नफरत नहीं, शांति

यह देखना दुखद है कि हरिद्वार में दस दिन पहले हुए आयोजन में दिए गए नफरत से भरे, भड़काऊ और बेहद आपत्तिजनक भाषणों के मामले में उत्तराखंड पुलिस आज तक कोई गिरफ्तारी नहीं कर सकी है।

Update: 2021-12-29 02:31 GMT

यह देखना दुखद है कि हरिद्वार में दस दिन पहले हुए आयोजन में दिए गए नफरत से भरे, भड़काऊ और बेहद आपत्तिजनक भाषणों के मामले में उत्तराखंड पुलिस आज तक कोई गिरफ्तारी नहीं कर सकी है। इस कथित धर्म संसद में दिए गए भाषणों के विडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, आयोजक और वक्ता अफसोस जताना तो दूर, इस बात को दोहरा रहे हैं कि वे अपने रुख पर कायम हैं और राज्य की पुलिस मशीनरी दुविधा से निकल नहीं पा रही। आयोजन समाप्त होने के चार दिन बाद जब एफआईआर दर्ज की गई तो उसमें सिर्फ एक व्यक्ति वसीम रिजवी उर्फ जितेंद्र नारायण दीक्षित का नाम था। इसके तीन दिन बाद रविवार को इसमें दो और व्यक्तियों- अन्नपूर्णा मां उर्फ पूजा शकुन पांडेय और धर्मदास महाराज- के नाम जोड़े गए।

पुलिस का कहना है कि मामले पर दो दृष्टियों से विचार किया जा रहा है - एक, क्या और लोगों के नाम आरोपी के रूप में शामिल किए जाने की जरूरत है और दो, क्या और कड़ी धाराएं लगाने की आवश्यकता है। पुलिस का यह असमंजस उस मामले में है, जिसमें एक समुदाय के लोगों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली बातें कही गईं बल्कि खुलेआम हथियार उठाने का आह्वान किया गया। और उत्तराखंड का यह आयोजन अपनी तरह का इकलौता आयोजन नहीं है। इसी 19 दिसंबर को दिल्ली में हिंदू युवा वाहिनी के एक कार्यक्रम में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए 'लड़ने, मरने और जरूरत हुई तो मारने' की शपथ ली गई। छत्तीसगढ़ में हुए ऐसे ही एक आयोजन में महात्मा गांधी को न केवल गद्दार बताया गया बल्कि बाकायदा गालियां दी गईं। ऐसे ही असम के सिल्चर में क्रिसमस के मौके पर बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा चर्च में घुसकर क्रिसमस प्रार्थना बंद कराने की खबर भी विचलित करने वाली है। ये सारी घटनाएं उन लोगों के द्वारा अंजाम दी जा रही हैं, जो खास धर्म और विचारधारा से ताकत लेते हैं। मगर सचाई यह है कि धर्म और विचारधारा का इससे खास लेना-देना नहीं है। सवाल कानून के शासन का है।
पुलिस प्रशासन की भूमिका इसी बिंदु पर निर्णायक साबित होती है। कुछ मामलों में वह जरूरत से ज्यादा तत्परता दिखाते हुए इतने कड़े कदम उठा लेती है कि अदालत में उनका औचित्य साबित करना मुश्किल हो जाता है। दूसरी तरफ कई बेहद गंभीर मामलों में इतना ढीलापन दिखाती है कि ऐसा लगने लगता है जैसे जानबूझकर कार्रवाई करने से बचना चाहती हो। दोनों ही रुख पुलिस की भूमिका को संदिग्ध बनाते हैं और समाज विरोधी और संविधान विरोधी ताकतों को यह संदेश देते हैं कि वे खास धर्म या विचारधारा का चोंगा पहनकर मनमानी कर सकते हैं। पुलिस के कामकाज को ठीक रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है और इसलिए ऐसे तमाम मामलों में संबंधित राज्य सरकारें जवाबदेही से नहीं बच सकतीं।

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