किसान की शब्दावली नहीं

प्रधानमंत्री मोदी और उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ‘बाहरी कैसे हैं? वे दशकों से भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में हैं

Update: 2021-09-06 18:51 GMT

प्रधानमंत्री मोदी और उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 'बाहरी कैसे हैं? वे दशकों से भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में हैं। संवैधानिक पदों पर रहे हैं। यदि 'बाहरी हैं, तो वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पदों पर आसीन कैसे हो सकते थे? उनका निर्वाचन ही अवैध था! चुनाव आयोग ने 'बाहरी को चुनाव लडऩे और मताधिकार के योग्य क्यों माना? लोकतंत्र की बुनियादी और निर्णायक इकाई-जनता-ने दोनों नेताओं को बार-बार जनादेश क्यों दिया? दरअसल यह किसी भी किसान आंदोलन की शब्दावली नहीं है। किसान आंदोलन के मंच से टिप्पणी की गई-ये दंगे कराने वाले नेता हैं! देश की संस्थाएं बेच रहे हैं। इन्हें बेचने की अनुमति किसने दी? यह शब्दावली भी किसान की नहीं, बल्कि घोर राजनीतिक और चुनावी है। किसी अदालत का कोई गंभीर फैसला इन दोनों नेताओं के खिलाफ उपलब्ध है क्या? खासतौर पर दंगों को लेकर…! विपक्ष की परंपरागत जुबां किसान न बोलें। आंदोलन के सूत्रधार संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि उप्र और उत्तराखंड मिशन की शुरुआत हो चुकी है। भाजपा को वोट नहीं देना है। वोट की चोट मारना बेहद जरूरी है। क्या अब किसान यही राजनीतिक प्रचार करेंगे? क्या इसके जरिए किसानों के मुद्दों का समाधान निकलेगा? क्या मोदी और योगी तथा उनकी भाजपा को किसान-विरोधी करार दिया जाता रहेगा? ये कथन और सवाल किस ओर संकेत करते हैं? साफ है कि किसान का मुखौटा पहन कर, कुछ पराजित राजनीतिक चेहरे, अपना मकसद पूरा करना चाहते हैं! वे भी किसान होंगे, लेकिन उनकी तकलीफें और पीड़ा वह नहीं है, जो 86 फीसदी किसानों की हैं।

उनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम कृषि-योग्य भूमि है। वे गरीब और कजऱ्दार हैं। हमारा दावा है कि उन्होंने तीनों विवादास्पद कानून पढ़े भी नहीं होंगे। उस जमात के 4 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला अभी जारी है। उनकी औसत आमदनी 6-8 हजार प्रति माह है-न्यूनतम से भी नीचे! किसान आंदोलन ने एक और महापंचायत का आयोजन मुजफ्फरनगर, उप्र में किया। ऐसे कई आयोजन पहले भी किए जा चुके हैं। यह किसानों और आंदोलनकारियों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन चिंतित सरोकार किसानों पर ही केंद्रित होने चाहिए। मोदी और योगी को गाली देकर किसान का हासिल क्या होगा? यदि राजनीति करनी है, तो मु_ी भर मुखौटाधारी किसान भी चुनाव मैदान में कूद पड़ें। मोदी-योगी की पार्टी को पराजित कर दें। देश कुछ नहीं कहेगा, बल्कि आपके राजनीतिक विश्लेषण किए जाएंगे। आप भी संवैधानिक पद हासिल कर सकेंगे, लेकिन आंदोलन को 'खिचड़ीÓ मत बनाएं। वैसे भी आंदोलन देश के 70 करोड़ से ज्यादा किसानों और उनके परिजनों का होना चाहिए। हकीकत यह नहीं है, क्योंकि किसानों का एक वर्ग खुले बाज़ार में मुनाफा कमा रहा है। वह विवादास्पद कानूनों के खिलाफ भी नहीं है। बेशक बीते 9 माह से जारी किसान आंदोलन का अब समाधान निकलना ही चाहिए।
भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू होनी चाहिए, लेकिन कथित किसान नेता अपनी जिद तो छोड़ें। स्वामीनाथन आयोग का बहुत शोर मचाया जाता रहा है, लेकिन उसकी रपट में क्या-क्या सिफारिशें की गई थीं, सरकार या विशेषज्ञ उन्हें भी सार्वजनिक करें, क्योंकि मौजूदा आंदोलन उसे लेकर भी गुमराह कर रहा है। रपट में साफ उल्लेख है कि सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं दिया जाना चाहिए। चर्चा इस मुद्दे पर भी होनी चाहिए कि ज़मीन छीन लेने का कोई भी प्रावधान कानूनों में कहां किया गया है? किसान आंदोलनकारी यह हव्वा क्यों खड़ा करते रहे हैं? दरअसल हम भी इस पक्ष में हैं कि एमएसपी को कानूनी दर्जा जरूर दिया जाना चाहिए, ताकि खुले बाज़ार में किसान की फसल एमएसपी से ज्यादा भाव पर ही बिके। किसानों को लाभकारी मूल्य मिले, इसके मद्देनजर आज तक जितनी भी समितियां बनाई गई हैं, उन्होंने खुले बाज़ार की ही सिफारिशें की हैं। दिवंगत प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत किसानों के सर्वोच्च नेता थे। उनके लेखन और कथनों को खंगाल लें, तो वे भी किसानों के लिए खुले बाज़ार के पैरोकार थे। नए दौर में महज एक ही जिद पर आंदोलन चलाया जा रहा है कि तीनों कानून रद्द किए जाएं। क्या इस तरह किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है?

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