नेताजी और बलात्कार की पीड़ा: सोच ही बेशर्मी भरी है तो कुछ भी बोलते हुए शर्मिंदगी की उम्मीद कैसेे रखी जाए..!
बलात्कार एक दुर्घटना नहीं है। बलात्कार एक श्राप है जो पीड़ित पर जीते रहने तक और मरने के बाद भी चिपका होता है
किसी देश के नीति-निर्धारक जब ऐसी सोच वाले हों जो बलात्कार को सब्जी के साथ फ्री धनिया मिलने जितनी तवज्जो भी न देते हों, जिनके लिए औरतों का होना घर में बंधी बकरी से भी कमतर हो, तब तक देश के विकास को सोचकर भी क्या कीजिएगा?
देश में, देश के लिए, देश के लोगों द्वारा चुने गए कथित 'नेता' जब कहते हैं 'बलात्कार टाला न जा सके तो आराम से लेटकर उसे एन्जॉय करें' तो दिमाग सुन्न होने लगता है। ये किस युग में जी रहे हैं हम?
वहीं दूसरे नेताजी के कहना है कि लड़कियों की विवाह की उम्र 21 नहीं करनी चाहिए। इससे उन्हें आवारागर्दी का मौका मिलेगा। अब बिचारे लड़के पान, सिगरेट की दुकानों या शराब के ठेकों के चक्कर लगाएं या आवारागर्दी कर रही लड़कियों को सबक सिखाने का बीड़ा उठाएं! बोलिए तो भला।
कब बदलेगी सोच? कहां जा रहा है समाज?
बलात्कार एक दुर्घटना नहीं है। बलात्कार एक श्राप है जो पीड़ित पर जीते रहने तक और मरने के बाद भी चिपका होता है। बलात्कार एक टीस है, जिसे ताजा करने का कोई मौका समाज नहीं छोड़ता। बलात्कार एक सजा है जिसे पीड़ित के साथ उसका पूरा परिवार जीता है। शरीर पर लगे घाव तो भर भी जाते होंगे लेकिन मन पर पड़ी खरोंचें कभी भी अचानक पक कर टीसने लगती होंगी। जब-जब कोई 'सामाजिक हितैषी' उस घाव को कुरेदने आ पहुंचता होगा।
जब बार बार पीड़ित अपने ही शरीर को लेकर घृणा, दुख, वेदना और पीड़ा के एहसास से भर जाती होगी। उसे अपने होने पर धिक्कार महसूस होने लगता होगा। एक ऐसी स्थिति जिसमें शरीर तो शरीर आत्मा तक चोट के निशान पहुंचते हैं उसे नेताजी एन्जॉय करने के मौके में तब्दील करना चाहते हैं।
दुखद यह है कि ऐसे लोग अपने समाज और अपनी इस सोच पर ताली मारने वालों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और हमारे आस पास मौजूद हैं। फिर हम औरतों की सुरक्षा का मुद्दा भी भला कैसे उठा सकते हैं।
दिल्ली के घाव और हमारी सोच
दिल्ली में हुए भयावह निर्भया कांड को कोई भी भूला नहीं है। भूलेगा भी कैसे लगभग हर रोज कोई न कोई लड़की निर्भयता से आगे बढ़ने को क़दम बढाती है और कहीं न कहीं शरीर या मन के स्तर पर रौंद दी जाती है। चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो, चाहे वो घर में हो या घर के बाहर और चाहे उसने साड़ी पहनी हो, बुर्का या फ्रॉक।
तो उस घटना के बाद बीबीसी द्वारा एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई गई। नाम था 'इंडियाज डॉटर।' लेस्ली उडविन द्वारा निर्देशित इस फिल्म में निर्भया के दोषियों में से एक का इंटरव्यू था जिसमें उसका कहना था-'उस लड़की को बलात्कार के समय लड़ना नहीं चाहिए था। चुपचाप पड़ी रहती और हमें अपना 'काम' करने देती तो हम उसे बाद में 'बिना चोट पहुंचाए' बस से उतार देते। वैसे भी रात के 9 बजे भले घर की लड़कियां ऐसे घर से बाहर थोड़े ही घूमती हैं। इसलिए बलात्कार के लिए लड़कों से ज्यादा लड़कियां ही दोषी हैं।'
किसी ने यह नहीं कहा कि हमारी बेटी या बहन के साथ कोई ऐसा करता तो हम उस आरोपी के साथ क्या करते क्योंकि ज्यादातर मामलों में तो सबसे पहले अपनी बेटी या बहन पर ही घटना का दोष मढ़ दिया जाता है। बलात्कारियों के लिए तो हमारे पास तयशुदा सजाएं हैं। मगर बलात्कार पीड़ित के लिए सजाओं के कई विकल्प हैं।
उदाहरण के लिए, अगर लड़की किसी तरह मरने से बच जाए तो बलात्कार के बाद जीवन भर के लिए उसका घर से निकलना, सामाजिक जीवन जीना बंद करवा दो और अगर वह पढ़ रही है तो सबसे पहले उसका स्कूल या कॉलेज छुड़वा दो।
उसके बाद जिंदगी भर उसे उस तकलीफ के लिए कोसो जो लड़की होने के कारण उसने पाई। उसे जीवन भर सिर नीचा किए जीने को कहते रहो क्योंकि उसने अपने सहित पूरे परिवार, समाज की इज्जत गंवा दी।
यदि किसी तरह न्याय व्यवस्था तक मामला पहुंचा और आरोप सिद्ध होने और सजा मिलने तक यदि लड़की बची रह गई तो आरोपी को मिलने वाली सजा मुकर्रर होगी जिसका प्रतिशत बहुत कम है।
और फिर लड़की के लिए एक सजा होगी, जिन्दगी भर इस डर के साथ जीना कि आरोपी कहीं बदला लेने न आ धमके। वैसे न्याय व्यवस्था के अलावा समाज व्यवस्था ने भी एक सजा तय कर रखी है, जो है पीड़िता की शादी बलात्कारी से ही करवा देने की सजा।
ये सजा बलात्कारी से ज्यादा पीड़ित के लिए सजा है क्योंकि इसके बाद समाज तो अपराध करने वाले को खुले दिल से अपना लेता है बल्कि उसे रोज अपना अपराध दोहराने की छूट दे देता है और पीड़ित जिंदगी भर सजा पाते रहने की पात्र हो जाती है।
शर्मसार करते हैं आकड़े
आंकड़े बताते हैं कि देशभर में हर साल लड़कियों से होने वाली छेड़छाड़ (असली अपराध, झूठे मुकदमे नहीं) की रिपोर्ट बमुश्किल कुछ प्रतिशत लड़कियां या उनके परिजन लिखवाने की हिम्मत कर पाते हैं। बलात्कार को तो छोड़ ही दीजिए, छेड़छाड़ तक की ज्यादातर रिपोर्ट वापस ले ली जाती हैं।
ज्यादा दूर क्यों जाएं। अभी दो दिन पहले ही तमिलनाडु में एक स्कूली बच्ची ने यौन प्रताड़ना से तंग आकर जान दे दी। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि दुनिया में सिर्फ दो ही जगहें हैं जो (लड़कियों के लिए) सुरक्षित हैं। पहली है माँ की कोख और दूसरी है कब्र! एक बच्ची जो भविष्य के सपने आंखों में लेकर, अपनी मेहनत के दम पर आगे बढ़ने के बारे में सोच रही होती है। वो सिर्फ इसलिए अपनी जान दे देती है क्योंकि उसका शरीर किसी की नजर में आ जाता है।
यह पहला केस नहीं है जहां शिकायत करने की बजाय (या शिकायत अनसुनी होने के बाद) लड़कियों ने तंग आकर जान दे दी है। अब दो ही चीजें बचती हैं, या तो सारी लड़कियां मिस्टर इंडिया हो जाएं (मिस इंडिया तो अदृश्य हुई तो भी सूंघ ली जाएगी) या फिर केवल लड़के ही पैदा होते चले जाएं।
आश्चर्यजनक है यह सोच पीड़ित और पीड़ा दोनों का मजाक उड़ा सकती है। नेता हों या अभिनेता, बलात्कार उनके लिए महज शब्द है जिसे वे कहीं भी उपयोग में ला सकते हैं, बिना सोचे, बिना समझे। वैसे सोच-समझ होती तो ये नौबत ही क्यों आती भला।
तो जरूरी ये है कि हम लड़कों को ये सिखाएं कि लड़कियां महज शरीर नहीं हैं, उनका सम्मान करना जरूरी है। लड़कियों को भी ये गांठ बांधने को कहें कि उनका शरीर शर्म की वजह नहीं और अगर कुछ गलत होता है तो हम तुम्हारे साथ हैं, गलत करने वाले के साथ नहीं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है