नवम्बर 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाईकोर्ट के एक फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा पहले से प्रमाणित फिल्मों के संबंध में केन्द्र की निगरानी शक्तियों को रद्द कर दिया गया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कहा है कि नए अधिनियम की धारा 5 (बी) के उल्लंघन पर केन्द्र सरकार को पुनर्निरीक्षण शक्तियां देने का प्रावधान जोड़ना चाहता है। मसौदे में कहा गया है क्योंकि धारा 5 बी (1) के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 17 (2) से लिए गए हैं और यदि केन्द्र सरकार को कोई शिकायत मिलती है तो केन्द्र सैंसर बोर्ड के चेयरमैन को फिल्मो के दोबारा मूल्यांकन करने का निर्देश दे सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि फिल्म सैंसर बोर्ड वह प्रतिष्ठा नहीं रही जो कभी पहले थी। सैंसर बोर्ड कभी फिल्मो में भारतीय संस्कृति पर कोई भी आक्षेप सहन नहीं करता था लेकिन अब उसने सारी हदें पार कर दी हैं। कई फिल्मों को लेकर विवाद भी खड़े हुए। जुलाई 2002 में विजय आनंद ने सैंसर बोर्ड का अध्यक्ष पद छोड़ते हुए कहा था की सैंसर बोर्ड की कोई जरूरत नहीं। यही बात सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने भी दूसरे तरीके से कही थी।
फिल्म सैंसर बोर्ड पर सवाल भी उठे कि वह राजनीित से प्रभावित होकर कई फिल्मों में अनावश्यक काट-छांट करता है, इससे कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा कैसे हो सकेगी। क्या वजह है की भारत में भावनाओं पर सबसे ज्यादा चोट हमारे देश में लगती है। किसी भी समुदाय की धार्मिक और अन्य भावनाओं को चोट के नाम पर फिल्मो पर बवाल खड़ा कर दिया जाता है, सिनेमाघर जलाए और तोड़े जाते हैं। सबसे ज्यादा पुस्तकें भारत में बैन की गईं। संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ विवेक सम्मन पाबंदियां भी हैं। उन बंदिशों की स्पष्ट व्याख्या भी है। कई राजनीतिक विषयों पर बनी फिल्मो पर भी बवाल मचता रहा है। जहां तक फिल्मों में अश्लीलता परोसने की बात है, वह अब सारी सीमाएं तोड़ चुकी है। सैंसर बोर्ड भी फिल्म निर्माताओं की इस धारणा के अनुरूप काम करता दिखाई देता है कि 'सैक्स और हिंसा' ही बिकती है। ए ग्रेड की फिल्म हो या बी, सी ग्रेड की फिल्म कई बार तो किसी फिल्म को परिवार के साथ देखा ही नहीं जा सकता। ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक और फिल्मो ने तो सारी वर्जनाएं तोड़ दी हैं।
सैंसर बोर्ड के सदस्यों का कहना है कि अर्धशिक्षित समाज में सैंसरशिप जरूरी है, नहीं तो बात मार-काट तक पहुंच जाएगी। कुछ भी गलत होने पर कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती है लेकिन 21वीं सदी के सूचना प्रौद्योगिकी युग में हर हाथ में मोबाइल की स्क्रीन पर होते हुए उनका कथन और गैर जरूरी लगता है। बेहतर यही होगा कि फिल्मों का आयु के हिसाब से वर्गीकरण तय किया जाए और विदेशों की तर्ज पर उनके टीवी चैनलों पर प्रसारण का समय भी तय किया जाए। जिन फिल्मो को सैंसर बोर्ड ने बैन किया फिर भी लोगों ने वह फिल्म देखी। बेहतर होगा की ऐसी कोई ठोस व्यवस्था की जाए जिसमें परोसी जा रही सामग्री पर निगरानी रहे। फिल्मों को यू/ए 7+, यू/ए 13 और यू/ए 16+ के लिए भी विभाजित किया जाना चाहिए। कहीं न कहीं हद तो तय करनी पड़ेगी। इसलिए उचित कानून बनाकर केन्द्र सरकार को फिल्मों की दोबारा समीक्षा का अधिकार मिलना ही चाहिए। जहां तक पायरेसी का सवाल है, उसको जेल भेजने लायक दंडनीय बनाना एक अच्छी पहल है।