मानसिक समस्या को गंभीरता से लेने की जरूरत, हमेशा देर क्यों कर देते हैं हम?
एक माह पहले विश्व आत्महत्या निरोधक दिवस और हाल में विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस
इधर, हिमाचल प्रदेश में सूरज पूर्ववत उदय हो रहा है और अस्त भी। हर क्रिया वैसे ही जारी है, लेकिन इस इस धरती ने सफल जीवन की परिभाषा के रूप में जीते आए एक आदमी को हमसे छीन लिया। नाम है अश्वनी कुमार और परिचय यह है कि साधारण पृष्ठभूमि से उठकर भारतीय पुलिस सेवा में आए। हिमाचल प्रदेश के पुलिस महानिदेशक और फिर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के निदेशक। उसके बाद नगालैंड और मणिपुर के राज्यपाल। चूंकि ऐसे व्यक्ति के जीवन में सेवानिवृत्ति का कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए एक निजी विश्वविद्यालय में कुलपति भी रहे। ऐसे बेशकीमती व्यक्तित्व को मौत ने आत्महत्या बन कर हमसे छीन लिया। अगर भौतिक प्राप्ति और उपलब्धि ही सब कुछ है तो कमी क्या थी? शालीन, विनम्र और संवेदना से लबरेज इंसान का यूं स्वयं ही पर्दा गिराना समझ में नहीं आता।
कुछ दिन हवा में उदाहरण गूंजे। एक पुलिस अफसर जगजीत सिंह और राष्ट्रीय स्तर पर कुछ बड़े लोगों की आत्महत्या के। विश्व स्वास्थ्य संगठन आत्महत्या को रोग बताता है। ऐसा रोग जिससे बचाव संभव है। सवाल है, बचाए कौन? जहां हर तरफ हर जगह बेशुमार होने के बावजूद आदमी तनहाइयों का शिकार हो, वहां कौन किसे बचाए?
इसे रोग इसलिए बताते हैं, क्योंकि विश्व में एक साल में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं। हर 40 सेकेंड के बाद एक आत्महत्या होती है। 2016 में तो मलेरिया, स्तन कैंसर या किसी युद्ध ने भी इतनी जान नहीं ली, जितनी आत्महत्या ने ली। आत्महत्या के संदर्भ में दक्षिण पूर्वी एशिया में भारत पहले स्थान पर है। दूसरे पर श्रीलंका है, तीसरे पर थाइलैंड। महिला आत्महत्या के संदर्भ में भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है। सवाल यह है कि क्या कोई राष्ट्रीय हेल्पलाइन है? संभवत: नहीं। कुछ गैर सरकारी हेल्पलाइन नंबर हैं जहां प्रशिक्षित लोग नहीं हैं। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि भारत में हादसों के बाद अगर सर्वाधिक अप्राकृतिक मौतें जिस कारण से होती हैं उसे आत्महत्या कहते हैं।
महामारी के दौर में हिमाचल प्रदेश ने भी आत्महत्या के आंकड़ों में बड़ा उछाल देखा है। अच्छा पक्ष यह है कि पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू ने केवल आंकड़े ही नहीं जारी करवाए, अपितु एक सर्वेक्षण भी करवाया कि किस आयु वर्ग के लोग किन हालात में आत्महत्या करते हैं। कोरोना काल में आत्महत्याओं के मामले और साप्ताहिक औसत उससे पहले के काल की तुलना में बढ़े हैं। पारिवारिक झगड़े, गड़बड़ वैवाहिक जीवन बड़े कारण हैं। यकीनन बेरोजगारी, प्रेम प्रसंग, नशा और बीमारी आदि भी कारक हैं।
बीते दिनों फोर्टसि अस्पताल के नामी चिकित्सक केदार तिल्वे ने अंग्रेजी में चार अक्षरों का एक शब्द दिया है जिसे वेट कहते हैं। भाव यह है कि प्रतीक्षा करें, रुकें। पहले अक्षर का अर्थ है अपने भीतर तनाव के कारणों और व्यवहार में आ रहे परिवर्तन को पहचानें। दूसरा, आत्मघाती लक्षण होने पर बात करें। तीसरा यह कि हर दौर बीत जाता है, यह भी बीत जाएगा। यह समझना और समझाना होगा। चौथा यह कि लोगों के साथ बात करें।
लाख कोसे जाने के बावजूद आभासी माध्यम इसीलिए मददगार साबित हो सकते हैं और हुए भी हैं। अगर ऊर्जा को ठीक प्रवाह देना आ जाए, जिंदगी के साथ राजी होना आ जाए तो आत्महत्या का विचार इतना शक्तिशाली हो ही नहीं सकता कि जीवन जैसी सुंदर कृति को नष्ट कर दे। इसकी शुरुआत घरों से ही होनी चाहिए। संवादहीनता की दीवारें कब रिश्तों के आंगन में दीवार खड़ी कर दें, इस पर तो हमारी नजर रहनी ही चाहिए। परीक्षा परिणाम जीवन-मरण का प्रश्न क्यों हो? सफलता के पैमाने भौतिक उपलब्धि रहेंगे तो जीवन की मुस्कराहट के साथ शर्ते भी नत्थी हो जाएंगी।
दुर्भाग्यवश सच को स्वीकार करने की बजाय उससे भयभीत होना सिखाया जा रहा है। जीत का प्रबंधन सीखना उतना ही आवश्यक है जितना पराजय का प्रबंधन सीखना अनिवार्य है। जरूरी यह है कि हर व्यक्ति आत्महत्या के विरुद्ध चेतना का दूत बने। जाहिर है, अच्छी शुरुआत अपने आसपास से ही होती है। लेकिन आभासी माध्यम से पास होना और बात है। प्रत्यक्ष संवाद भी उतना ही आवश्यक है, पर सामाजिक सोच में अब देर का तत्व शामिल हो गया है। वही देर जिसके बारे में मुनीर नियाजी ने कहा था- देर कर देता हूं मैं। देर न करें तो कई अमूल्य जीवन बचाए जा सकते हैं :
किसी को मौत से पहले
किसी गम से बचाना हो
हकीकत और थी कुछ
उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं।
वास्तव में कोई समस्या इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि आत्महत्या ही उसका हल हो। समस्याओं का हल जीवन से और जीवन में ही निकलता है।