Nepal Politics: नेपाल में लंबे समय से जारी राजनीतिक गतिरोध के बीच संविधान की जीत

लंबे समय से जारी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच नेपाल फिर मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ गया है

Update: 2021-05-24 11:53 GMT

श्याम सुंदर भाटिया। लंबे समय से जारी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच नेपाल फिर मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ गया है। नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने सभी दलों को सरकार बनाने का मौका दिया, ताकि मध्यावधि चुनाव को टाला जा सके, लेकिन सत्ताधारी दल समेत सभी दल सरकार के गठन में नाकाम रहे तो उन्होंने संसद भंग करते हुए नवंबर में चुनाव कराने की घोषणा कर दी। हालांकि इससे पूर्व एक बार फिर प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और विपक्षी दलों ने सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर सरकार बनाने का दावा किया था। चूंकि कुछ सांसदों के नाम इन दोनों पत्रों पर कॉमन थे, इसीलिए राष्ट्रपति भंडारी ने बड़ा फैसला लेते हुए प्रतिनिधि सभा संसद को भंग कर दिया। नेपाल में अब नवंबर में चुनाव होंगे। सच मानिए, नेपाल में पेंडुलम की मानिंद सियासत को अब कड़ा इम्तिहान देना होगा, क्योंकि संविधान बनने के बाद नेपाल में गठबंधन की सियासत फेल हो गई है।

नेपाली प्रधानमंत्री ओली और चार बार वहां के पूर्व पीएम रहे शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने ही राष्ट्रपति भंडारी को अपने-अपने हक में समर्थक सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर नई सरकार बनाने का दावा पेश किया था। इसके बाद गेंद राष्ट्रपति के पाले में आ गई थी। मगर राष्ट्रपति ने दोनों के दावों को संवैधानिक तराजू पर तौलने के बाद इन्हें खारिज कर दिया। नेपाल का राजनीतिक संकट 21 मई को उस वक्त और गहरा गया थी, जब प्रधानमंत्री ओली और विपक्षी दलों दोनों ने ही राष्ट्रपति को सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र देकर अपनी-अपनी सरकार गठन का दावा ठोका था। प्रधानमंत्री ओली विपक्षी दलों के नेताओं से कुछ मिनट पहले राष्ट्रपति से मिले। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुसार पुन: प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी सीपीएन-यूएमएल के 121 सदस्यों और जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल (जेएसपी-एन) के 32 सांसदों के समर्थन के दावे वाला पत्र सौंपा। इससे पहले नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने 149 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था। देउबा प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करने के लिए विपक्षी दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति कार्यालय पहुंचे।
प्रधानमंत्री ओली ने संसद में अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने में 20 मई को अनिच्छा जता दी थी। नेपाली कांग्रेस (एनसी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर), जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) के उपेंद्र यादव नीत खेमे और सत्तारूढ़ सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल नीत ग्रुप समेत विपक्षी गठबंधन के नेताओं ने प्रतिनिधि सभा में 149 सदस्यों का समर्थन होने का दावा किया था, जबकि पीएम ओली की माई रिपब्लिका वेबसाइट के अनुसार इन सदस्यों में नेपाली कांग्रेस के 61, सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) के 48, जेएसपी के 13 और यूएमएल के 27 सदस्यों के शामिल होने का दावा किया।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार विपक्षी गठबंधन के नेता 149 सांसदों के हस्ताक्षर के साथ सरकार बनाने का दावा करने वाला पत्र राष्ट्रपति को सौंपने के लिए उनके सरकारी आवास गए। इस पत्र में शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश की गई थी। देउबा नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और वर्ष 2017 में आम चुनावों के बाद से विपक्ष के नेता हैं। गेंद अब राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पाले में थी, इसीलिए उन्होंने मध्यावधि चुनाव कराने का बड़ा फैसला लिया है। उल्लेखनीय है कि नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 121 सीटों के साथ सीपीएन-यूएमएल सबसे बड़ा दल है। इस समय बहुमत सरकार बनाने के लिए 136 सीटों की दरकार है।
इससे पहले भी नेपाल में वहां के प्रधानमंत्री केपी ओली की सिफारिश पर पिछले वर्ष 20 दिसंबर को राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर दी थी। सरकार के इस फैसले के बाद से नेपाल की सियासत में खलबली मच गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संसद भंग किए जाने के फैसले को पलट दिया था। नेपाल की शीर्ष अदालत में मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र समशेर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग करने के सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल कर दिया था। इसके साथ ही कोर्ट ने 13 दिनों के भीतर संसद का सत्र आहूत करने का आदेश दिया। दरअसल अचानक संसद भंग करने के ओली सरकार के फैसले का उन्हीं की पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल प्रचंड और देश की जनता ने भारी विरोध किया था। इसके बाद संसद भंग किए जाने को लेकर अलग-अलग 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं, जिन पर 20 फरवरी को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था।
उल्लेखनीय है कि ओली ने 15 फरवरी 2018 को नेपाल के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इससे पूर्व ओली और प्रचंड ने सरकार गठन करने के लिए अपने-अपने दलों का विलय कर दिया था, लेकिन दोनों नेता और दल कभी भी एकदूसरे को फूटी आंख नहीं भाए। प्रचंड हमेशा यह कहते रहे कि एक व्यक्ति-एक पद की सहमति बनी थी, लेकिन ओली प्रधानमंत्री के साथ-साथ संगठन पर भी काबिज हैं। दूसरी ओर ओली प्रचंड पर सरकार विरोधी रुख और सरकार नहीं चलाने के गंभीर आरोप लगाते रहे हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]
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