मुरादाबाद : देशभक्त सूफी अम्बा प्रसाद की कब्र ईरान में, कायस्थान मुहल्ले में थी उनकी रिहाइश और छापाखाना

उन्हें विस्मृत करते रहे। मुरादाबाद के रेलवे स्टेशन पर भी सूफी जी का कोई चित्र नहीं है।

Update: 2022-05-06 01:47 GMT

मुरादाबाद शहर के कायस्थान मुहल्ले में मैं उस घर के सामने खड़ा हूं, जिसमें देशभक्त सूफी अम्बा प्रसाद की रिहाइश और उनका छापाखाना था। वह यहीं पैदा हुए थे। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ कलाई से गायब था। बड़े होने पर जब वह क्रांतिकारी बने, तो मजाक में कहा करते थे कि मैं सत्तावनी संग्राम में लड़ा था, जिसमें दायां हाथ कट गया। पुनर्जन्म हुआ, तो हाथ कटे का कटा रह गया। उनका जन्म भी 'गदर' के ठीक एक साल बाद हुआ था। अम्बाप्रसाद बम या पिस्तौल चलाने वाले क्रांतिकारी नहीं थे।

उनकी खूबी यह थी कि वह वकालत की उच्च शिक्षा प्राप्त कर पत्रकार के रूप में राजनीति में आए और लेखनी के बल पर देशभक्ति की भावनाओं का संचार करते रहे। वर्ष 1890 में मुरादाबाद से उन्होंने जामुल इलूम उर्दू साप्ताहिक का प्रकाशन किया। वह गुजरांवाला से प्रकाशित होने वाले इंडिया और पेशावर से छपने वाले इन्कलाब पत्रों में अपने लेख लिखा करते थे, और लाहौर में हिंदुस्तान के सह-संपादक भी रहे। नहीं पता कि जिंदगी और लोगों ने कब अम्बा प्रसाद को सूफी नाम सौंप दिया। पर आगे चलकर वह 'देशभक्त आका सूफी' कहे जाने लगे।
हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक सूफी जी जब ब्रिटिश सरकार के लिए सिरदर्द बन गए, तो उन्हें कई बार लंबी-लंबी सजाएं देकर जेल में भी डाला गया। फरारी के दिनों में उनके छिपकर बच निकलने के किस्से भी बहुत मशहूर हैं। वह 'भारतमाता सोसाइटी' के प्रमुख सदस्य थे, जिनमें सरदार अजीत सिंह, लालचंद फलक, ईशरी प्रसाद और अमर नाथ पाराशर जैसे लोग थे।सूफी जी शहीद भगत सिंह के चाचा क्रांतिकारी अजीत सिंह और लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने तिलक के भाषणों का अनुवाद भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था।
सूफी जी एक बार नेपाल में गिरफ्तार कर लाहौर लाए गए, लेकिन निर्दोष सिद्ध होने पर उन्हें छोड़ दिया गया। बाद में लाहौर में उनकी गतिविधियां निरंतर तेज होती चली गईं। उन्होंने वहां से पेशवा नामक अखबार का प्रकाशन शुरू किया, तो सरकार बहुत चिंतित हुई। उन दिनों बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी विपिन चंद्र पाल के जेल से छूटने पर सूफी जी ने उनके सम्मान में एक विशाल जलसे का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने पंजाब की जनता से क्रांति के लिए उठ खड़े होने का आह्वान किया था।
सरकार को भय पैदा हुआ कि कहीं बंगाल की तरह पंजाब में भी लोग विप्लव की राह पर न चल पड़ें। सरकार ने सूफी जी पर हाथ डालना तय किया, लेकिन वह इससे पहले ही लाला हरदयाल के साथ ईरान चले गए। सूफी जी फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। ईरान पहुंचकर भी अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने अपना प्रचारजारी रखा। थोड़े समय में ही उन्होंने वहां भारत के पक्ष में वातावरण तैयार कर लिया और वह ईरान के लोकप्रिय व्यक्ति बन गए। वहां रहकर सूफी जी ने मोहिवाने वतन पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने ईरान के क्रांतिकारियों की कहानी लिपिबद्ध की थी।
आबे हयात नाम से फारसी अखबार भी उन्होंने निकाला। तब तक उनकी गिरफ्तारी का जाल बुना जा चुका था। पकड़े जाने पर उन्हें मौत की सजा तजवीज की गई। पर अगले दिन जब कोठरी खोली गई, तो सूफी जी मृत पाए गए। ईरान में उनकी शवयात्रा में अश्रुपूरित नयनों से हजारों लोग सम्मिलित हुए। सुना है कि शिराज में उनकी कब्र आज भी मौजूद है, जहां प्रतिवर्ष मेला लगता है। उनकी समाधि पर लिखा हुआ है-देशभक्त हिंदुस्तानी आका सूफी।'
सूफी जी की बलिदानी पत्रकारिता से प्रेरणा लेकर बाद में शांतिनारायण भटनागर ने संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में उर्दू साप्ताहिक स्वराज्य का प्रकाशन किया, जिसके एक के बाद एक आठ संपादक कालापानी गए और नौवें अमीरचंद बम्बवाल फरार घोषित हुए। इस पत्र के संपादक लद्धाराम ने एक समय सूफी जी की यादों को लिपिबद्ध किया था। लाला हरदयाल और सूफी जी में यह तय हुआ था कि हरदयाल दूर देशों में पश्चिम को जाएं और सूफी जी फारस पहुंचकर विदेशों में हिंदुस्तान की आजादी की भावना को लोकप्रिय बना सकें।
हरदयाल यूरोप रवाना हो गए और सूफी जी अजीत सिंह के साथ फारस। भगत सिंह सूफी जी से अत्यंत प्रभावित थे और उनका चित्र सदैव अपने पास रखा करते थे, जो उनके पिता ने दिया था। आगे चलकर भगत सिंह ने सूफी जी पर एक लेख भी लिखा। सूफी जी एक सेतु थे, जो 1857 के देशव्यापी प्रथम संग्राम और भगत सिंह के 'हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र संघ' के संघर्ष के मध्य हमें मजबूती से खड़े दिखाई देते हैं।सूफी अम्बा प्रसाद शहादत के मार्ग पर चले गए, पर उनके साथी लद्धाराम जैसे क्रांतिकारी देश की स्वतंत्रता के बाद तक जीवित रहे। जिन लद्धाराम को उनके सक्रिय और जीवंत व्यक्तित्व के लिए कभी क्रांतिकारियों के बीच 'फील्ड मार्शल' कहा जाता था, उन्होंने बाद में अपना समय बहुत बदहाली में व्यतीत किया।
यह जानकर पीड़ा से भर जाता हूं कि उनकेबच्चों ने कासगंज में रिक्शे चलाए। पीतल नगरी कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर में 'सूफी अम्बा प्रसाद मार्ग' का कभी एक पत्थर लगा था, जिसका अब अता-पता नहीं। उनके नाम पर कोई द्वार या बुत भी यहां नहीं है। उनके घर के ठीक सामने चबूतरे पर नगर निगम नेबहुत बेतुके ढंग से एक नल लगवा दिया, जो संपूर्ण परिदृश्य को विरूपित करता है। मुख्य दरवाजे के ऊपर बना उनका धुंधला-सा चित्र उनकी उपेक्षा का ही प्रमाण है, जिसके चलते इस शहर के लोग उन्हें विस्मृत करते रहे। मुरादाबाद के रेलवे स्टेशन पर भी सूफी जी का कोई चित्र नहीं है।

सोर्स: अमर उजाला 


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