दुनिया की कोई और सरकार इतना पैसा खर्च नहीं करती है, जितना फ्रांस की करती है
ओपिनियन
रुचिर शर्मा का कॉलम:
इमान्युएल मैक्रों का फिर से फ्रांस का राष्ट्रपति चुना जाना भले ही यूरोप के व्यावहारिक-राजनीतिक-केंद्र के लिए एक बड़ी घटना हो, लेकिन फ्रांस के मतदाता आर्थिक सुधारों के मूड में नहीं हैं। अलबत्ता वे देश के हालात को लेकर गुस्से में जरूर हैं। वे किसी भी ऐसे नेता को सपोर्ट नहीं करेंगे, जो इन्हें दुरुस्त करने को तैयार नहीं है।
कुछ छोटे देशों और सम्भवतया उत्तरी कोरिया को छोड़ दें तो दुनिया की कोई और सरकार इतना पैसा खर्च नहीं करती है, जितना फ्रांस की सरकार करती है। 2017 में फ्रांस के पास इस समस्या को सुलझाने का वास्तविक अवसर था। मैक्रों ने कसम खाई थी कि वे राज्यसत्ता के आकार को कम करेंगे, जबकि उनकी प्रतिद्वंद्वी मरीन ले पेन इससे उल्टा वादा कर रही थीं।
वोटरों ने मैक्रों को चुना। उन्हें बदलाव के लिए बहुमत दिया। लेकिन जब मैक्रों ने डिलीवर करने की कोशिश की, तो अनिच्छुक पूंजीपति और फ्रांसीसी जनता सड़कों पर प्रदर्शन करने उतर आई थी। मैक्रों ने वादा किया था कि वे सरकारी खर्च में पांच प्रतिशत की कटौती करेंगे। उस समय यह फ्रांस की जीडीपी का 56 प्रतिशत था।
लेकिन पहले विरोध-प्रदर्शनों और फिर महामारी के दबाव के चलते फ्रांस की सरकार के खर्चे और बढ़ गए और अब वे जीडीपी का 60 प्रतिशत हो गए हैं। यह विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के औसत व्यय से 15 पॉइंट्स अधिक है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास पर भारी खर्च किया जा रहा है। फ्रांस की सरकार अपनी खर्चीली आदतों की भरपाई बड़े टैक्स लगाकर करती है और यह उसकी समस्याओं की जड़ में है।
अनेक पीढ़ियों से संजोई गई सम्पत्ति के कारण फ्रांसीसी राज्यसत्ता का जहाज भले पानी पर सुचारु रूप से तैरता रहे, लेकिन इसमें भी एक खामी है। मैक्रों के कार्यकाल में फ्रांस के अरबपतियों की सम्पदा बढ़कर दोहरी हो गई है और फ्रांस की जीडीपी के 17 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। इस देश के अरबपतियों में से 80 प्रतिशत ऐसे हैं, जिन्हें पुश्तैनी रूप से अपनी यह सम्पदा मिली है।
दुनिया में इतने खानदानी अरबपति कम ही देशों में हैं। मैक्रों को इस बात के लिए तो श्रेय देना होगा कि उनके सुधारों ने जहां-तहां गतिशीलता निर्मित की। वे श्रम-बाजार में लचीलापन लाए और फ्रांसीसी-श्रम-लागतों को जर्मनी की तुलना में प्रतिस्पर्धी बनाया। ऐसा अनेक वर्षों में पहली बार हुआ था। उन्होंने प्रतिभाशालियों के पलायन को रोकने के लिए सम्पत्ति कर की योजनाओं को भी निष्फल किया।
इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इन सुधारों से निवेश बढ़कर जीडीपी का 25 प्रतिशत हो गया। यह विकसित देशों में चौथा सबसे अधिक प्रतिशत है। निवेश निजी क्षेत्र पर एकाग्र है और नए स्टार्ट-अप कल्चर को बढ़ावा दे रहा है। पेरिस के अलावा दूसरे शहर भी इसकी वजह से वापसी कर रहे हैं। लेकिन मैक्रों को इस बार पिछली बार जितनी बड़ी चुनावी जीत नहीं मिली है, न ही जनता ने उन्हें सुधारों के लिए जनादेश दिया है।
अलबत्ता यह कहना मुश्किल है कि सरकार कब जरूरत से बड़ी हो जाती है, लेकिन स्थायी आर्थिक विकास के लिए संतुलन जरूरी है। राष्ट्रों को यह पता होना चाहिए कि जब उनकी राज्यसत्ता जरूरत से ज्यादा बड़े या जरूरत से ज्यादा छोटे आकार की होती है तो ये दोनों ही स्थितियां नुकसानदेह हैं। फ्रांस की सरकार ओवरसाइज्ड है, खासतौर पर जब वेलफेयर भुगतानों की बात आती है तो। आश्चर्य है कि यह देश अभी तक आर्थिक संकट में धंस नहीं गया है।
शायद राज्य-प्रणीत यह मॉडल इसलिए वहां कारगर सिद्ध हो रहा है, क्योंकि फ्रांस के लोग टैक्स चुकाने से कोताही नहीं करते और कर्ज के लिए यूरोजोन की ब्याज दरें बहुत कम हैं। इसका खामियाजा यह है कि फ्रांस इस दबाव को महसूस नहीं कर पाता कि उसे एक बड़े सुधार की जरूरत है। ऐसे में वहां के वोटरों के मन की चलती रहेगी और सरकारें आकार में और बड़ी होती रहेंगी।
फ्रांस वेलफेयर-ट्रैप में फंस चुका है। उसकी ताकत मैन्युफेक्चरिंग से लेकर लग्जरी गुड्स तक में निहित है, इसके बावजूद वह एक औसत आर्थिक प्रतिस्पर्धी ही बन पाया है। मैक्रों के पहले कार्यकाल में फ्रांस की विकास दर औसतन मात्र एक प्रतिशत थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)