म्यूजियमों को एक ऐसा जीवंत डायनैमिक स्पेस होना चाहिए, जो हमें एजुकेशन दे सके
अब जब कोविड का असर खत्म होता जा रहा है और देश के बड़े हिस्सों में सामान्य जनजीवन बहाल हो रहा है
शशि थरूर का कॉलम:
अब जब कोविड का असर खत्म होता जा रहा है और देश के बड़े हिस्सों में सामान्य जनजीवन बहाल हो रहा है, तो प्रश्न उठता है- क्या अब हमारे म्यूजियमों में और विजिटर्स आएंगे? मुझे संदेह है। कितनी अजीब बात है कि हमारी समृद्ध विरासत के बावजूद हमारे म्यूजियम इतने दर्शकों को नहीं आकर्षित कर पाते, जितने कि वे पश्चिमी देशों में करते हैं।
मिसाल के तौर पर, 2016 से 2018 के बीच हमारे नेशनल म्यूजियम में कुल 5.5 लाख विजिटर्स आए, जबकि न्यूयॉर्क के मेट्रोपोलिटन म्यूजियम में अकेले 2017 में 70 लाख विजिटर्स आए थे। बात केवल कोविड की नहीं है, म्यूजियमों में दर्शकों के कम आने के पीछे अनेक कारण हैं। एक अहम कारण तो सरकारों की उपेक्षा है। आप आज किसी भी भारतीय संग्रहालय में जाएं तो पाएंगे कि वहां की हालत खस्ता है।
वहां विजिटर्स के लिए पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता नहीं होती। स्कूली बच्चों को अकसर धूल भरे संग्रहालयों को देखने के लिए कतार में खड़ा देखा जा सकता है और वे इसमें पर्याप्त रुचि भी लेते हैं, लेकिन बहुतेरे भारतीयों के लिए किसी संग्रहालय में जाना कोई बहुत उत्साहजनक बात नहीं होती। वहां कलाकृतियां होती हैं, लेकिन वे बोलती नहीं।
उबाऊ कार्डों और सूचनापट्टों के द्वारा हमें जो सूचनाएं दी जाती हैं, क्या उनसे ज्यादा वे हमें कुछ बता पाती हैं कि वे किस चीज का प्रतिनिधित्व करती हैं और उनके काल में क्या हुआ था? संग्रहालयों में एक विरासत संजोई जाती है। उनमें लोगों और समाजों की कहानियां होती हैं, विचार और कल्पनाएं होती हैं। हम इसे साकार करने में नाकाम रहे हैं।
भारत के लोग रोम या लंदन या पेरिस (यहां तक कि अबूधाबी में भी) आर्ट गैलरियों के बाहर कतार में खड़े देखे जा सकते हैं, ताकि मोनालिसा को निहार सकें या किसी ईजिप्शियन ममी की झलक पा सकें और इन सुदूर देशों के इतिहास के बारे में कुछ जान सकें। लेकिन वे कभी कोलकाता के इंडियन म्यूजियम के बाहर ऐसे पंक्तिबद्ध नहीं दिखलाई देंगे।
यकीनन, दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे सराहा जाना चाहिए। जब मैंने अपनी किताब 'ब्रिटिश कलोनियलिज्म' का ब्रिटिश एडिशन 'इनग्लोरियस एम्पायर' के बेबाक शीर्षक से लॉन्च किया था तो मेरा एक इवेंट विक्टोरिया और एल्बर्ट म्यूजियम में हुआ था। मैं उसके डायरेक्टर से संवाद कर रहा था, जबकि मेरे सामने टीपू सुल्तान के प्रसिद्ध बाघ की कलाकृति थी।
यह एक ऐसी कृति है, जिसे मैं कोहिनूर की ही तरह फिर से भारत में देखना चाहूंगा। लेकिन अंग्रेजों के द्वारा हमसे इतना लूटने के बावजूद भारत में बहुत कुछ शेष रह गया है। इसके बावजूद म्यूजियमों के सामने मौजूद चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। संस्कृति मंत्रालय के द्वारा महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों में विलम्ब और बजट कटौती से इसमें मदद नहीं मिली है।
म्यूजियमों की विजिटर्स तक पहुंच भी एक समस्या रही है। अलबत्ता अनेक भाषाओं में ऑडियो गाइड्स के माध्यम से स्थिति को सुधारने के प्रयास किए गए हैं। यहीं पर ऑनलाइन म्यूजियमों का महत्व स्पष्ट होता है। आखिर म्यूजियम कोई एक इमारत भर नहीं हो सकते, उन्हें एक ऐसा जीवंत डायनैमिक स्पेस होना चाहिए, जो हमें एजुकेशन दे सके और नई कलाकृतियों की रचना के लिए प्रेरित कर सके।
म्यूजियम्स को ऑनलाइन बनाने से सारे जवाब मिल जाएंगे। टेक्नोलॉजी और आर्ट के मिलन से न सिर्फ भविष्य में हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय टिक पाएंगेे, बल्कि इससे हमारी बाद की पीढ़ियां भी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों से जुड़ने के साथ उनकी गहराई में उतरेंगी। आपस में संवाद, आसानी से पहुंच, सांस्कृतिक शिक्षा... यह सब आसान हो जाता है क्योंकि वर्चुअल म्यूजियम आपके घर तक यह सुविधा ले आता है।
डिजिटल टेक्नोलॉजी के साथ आर्ट हिस्ट्री जीवंत हो उठती है। आज बेहतर संरक्षण और मरम्मत की सटीक तकनीकों के लिए लेजर तकनीकों और 3डी-इमेजिंग जैसे तरीकों का उपयोग किया जा रहा है। वर्चुअल रिएलिटी और ऑगमेंटेड रिएलिटी जैसी टेक्नोलॉजी प्रदर्शनियों को सजीव बना रही हैं।
खाड़ी देशों या अमेरिका में रहने वाले एनआरआई परिवार भी भारत की समृद्ध परंपराओं तक इस पहुंच के साथ अपने बच्चों की परवरिश कर सकते हैं। अपने संग्रहालयों को बचाएं, उन्हें ऑनलाइन ले जाएं। आज संरक्षण और मरम्मत के लिए लेजर तकनीकों और 3डी-इमेजिंग जैसे तरीकों का उपयोग किया जा रहा है। वर्चुअल रिएलिटी और ऑगमेंटेड रिएलिटी जैसी टेक्नोलॉजी प्रदर्शनियों को सजीव बना रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)