-भाजपा दलों को एक करने के लिए वह मैराथन प्रयास करेंगे। वह इस मकसद से दो बार दिल्ली का दौरा कर चुके हैं। इसके साथ ही जेपी जयंती के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए 11 अक्तूबर को नगालैंड के दीमापुर भी जा चुके हैं। अन्य राज्यों के दौरे उन्होंने अभी शुरू नहीं किए, लेकिन राजनीति की पतीली में कुछ न कुछ खदबदा जरूर रहा है। अगस्त में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और पिछले महीने आदित्य ठाकरे की पटना यात्रा बिला मकसद नहीं आयोजित की गई थी। इस वक्त बिहार के यादव परिवार और नीतीश कुमार की जरूरतें एक हैं।
क्या उनकी कोशिशें कोई सार्थक आकार ले पाएंगी?
इस सवाल का जवाब तो 2024 में मिल सकेगा, पर बिहार मॉडल को आगे बढ़ाने के लिए कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। पिछले हफ्ते नीतीश कुमार ने महागठबंधन विधायक दल की बैठक को संबोधित करते हुए कहा, 'मुझे पीएम नहीं बनना है। मेरा अकेला मकसद भाजपा को उखाड़ फेंकना है। बिहार कांग्रेस के विधायक अपने आलाकमान तक मेरी यह बात पहुंचा दें।' उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें अब सीएम भी नहीं रहना, तेजस्वी यादव को सीएम बनाना है। 2025 का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उन्होंने सहयोगी दलों से अपील की, हममें टूट न हो। हम एकजुट रहें। इससे दो दिन पहले जद(यू) के महासचिव के सी त्यागी ने कहा था कि यदि नीतीश जी छह महीने दिल्ली बैठ जाएं, तो भाजपा की सरकार साफ हो जाएगी। इन दोनों बयानों से क्या यह ध्वनि नहीं निकलती कि नीतीश कुमार राज्य की हुकूमत से हाथ खींच, राष्ट्रीय राजनीति में हाथ आजमाने की सोच रहे हैं?
यकीनन वह ऐसा करने जा रहे हैं।
यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा। लोकसभा की शपथ लेने के बाद डिम्पल यादव सोनिया गांधी से मिलीं। बाद में अखिलेश यादव का बयान आया कि 2024 में होने वाले आम चुनाव से पहले मौजूदा सरकार का एक विकल्प बनाने की तैयारी चल रही है। कई राज्यों में प्रमुख विपक्षी दलों के मुखिया इस दिशा में काम कर रहे हैं। सपा अध्यक्ष ने इसमें नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और केसीआर के नाम भी गिनाए। मतलब साफ है, भाजपा का अश्वमेध रोकने के लिए नई किलेबंदी हो रही है। क्या सतबहनी के इन राज्यों से इस जुगलबंदी की शुरुआत होगी?
यहां एक और संभावना पर विचार करना जरूरी है। गुजरात में पांच सीटें और करीब 13 प्रतिशत मत पाकर आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय दल बनने की पात्रता हासिल कर चुकी है। अरविंद केजरीवाल ने जिस तेजी से दिल्ली और पंजाब से कांग्रेस का सफाया किया है, वह अपने आप में समूची दास्तां है। गुजरात में भी उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को कम, पर कांग्रेस को ज्यादा नुकसान पहुंचाया। इसी तरह, दिल्ली नगर निगम चुनावों में कांग्रेस ने आप के मुस्लिम मतदाताओं में सेंधमारी न की होती, तो आप अधिक सीटों पर जीत हासिल कर सकती थी। अभी तक पूर्वोत्तर के राज्यों में आप ने कोई बड़ी दस्तक नहीं दी है, लेकिन केजरीवाल कल को यहां भी संभावना तलाश करते नजर आएं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वे अब तक 'एकला चलो रे' की नीति अपनाते आए हैं। मायावती और असदुद्दीन ओवैसी की समान रीति-नीति है। क्या यह सिर्फ संयोग है कि ये तीनों दल अभी तक जाने-अनजाने गैर-भाजपा मतों में सेंधमारी करते नजर आते हैं?
क्या बदलते हालात के साथ ये लोग भी बदलेंगे?
यही वजह है कि इन तीन राज्यों के चुनावों को भाजपा, कांग्रेस और विपक्षी एकता के स्वप्न के लिए महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। साल 2023 की शुरुआत से शुरू होने वाला रोमांच का यह सिलसिला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। उसके बाद छह अन्य महत्वपूर्ण राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तेलंगाना और मिजोरम में भी चुनाव होंगे। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के जय-पराजय की गूंज इन राज्यों में अवश्य सुनाई देगी।

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