निज भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत: इंजीनियरिंग की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने से वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान का विकास भी तेजी से होगा
निज भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की जरूरतनिज भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत
प्रेमपाल शर्मा : इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी विषयों को अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने का नीतिगत फैसला तो कुछ महीने पहले ही कर लिया गया था, लेकिन अब अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद यानी एआइसीटीई ने भी इस पर मुहर लगा दी। आने वाले सत्र में शुरुआत के तौर पर पहले आठ भारतीय भाषाओं- हिंदी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु, मराठी, मलयालम, गुजराती और कन्नड़ में विद्यार्थियों को पढ़ने की सुविधा देने के लिए इंजीनियरिंग कॉलेजों को कहा गया है। आठवीं अनुसूची की 11 और भाषाएं भी जल्दी ही इसमें शामिल की जाएंगी। तकनीकी शिक्षा की सर्वोच्च संस्था एआइसीटीई का मानना है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थी अंग्रेजी के दबाव से मुक्त होकर मातृभाषा में बेहतर तरीके से अपनी रचनात्मकता को सामने ला पाएंगे।
चीन, जापान, कोरिया, जर्मनी आदि देशों में तकनीकी शिक्षा मातृभाषा में दी जाती है
ज्ञात हो कि चीन, जापान, कोरिया, जर्मनी आदि देशों में तकनीकी शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में दी जाती है। इसीलिए उन देशों का ज्ञान-विज्ञान दुनिया भर में अग्रणी बना हुआ है। यह नीतिगत फैसला तो बहुत अच्छा है, लेकिन इसे अमल में लाने के लिए तुरंत युद्ध स्तर पर काम करने की जरूरत है। अगला सत्र शुरू होने में देर नहीं है इसलिए इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के पहले वर्ष की किताबों को तुरंत इन भाषाओं में उपलब्ध कराने की जरूरत है।
इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ विश्वविद्यालयों में अधिकांश प्रोफेसर द्विभाषी हैं
यदि हिंदी की बात करें तो इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, आगरा, पटना, भागलपुर, जयपुर, भोपाल और उज्जैन जैसे विश्वविद्यालयों में अधिकांश प्रोफेसर द्विभाषी हैं। पुरानी पीढ़ी के शिक्षकों ने तो लगभग शत-प्रतिशत भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान, गणित हिंदी माध्यम से ही पढ़ा है। इसमें सेवानिवृत्त प्राध्यापकों, शिक्षाविदों, नौकरशाहों और इंजीनियरों की भी मदद ली जा सकती है। विचारधारा और राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर इस कार्य में हमें ऐसे विद्वानों को तुरंत शामिल करने की जरूरत है, जो विषय भी जानते हों और भाषा भी। उत्तर भारत के कई विश्वविद्यालयों और इंजीनियरिंग कॉलेजों में कुछ किताबों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद पहले से ही उपलब्ध हैं। पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान की ग्रंथ अकादमी ने भी तकनीकी पुस्तकों के अनुवाद कराए थे। एक समय सीमा के अंदर पहले वर्ष के पाठ्यक्रम की किताबें यदि भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो गईं तो यह विद्यार्थियों को अपनी भाषाओं में पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा। पहले वर्ष में आने वाले अधिकांश विद्यार्थी भारतीय भाषाओं को जानते हैं। वे अपनी भाषा में पढ़ने में ज्यादा सहज महसूस भी करते हैं। अभी तक की दिक्कत यह रही है कि इन सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में पहले दिन से ही अंग्रेजी पाठ्यक्रम उनके ऊपर लाद दिया जाता है। दूसरी भाषाओं के लिए भी ऐसे ही कदम उठाने होंगे।
हिंदी को बढ़ाने के नाम पर कई दशकों से ढेरों संस्थान काम कर रहे हैं
यदि शुरुआत ठीक-ठाक हो गई तो आने वाले तीन वर्षों के लिए भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रम बनाने में देर नहीं लगेगी, क्योंकि एक बार अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला शुरू हो गया तो सोचने-समझने की चिंतन प्रक्रिया को भी रफ्तार पकड़ने में देर नहीं लगेगी। हिंदी को बढ़ाने के नाम पर कई दशकों से ढेरों संस्थान काम कर रहे हैं। देश की मौजूदा आर्थिक स्थितियों को देखते हुए यदि जरूरत हो तो केंद्रीय हिंदी संस्थान, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, सेंट्रल हिंदी डायरेक्ट्रेट से लेकर राजभाषा विभाग के बजट को भी अनुवाद और पुस्तकों के इस मिशन में लगाया जा सकता है। भारतीय शिक्षा के लिए यह मील का पत्थर साबित होगा।
इंजीनियरिंग की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने से वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान का विकास तेजी से होगा
हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज से चार साल पहले भोपाल के अटल बिहारी वाजपेयी इंजीनियरिंग संस्थान में हिंदी माध्यम से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की शुरुआत इसीलिए असफल हुई कि उसे आधे मन से शुरू किया गया था। तब न जरूरी पुस्तकें उपलब्ध थीं, न दूसरे संसाधन। इसीलिए अंग्रेजी पढ़ने-लिखने वाले वर्ग को आलोचना करने का मौका मिल गया था। ऐसी गलती फिर नहीं होनी चाहिए। इंजीनियरिंग की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने से वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान का विकास भी तेजी से होगा। नकली, ओढ़ी हुई, पराई भाषा समझ को निगल जाती है और चेतना को भी। हालांकि इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रमों को भी ग्लोबल ज्ञान के समानांतर लगातार अद्यतन बनाने की जरूरत है, इसलिए शुरू में भाषाई लचीलापन रखना होगा। इसमें यदि अंग्रेजी के शब्दों को साथ रखना पड़े तो कोई हर्ज नहीं। दूसरी भारतीय भाषाओं के शब्द भंडार और किताबों से परस्पर मदद मिल सकती है। इसके अलावा मानविकी के विषयों को भी अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना समान रूप से जरूरी है। इन विषयों की तो किताबों की भी कमी नहीं है, लेकिन भारतीय भाषाओं के प्रति हिकारत भाव के कारण उत्तर भारत के मशहूर इलाहाबाद, बनारस, पटना, जयपुर के विश्वविद्यालय मजबूरन अंग्रेजी की तरफ बढ़ रहे हैं। इसमें सबसे गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं राजधानी दिल्ली के जेएनयू, जामिया, दिल्ली और अंबेडकर जैसे विश्वविद्यालय। इन विश्वविद्यालयों के शिक्षक द्विभाषी होते हुए भी शत-प्रतिशत अंग्रेजी में ही पढ़ाते हैं, जबकि इनकी पर्याप्त किताबें हिंदी में उपलब्ध हैं।
इग्नू के सारे पाठ्यक्रम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध
आज इग्नू के सारे पाठ्यक्रम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। उनकी गुणवत्ता पूरे देश में सराही गई है। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में यह पाठ्यक्रम पढ़कर परीक्षार्थी सफल भी होते हैं। जब यह राष्ट्रीय नीति है तो इसकी शुरुआत राष्ट्रीय राजधानी में सबसे पहले होनी चाहिए। इसका संदेश बहुत दूर तक जाएगा। जब चीन एक हफ्ते के अंदर 5000 बिस्तरों का अस्पताल खड़ा कर सकता है तो क्या हम अपनी भाषाओं की विरासत, ज्ञान-विज्ञान और विद्वानों के बूते अगले तीन महीने में पाठ्यक्रम तैयार नहीं कर सकते? न भूलें सुधार की गुंजाइश तो हर समय रहती है।
( लेखक पूर्व प्रशासक एवं शिक्षाविद् हैं )