National Politics: दिशाहीन विपक्ष की बढ़ती मुश्किलें, आगे और कठिन दिखती राह

यह तो अतीत की बात है, लेकिन आज मंडल-कमंडल की राजनीति के 32 वषों बाद उत्तर भारत के पांच में से तीन राज्यों के चुनाव बताते हैं

Update: 2022-03-19 17:07 GMT
एनके सिंह। वक्त देश की राजनीति में मंडल की काट के रूप में कमंडल आया। इस दौरान देश के दो सबसे बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में एक ओर लालू-मुलायम तो दूसरी ओर कांशीराम एवं भाकपा माले जैसे ध्रुव उभरे। इनमें पहली जोड़ी ने कहा कि उनका उभार सामाजिक न्याय की ताकत के रूप में हुआ है, तो कांशीराम ने बसपा को ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ दलितों की क्रांति की संज्ञा दी। वर्षो भूमिगत रहने के बाद चुनावी राजनीति में आए विनोद मिश्र ने दावा किया कि माले दलित चेतना को जमींदारों के शोषणकारी वर्चस्व के खिलाफ सकारात्मक पहलू विकसित कर रहा है और बसपा दलित चेतना का भ्रष्ट पक्ष उभार रही है। माले आज शोषणकारी व्यवस्था तो दूर, स्थानीय गुंडों के मुकाबले भी खड़ा होने की स्थिति में नहीं रहा। वैसे भी दुनिया में साम्यवाद के खात्मे के बाद धुर वामपंथ भी कुछ जंगलों में छिटपुट घटनाओं के अलावा अंतिम सांसें ले रहा है।
यह तो अतीत की बात है, लेकिन आज मंडल-कमंडल की राजनीति के 32 वषों बाद उत्तर भारत के पांच में से तीन राज्यों के चुनाव बताते हैं कि कमंडल तो मंडल को अपनाकर लगातार अपना विस्तार कर रहा है, लेकिन उसके खिलाफ सभी तीनों शक्तियां अवसान की स्थिति में पहुंच चुकी हैं और एक जो शक्ति सबसे पुख्ता लगती थी, वह विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी हाशिये पर खिसक गई है। वजह क्या रही? इन तीनों शक्तियों का सामाजिक न्याय हो या कांग्रेस का सेक्युलरिज्म, वह छिन्न-भिन्न होता दिख रहा है।
लार्ड एक्टन के प्रचलित कथन 'पावर करप्ट्स (सत्ता भ्रष्ट करती है) को चरितार्थ करते हुए लालू-मुलायम ने राजनीति में अपराधीकरण, जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार का एक घातक मिश्रण तैयार किया, जबकि कांग्रेस नेहरू के बाद से ही परिवारवाद की जकड़न से निकल नहीं पाई। नेहरू-गांधी परिवार की चौथी यानी वर्तमान पीढ़ी को अकर्मण्यता, अक्षमता और पूर्णकालिक राजनीति के प्रति अरुचि ने घेर लिया है। इसके बरक्स भाजपा ने अपने को न तो भ्रष्ट होने दिया और न ही गवर्नेस के मूल काम में कोई कोताही की। वह जनता के बहुसंख्यक भाग को गुड गवर्नेस के कुछ अहसास के साथ अपने मोहपाश में बांधे रही। पोलिटिकल इकोनमी के तहत गवनेर्ंस की नई अवधारणा है कि अगर जीडीपी वाल्यूम बढ़ रहा हो और साथ ही गरीब-अमीर की खाई भी, तो उसे कम कर विकास में पिछड़े वर्ग को शामिल करने के लिए 'डायरेक्ट डिलीवरी' सबसे बेहतरीन तरीका है।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस ब्राजीलियन माडल के अनुरूप भारत में भी पांच किलो मुफ्त राशन या किसान सम्मान निधि के नाम पर हर किसान परिवार को 17 रुपये रोज देकर 'लाभार्थियों' का एक नया वर्ग तैयार किया। इसे राजनीतिक समर्थन में बदलना आसान हो गया। देश में एक पार्टी का वर्चस्व तोड़ने और जनता के बीच अपना प्रभाव बनाने के लिए अन्य विपक्षी दल एड़ी-चोटी का जोर लगाकर समझौते करते रहे हैं। इसके लिए वे भांति-भांति के समूहों में दिखाई देते हैं। जैसे पहली बार 1967 में नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी संविद सरकारें बनाकर या फिर 1977 में जनता पार्टी बनाकर अथवा 1996 में राष्ट्रीय मोर्चा बनाकर।
भारत का समाज हजारों पहचान समूहों में बंटा है और ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से आपस में वैमनस्य का भाव रखता है। भारत में प्रचलित चुनाव पद्धति, फस्र्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम, समाज को पहचान-समूहों में तोड़ता है। कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी धार्मिक निष्ठा के नाम पर। राजनीतिशास्त्र का यह सिद्धांत कि समय के साथ प्रजातंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं, भारत में कारगर नहीं है। 70 साल में जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति और बढ़ी है। हाल के दौर में छोटे-छोटे जाति समूहों के नेता वोटों का सौदा करने लगे और बड़ी पार्टियां उनसे समझौता करके सत्ता में हिस्सा देने लगी हैं। दलितों की स्थिति तो करीब-करीब यथावत रही, लेकिन उसकी अगुआ बसपा पैंतरा बदल कर कभी ब्राrाणों तो कभी मुसलमानों को लुभाने लगी। वह सामाजिक न्याय के मूल उद्देश्य को भूल गई। यही कारण है कि दलितों का इस दल से मोहभंग हो गया और उन्होंने भाजपा को अपना बड़ा शुभचिंतक माना।
इन दिनों तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव का दिल्ली, झारखंड और अन्य राज्यों के गैर-भाजपा नेताओं और मुख्यमंत्रियों से मिलना विपक्षी एकता का एक नया प्रयास है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि देश का मतदाता पार्टी के सिद्धांतों से नहीं, उसके नेता से प्रभावित होता है। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी, सोनिया और मोदी इसी जन-भाव की उपज रहे। जनता अपना मत तभी बदलती है, जब किसी नेता को लेकर जबरदस्त आक्रोश हो या नया भरोसा बना हो या फिर कोई भावनात्मक मुद्दा हो। आज क्या विपक्षी एकता का कोई स्पष्ट कारण है? क्या जनमत वर्तमान राष्ट्रीय नेता के खिलाफ स्पष्ट रूप से तैयार है? क्या विपक्ष में कोई नेता जनता की नजरों में सर्वमान्य स्वीकार्यता बना पाया है, जैसा वर्तमान नेतृत्व ने 2014 में बनाया था? क्या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बिना कोई गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बन सकता है और अगर नहीं, तो क्या बंगाल, तेलंगाना, यूपी, बिहार, कर्नाटक जैसे राज्यों में हितों का टकराव इस एकता को स्वत: नहीं तोड़ेगा?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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