सरकार के तराजू की कील
संपादक को लगभग सारे पुरस्कार मिल चुके थे, फिर भी वह चाहता था कि नए-नए निमंत्रण पर वह लगातार पुरस्कृत होता रहे
संपादक को लगभग सारे पुरस्कार मिल चुके थे, फिर भी वह चाहता था कि नए-नए निमंत्रण पर वह लगातार पुरस्कृत होता रहे। बड़े ही सक्रिय किस्म के संपादक थे, इसलिए सियासी महफिलों के आगे-पीछे घूमते रहते हैं। संपादक बनने से पहले वह बनाने का हुनर इस कद्र सीख चुके हैं कि सत्ता पक्ष को भी मानना पड़ा कि इन्हें साथ चलाने में कोई हर्ज नहीं। दरअसल संपादक का होना उसका चलना है, जैसे कवि होना उसका चलना है। संपादकों का चलना ही उनका इतिहास है। ऐसे कई मिल जाएंगे जो पहले मीडिया में थे नहीं, लेकिन चलते मीडिया में थे। पार्टियों के मीडिया प्रभारी और संपादक के बीच अब अंतर तब पैदा होता है, जब इनके बीच कोई चलता नहीं, वरना हर बहस में दोनों चल रहे होते हैं। बड़ा संपादक साबित होना अलग बात है, लेकिन स्थापित होने के लिए सरकार से सर्टिफिकेट चाहिए। जिसके घर में झाड़ू अगर सरकारी खर्च से न लगे या जो अपनी मुलाकातों में सियासत का नमक हलाल न करे, उसकी क्या औकात कि जीवन भर किसी पुरस्कार तक पहुंच पाए। पिछले दिनों एक संपादक मिल गए। दरअसल उनके वाहन पर जिस तरह लिखा गया था, उससे उनका परिचय खिल रहा था।
मंंदिर में आए तो दर्शन करने, लेकिन दर्शन देने पर उतारू थे, इसलिए सरकारी तामझाम में आरती हो रही थी। पूछने पर बोले कि वह तो सदा कर्म की पूजा करते हैं। वाकई कर्म तो अब पत्रकारिता में बचा है, वरना न सरकारें और न ही नौकरशाही कुछ कर रही है। वह मंदिर अधिकारी को सलाह दे रहे थे, 'यहां सेल्फी प्वाइंट बना देना चाहिए ताकि फोटो लेने के लिए दिक्कत न हो।' दरअसल संपादक के कहने पर ही मुख्यमंत्री कार्यालय में भी सेल्फी प्वाइंट बना दिया गया है। वहां 'सेल्फी' के कारण मीडिया खुद को मुख्यमंत्री के आसपास अपने ही फोटो में देख लेता है। संपादक और मुख्यमंत्री के बीच सेल्फी का रिश्ता इतना प्रगाढ़ प्रतीत होता है कि फेसबुक पर हर पोस्ट के हजारों दीवाने हैं। सच में एक अच्छा संपादक मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक को सेल्फी में बांध सकता है। संपादक अब आगे की सोच रहे हैं। उन्होंने सरकारों को यह राय दे दी है कि सदनों में प्रेस गैलरी के बजाय परिसरों में बाकायदा सेल्फी प्वाइंट बनाए जाएं। सेल्फी प्वाइंट से ही मीडिया का सोशल मीडिया में अवतरण संभव है। इसलिए अखबारें लिखी तो जा रही हैं, लेकिन पढ़ी सोशल मीडिया के बीचों-बीच ही जा रही हैं। अपने संपादक महोदय हर दिन को इवेंट बनाने के लिए कोई न कोई पोस्ट परवान चढ़ा देते हैं। दरअसल पत्रकारिता ही अब इवेंट में दिखाई देती है। मीडिया की सलामती के लिए पाठक ही खुद खबर लिखने लगा और संपादक की जेब से समाचार जिरह करने लगा। अब हमारे संपादक खबर का वजन जान गए हैं, इसलिए सरकारों ने तराजू रख लिए हैं।
मुख्यमंत्री कार्यालय और उनके आवास में मीडिया के लिए सबसे बड़ा साक्षात्कार यही तराजू करता है। उस दिन संपादक हैरान हो गए नई सरकार का तराजू उन्हें कम वजन में तोल रहा था। इससे पहले तो पिछली सरकार में उन्हें तराजू के बिना भी वजन बढ़ाने की छूट थी। वह मुख्यमंत्री से शिकायत करते हैं, 'संपादक का ही वजन घट गया, तो अखबार के अक्षर क्या करेंगे। टीवी के वस्त्र क्या करेंगे।' सरकार अब मीडिया की खुशहाली के लिए संपादकों पर अपना वजन डालने लगी है। तराजू पर ऐसी कील लगा दी गई है, जो पत्रकारिता के लिए पलड़ा झुका सकती है। प्रदेश में अब करिश्मा होने लगा है। उसी संपादक को वजनदार माना जाने लगा है, जो सरकार के कार्यालय में रखे तराजू की कील पर चढ़ सकता है। हमारे संपादक माहिर हो गए। अब उन्हें पाठक नहीं, सरकारों की कील चाहिए। हर बार सरकार के तराजू पर चढ़कर उसकी कील से घायल हो जाते हैं, लेकिन उफ तक नहीं करते। अखबार के शब्द मरहम बन गए, लेकिन संपादक ने अपने तलवे घायल करके भी कभी कड़वे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। सरकार के तराजू की कील तय कर रही है संपादक का वजन, लेकिन पत्रकारिता के पद घायल चिन्ह बनाते हुए भी खुशफहमी में हैं कि रक्त परीक्षण नहीं हो रहा।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक