पहला कारण तो मेरी आर्थिक विषमता है। वस्तुस्थिति यह है कि आर्थिक विषमता में आदमी अपराध की ओर बढ़ता है, लेकिन मैंने इस अभिशाप को भले रूप में अपनाया तथा दयनीय हो जाने से भलेपन का तमगा हर कोई देने लगा, हो सकता था कि यदि मैं धनाढ्य़ होता तो फिर शायद मेरा भला बने रहना कठिन था। धनवान का सारा आचरण ही बदल जाता है। गरीब होने से मैं आचरण से शुद्ध बना रहा। कहावत भी है कि 'गरीब की जोरू सबकी भाभीÓ। भले आदमी की दशा आज यही है। सत्य को नहीं छिपाना भी भलाई में माना गया है और मैं ही पहला व्यक्ति हूं, जिसने यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार की है। अन्यथा आजकल तो गरीबी के सताये भी टेढ़ी चाल चलने लगे हैं, जिसमें गरीबी की सीमारेखा के नीचे वालों के तो नखरे ही न्यारे हैं। दो रुपए किलो का गेहूं और तीन रुपए का चावल खाकर मद में चूर हैं। मौटे तौर पर मेरे भले होने का दूसरा कारण मेरा शारीरिक रूप से कमजोर होना भी है। यानी धनबल के साथ-साथ मेरे पास अपना भुजबल भी नहीं है।
भुजाओं में ताकत आज के युग की परम आवश्यकता है। चोरी, डकैती तथा अन्य अपराध इसी की देन हैं। भुजबल का तो अब उग्रवाद के रूप में अन्तर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। मैंने प्रारम्भ में अच्छे-से-अच्छा च्यवनप्राश खाया, लेकिन मैं स्वास्थ्य नहीं बना पाया और अन्त में इस निरीहता का नाम भले मानुष के रूप में मेरे साथ जुड़ गया। शारीरिक अक्षमता भला आदमी बनने में काफी कारगर रही, उसी की बदौलत आज मैं मनोबल के साथ यह कह पाता हूं कि मुझसे भला न कोय। मेरे शरीर की संरचना ही ऐसी है कि जो भी देखता है वह एकदम ही मुझे भला आदमी घोषित कर देता है। इसलिए भलमनसाहत को मैंने वरदान के रूप में अंगीकार किया और उसका सुखद परिणाम यह है कि मैं चाहे विवशता में ही सही, भला आदमी बना हुआ हूं। भले आदमी बनने की विवशताएं कुछ भी हो सकती हैं, लेकिन इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। अब भला रूप ही मेरी हर प्रकार से सहायता करता है। मैं शालीनता को तहेदिल से अपनाये हुए हूं, सबसे अच्छा व्यवहार रखता हूं, मीठा बोलता हूं, तो मेरे काम भी बन ही जाते हैं।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक