राष्ट्रीय बालिका दिवस: जिद और जीवटता से जंग जीतने वाली बेटियों की फिल्में
बेटियां इन दिनों चर्चा में हैं. भारतीय समाज में सामाजिक और कानूनी दोनों ही नज़रिए से माना जाता रहा है
शकील खान बेटियां इन दिनों चर्चा में हैं. भारतीय समाज में सामाजिक और कानूनी दोनों ही नज़रिए से माना जाता रहा है कि 'शादी के बाद बेटियां पिता के परिवार की नहीं, बल्कि पति के परिवार की हो जाती हैं.' राजस्थान हाईकोर्ट की एक टिप्पणी इस मान्यता को खारिज करती है. हाल ही में दिए गए हाईकोर्ट के एक निर्णय के अनुसार, विवाहित बेटी को भी पिता की जगह अनुकंपा नौकरी पाने का हक है. यानि बेटी-बेटे बराबर हैं. बेटियां एक और कारण से चर्चा में हैं – बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' की केंद्र सरकार की योजना पर दिया गया एक वक्तव्य. बहरहाल, बेटियों पर बात करने का एक अवसर हमें 24 जनवरी भी देती है.
24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस है, इसकी शुरूआत महिला एवं बाल विकास, भारत सरकार ने वर्ष 2008 में की थी. 2019 में इसे 'एंपावरिंग गर्ल फॉर ए ब्राइटर टुमारो' की थीम के साथ मनाया गया था. इस मौके पर महिलाओं पर केंद्रित फिल्मों की बात. विपरीत परिस्थितियों में जीत का परचम फहराने वाली, अपनी जिद और जीवटता से जंग जीतने वाली बेटियों की अनुकरणीय फिल्मी कहानियां.
इस विषय पर फिल्मों की बात करें करें तो सबसे पहले नाम आता है, बॉलीवुड की ब्लॉक बस्टर मूवी 'दंगल' का. आमिर खान द्वारा निर्मित और अभिनीत तथा नितेश तिवारी द्वारा निर्देशित यह फिल्म हरियाणवी पहलवान महावीर सिंह फोगट और उनकी दो लड़कियों गीता और बबीता के जीवन पर केंद्रित थी.
23 दिसंबर 2016 को रिलीज़ हुई दंगल की सबसे बड़ी खासियत क्या थी? जवाब में फिल्म की तारीफ के कसीदे तो पढ़े ही जाते हैं, यह भी कहा जाता है कि यह एक रिकार्ड तोड़ और व्यावसायिक रूप से अत्यंत सफल फिल्म थी. रिलीज़ वर्ष में सर्वाधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी, छठी सबसे अधिक कमाई करने वाली गैर अंग्रेजी फिल्म थी. देश की शीर्ष सबसे अधिक कमाई करने वाली बीस फिल्मों में शामिल थी और चीन में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली गैर अंग्रेजी विदेशी फिल्म भी थी.
ठीक है, लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात, ज्यादा खास बात ये है कि इसमें उस हरियाणा स्टेट की बेटियों की कहानी है, बेटियों के पिता की कहानी है, जहां महिला-पुरूष का सेक्स रेशियो 830:1000 है. जहां सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या होती है. ऑनर किलिंग जहां की पहचान है, वहां एक सामान्य सा देहाती आदमी अपनी लड़कियों को पुरूषों के साथ दंगल में उतारने की हिम्मत करता है, उन्हें पुरूष पहलवानों से दो-दो हाथ करने की छूट देता है. गांव वालों और दूसरे लोगों के प्रबल विरोध के बावजूद अपनी लड़कियों को पहलवान बनाने की अपनी जिद को पूरा करता है.
हरियाणा के एक गांव में रहने वाले महावीर सिंह फोगट रोजी रोटी के चक्कर में पहलवान नहीं बन पाते, तो वो प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने बेटे को पहलवान बनाएंगे. उन्हें बेटा तो नहीं होता चार बेटियां हो जाती हैं. निराश महावीर को इन बेटियों में अपना बेटा तब नज़र आता है जब एक दिन गीता और बबीता अपने ऊपर फब्ती कसने वाले दो लड़कों की पिटाई कर देती हैं. महावीर उन्हें पहलवानी का प्रशिक्षण देता है और लड़कियों को दंगल में उतार देता है, जहां वो मेल पहलवानों को धूल चटा देती हैं. अपनी जीवटता के चलते वो महिला पहलवानों और महिला कुश्ती को सबसे ऊंचे मुकाम तक पहुंचा देती हैं. बता दें आमिर ने अपने टॉक शो 'सत्यमेव जयते' में गीता-बबीता का इंटरव्यू लिया था.
विषय पर अन्य उल्लेखनीय फिल्मों में 'मेरी कॉम', 'चक दे इंडिया' और गुरिंदर चड्ढा की इंग्लिश मूवी 'फुटबॅाल शुटबॅाल हाय रब्बा !' यानि 'बेंड इट लाइक बेकहम' शामिल की जा सकती हैं.
'चक दे इंडिया' हॉकी पर केंद्रित फिल्म थी. क्रिकेट के खुमार में गहरे डूबे भारतीय दर्शकों के लिए हॉकी पर फिल्म बनाना ही चैलेंजिंग था, उस पर महिला हाकी पर फिल्म तो सोसाइडल जैसा माना जाना चाहिए. लेकिन तारीफ करना होगी निर्माता आदित्य चौपड़ा, निर्देशक शिमित अमीन, लेखक जयदीप साहनी और शाहरूख खान की, जिन्होंने ये फिल्म करने का निर्णय लिया. शाहरूख ने इसमें अपनी चॅाकलेटी हीरो की इमेज के विपरीत गंभीर रोल किया और बढि़या अभिनय भी.
'हिंदुस्तान में वूमेन हॉकी न कुछ कर पाई है न कर पाएगी.' 'ये लोटा बेलन चलाने वाली भारतीय नारियां हैं. कहां ये निकर-विकर पहनकर दौड़ती फिरेंगी.' 'न स्पांशर है, न दर्शक है न टीवी चैनल है न मीडिया है.' 'ये लड़कियां तो चौकी-चूल्हा करती अच्छी लगती हैं.' ये वो संवाद हैं, जो फिल्म का एक प्रमुख पात्र बोलता नज़र आता है. यह पात्र फिल्म में भारतीय हाकी संघ के अध्यक्ष का रोल निभा रहा था जिसकी सहमति के बिना महिला हाकी टीम का, हाकी के महिला विश्व कप में भाग लेने विदेश जाना ही संभव ही नहीं. ऐसे विपरीत माहौल में यही चौका-चूल्हा करने वाली लड़कियां अंतत: देश को महिला हॉकी में सिरमौर बनाती हैं.
फिल्म में कथानक उतना महत्व नहीं रखता जितना फिल्म का स्क्रीनप्ले और उसका ट्रीटमेंट महत्व रखता है. 'चक दे' का कथानक भले ही कमजोर नहीं था लेकिन विषय ऐसा भी नहीं था कि बॉलीवुड की मंडी में आसानी से बिक जाए और दर्शकों को सिनेमाघर तक खींच लाए. लेकिन निर्देशक शमित अमीन ने अपने निर्देशकीय कौशल से इसे न सिर्फ ग्राह्य बनाया बल्कि इसे एक तेज रफ्तार मूवी में रूपांतरित भी किया. इसमें स्क्रीनराइटर जयदीप ने भरपूर मदद की. शिमित ने अनगढ़ कलाकार लड़कियों को न सिर्फ चार महीने तक हॉकी के गुर सिखाए बल्कि उन्हें अभिनय में पारंगत भी किया.
ऐसी फिल्मों में गानों की गुंजाइश मुश्किल से निकलती है. फिर भी फिल्म में गाने थे और कमाल के थे. संगीतकार जोड़ी सलीम-सुलेमान बढि़या बैक ग्राउंड स्कोर तो किया ही गाने भी बढि़या बनाए. बोल जयदीप साहनी के थे. ' 'बादल पे पांव हैं' 'एक हॉकी दूंगी रख के' और 'मौला, मेरे मौला, ले ले मेरी जान' फिल्म के पापुलर गीत थे. शीर्षक गीत 'चके दे इंडिया' तो लाजवाब था. संगीतकार सलीम मर्चेंट कहते हैं 'चक दे इंडिया' तो लगभग देश का खेल गान बन गया है, खासकर भारत के क्रिकेट का विश्व कप 2011 जीतने के बाद. यह अब हमारा गीत नहीं, बल्कि देश का गीत था. विश्व कप जीत के बाद भारतीय टीम के खिलाड़ी विराट कोहली ने भीड़ के लिए 'चक दे इंडिया' गाया था, जब भारत ने विश्व कप में दक्षिण अफ्रीका को हराया था.
फिल्म में एक पात्र है प्रीति सब्बरवाल ((सागरिका घाटगे, क्रिकेटर ज़हीर की बीवी). प्रीति का मंगेतर हिंदुस्तान की क्रिकेट टीम का खिलाड़ी है. प्रीति से शादी करने के लिए (या किसी और कारण से) वह उसे हाकी छोड़ने के लिए कहता है और चाहता है कि वो वर्ल्ड कप में भाग लेने विदेश नही जाए. हाकी का मजाक उड़ाते हुए कहता है 'तुम हाकी के लिए मुझे छोड़ रही हो.' प्रीति कहती है, हां, और उसे छोड़ देती है. बाद में जब टीम महिला हाकी का विश्व कप जीतकर इंडिया लौटती है तो मंगेतर उसे लेने एयरपोर्ट आता है. फिल्म में हॉकी कोच का एक संवाद है जो हाकी और क्रिकेट के संबंधों को उजागर करता है, 'हॉकी में छक्का नहीं होता.'
'मेरी कॉम' 2014 की फिल्म है जो चर्चित भी थी और सफल भी. यह फिल्म बॉक्सर मैरी कॉम के जीवन पर आधारित है फिल्म 2008 की महिला विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में उनकी जीत की यात्रा को दर्शाती है. साईविन क्वाड्रासो द्वारा लिखित और ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित इस स्पोर्ट्स मूवी में मैरीकॉम की भूमिका प्रियंका चौपड़ा ने निभाई थी. फिल्म का निर्माण वायकाम 18 मोशन पिक्चर्स और संजय लीला भंसाली ने किया था.
बेटियों की बात चल रही है तो एक गंभीर फिल्म की चर्चा भी करते चलें. 'कजरिया' कन्या भ्रूण हत्या की पड़ताल करने वाली एक जरूरी और प्रभावी फिल्म है. यह गांव की औरत की कहानी भी कहती है और शहरी लड़की की बात भी करती है. एक गंभीर विषय को उठाने वाली फिल्म को थ्रिलर के रूप में पेश किया गया है, इसलिए दर्शकों तक अपनी बात सहज संप्रेषित करती है. कथानक में नयापन है, स्क्रिप्ट में कसावट है और निर्देशक की फिल्म पर मजबूत पकड़ है.
'कजरिया' गांव के प्रभावशाली लोगों के हाथों की कठपुतली है जो उसके माध्यम से गांव में अंधविश्वास फैलाकर अपनी दूकान चलाते हैं, और कजरिया के हाथों नवजात कन्याओं की क्रूर हत्या करवाई जाती है. बेटे की चाह वाले भक्तों की नवजात कन्याओं की हत्या करने की दोषी कजरिया को माना जाता है, जो काली का अवतार बनकर इस काम को अंजाम देती है. फिल्म का लेखन-निर्देशन मधुलिका आनंद ने किया है. कजरी की भूमिका मीनू हुड्डा ने निभाई है. कजरी के केरेक्टर को डिस्क्राइब करते हुए मधुलिका एक किस्सा सुनाती हैं और भ्रूण हत्या करने वाली एक दाई को उद्ध्ृत करते हुए कहती हैं 'मैं तो फांसी देने वाली जल्लाद भर हूं, आदेश देने वाले दूसरे हैं.'
यह फिल्म उन तीन भारतीय फिल्मों में शुमार थी जिन्हें 2013 में आयोजित दुबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में शामिल किया गया था. यहीं फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर हुआ था. भारत में फिल्म दिसंबर 2015 में रिलीज़ हुई थी. फिल्म को दुनिया भर में सराहना मिली थी. यह दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में न सिर्फ शामिल हुई बल्कि प्रशंसित भी हुई.
चलते-चलते फिल्म 'बेंड इट लाइक बेकहम' की बातें. इसके हिंदी वर्जन का नाम 'फुटबॉल शुटबॉल, हाय रब्बा !' है. यह चर्चित निर्देशिक गुरिंदर चड्ढा की फिल्म है. यह एक कॉमेडी ड्रामा फिल्म है जो 2002 में यूके में रिलीज़ हुई थी. इसका शीर्षक 'बेंड इट लाइक बेकहम' फुटबॉल खिलाड़ी डेविड बेकहम के उस कौशल के कारण रखा गया है जिसमें बेकहम डिफेंडरों की दीवार को भेदते हुए तिरछे होकर फ्री किक मारते थे और फुटबॉल को सीधे नेट (गोल) में पहुंचा देते थे.
मुख्य किरदार और फुटबॉल गर्ल जैस का रोल परमिंदर नागरा ने और उसके पिता का रोल अनुपम खेर ने निभाया है. यह कहानी लंदन में रहने वाले सिख परिवार की एक लड़की जैस की कहानी है जो फुटबॉल से टूटकर प्रेम करती है. पर उसके परिवार के लोग, उसके फुटबॉलर बनने का विरोध करते हैं. तमाम विपरीत परिस्थितियों में जैस फुटबॉल के अपने ज़ुनून को पूरा करती है और अपनी फुटबाल विरोधी मां को सकारात्मक जवाब देती है, जिसकी फुटबॉल के बारे में सोच है, 'फुटबॉल शुटबॉल, हाय रब्बा !'.