फिर राजनीतिक संकट में नेपाल: पीएम ओली की महत्वाकांक्षाओं का खामियाजा जनता को पड़ेगा भुगतना
फिर राजनीतिक संकट में नेपाल
साधनों की पवित्रता का ख्याल किए बिना लक्ष्य तक पहुंचने के मैकियावेली के सिद्धांत पर अमल करने वाले और चीन के समर्थन व भारत-विरोधी एजेंडे के जरिये नेपाल की सत्ता संभालने वाले खड्ग प्रसाद ओली के तीन साल के प्रधानमंत्री काल का विगत 21 मई को तब अचानक अंत हो गया, जब राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने संसद भंग करने के साथ आगामी नवंबर में मध्यावधि चुनाव कराने का एलान किया।
मध्यावधि चुनाव दुर्भाग्य से कोविड के भीषण संकट के बीच होंगे। वैक्सीन खत्म हो जाने के कारण नेपाल में कोरोना की स्थिति पहले ही सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई है। संविधान विशेषज्ञों ने जहां राष्ट्रपति के फैसले की आलोचना की है, वहीं विपक्ष ने उनके निर्णय को असांविधानिक, अलोकतांत्रिक, निरंकुश और प्रतिगामी बताया है। यही नहीं, 149 विपक्षी सांसदों ने राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जाने का फैसला किया है, जो कि 275 सदस्यीय संसद में बहुमत के लिए जरूरी 137 की संख्या से कहीं अधिक है।
विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति को तीन दलों वाले विपक्ष यानी नेपाली कांग्रेस, प्रचंड के नेतृत्व वाले नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाले जनता समाजवादी को सरकार बनाने का अवसर देना चाहिए था। सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल व झलानाथ खनाल धड़े का भी विपक्ष को समर्थन था। नेपाली कांग्रेस के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में विपक्ष ने राष्ट्रपति के सामने बहुमत के लिए जरूरी सांसदों के दस्तखत के साथ सरकार बनाने का दावा भी पेश किया, लेकिन राष्ट्रपति ने उस पर विचार नहीं किया। विपक्ष के दावे को ध्वस्त करने के लिए ओली ने राष्ट्रपति के सामने 153 सांसदों के समर्थन का दावा किया था, इसके बावजूद वह विश्वास मत नहीं जीत पाए। हालांकि राष्ट्रपति का कहना है कि चूंकि ओली और विपक्ष-किसी के भी पास बहुमत नहीं है, इसलिए उन्हें संसद भंग करने का फैसला लेना पड़ा। नेपाल में वैसे भी 2023 में आम चुनाव प्रस्तावित है।
विश्वास मत खोने के बाद ओली खुद संसद भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने की बात कर रहे थे। हिंदू वोट पाने के लिए ओली पहले ही भगवान राम और सीता के जन्मस्थान के बारे में टिप्पणी कर विवाद खड़ा कर चुके हैं। ओली ने अयोध्या के नेपाल में होने का भी दावा किया है, जिसका भारत ने हालांकि तीखा विरोध किया, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ओली नेपाल के हिंदुओं को अपने पाले में करने के लिए एक बार फिर अपना यह दावा दोहराएंगे। इसके अलावा नेपाल के नए और विवादित नक्शे का प्रचार करते हुए ओली खुद को आक्रामक राष्ट्रवादी के रूप में पेश करते हुए जताएंगे कि भारत-विरोधी रुख के लिए ही उन्हें जाना पड़ा। ओली अपनी पार्टी सीपीएन-यूएमएल को दोफाड़ करने के अलावा नेपाल और भारत के बीच सदियों से व्याप्त दोस्ती को खत्म करने के लिए जाने जाएंगे।
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक ओली के पतन के कई कारण गिनाते हैं, जिनमें पार्टी में विभाजन, चीन का हस्तक्षेप, ओली का भारत-विरोधी रवैया और सर्वोच्च न्यायालय की कठोर टिप्पणी प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि विगत दिसंबर में नेपाल में जब अचानक संसद भंग कर चुनाव का फैसला लिया गया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने उस निर्णय को गैरकानूनी और असांविधानिक ठहराते हुए ओली को विश्वास मत हासिल करने के लिए कहा था।
ओली के कामकाज के तरीके की उनकी पार्टी में ही आलोचना होने लगी थी। दरअसल ओली की अपनी पार्टी के ही लोग जिस तरह उनका इस्तीफा चाहते थे, उसे देखते हुए चीन के लिए भी ओली के पक्ष में हस्तक्षेप करना संभव नहीं रह गया था। नेपाल का यह नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम जहां चीन के लिए बड़ा झटका है, वहीं भारत के लिए यह राहत का अवसर है, क्योंकि भारत-विरोधी ओली सत्ता से बाहर हो चुके हैं। हालांकि कोविड की मौजूदा स्थिति को देखते हुए आगामी चुनाव के प्रति आशंकाएं जताई जा रही हैं, क्योंकि वहां अगर बड़ी राजनीतिक रैलियों का आयोजन होता है, तो कोविड की स्थिति और भीषण हो जाने की आशंका है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला