एमआरपी की तर्ज पर किसानों के हितों की रक्षा के लिए फसलों पर लागू हो न्यूनतम आरक्षित मूल्य
हाल में बने तीन कृषि कानूनों के बाद किसानों की आय का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आया है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हाल में बने तीन कृषि कानूनों के बाद किसानों की आय का मुद्दा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आया है। देश में बीते छह दशक से ही किसान अपनी फसलों के सही दाम पाने के लिए संघर्षरत हैं। इसके चलते पिछली सदी के छठवें और सातवें दशक के दौरान की हरित क्रांति के समय उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का सरकारी आश्वासन मिला, पर यह लाभ दो-तीन राज्यों के कुछ ही किसानों को सिर्फ गेहूं और धान पर ही मिल पाता है। इनमें भी पंजाब और हरियाणा प्रमुख हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश के गेहूं उत्पादक किसान एमएसपी के लिए हरियाणा की मंडियों में फसल बेचने आते हैं। उत्तर प्रदेश में सरकारी एजेंसियां गेहूं और धान की खरीद ही नहीं करतीं और निजी खरीदार एमएसपी नहीं देते। कमोबेश यही हाल 2006 से एपीएमसी (कृषि उत्पाद बाजार समिति) एक्ट खत्म करने वाले बिहार का है। इस साल रबी सीजन में राज्य सरकार द्वारा एक फीसद से भी कम गेहूं की खरीद किए जाने के चलते वहां के किसानों ने एमएसपी से 400 रुपये प्रति क्विंटल कम पर अपनी फसल बेची।
पंजाब और हरियाणा सरकार द्वारा एपीएमसी नियंत्रित मंडी व्यवस्था के परिणामस्वरूप यहां 90 फीसद से अधिक गेहूं और 70 फीसद धान एमएसपी पर सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदे जा रहे हैं, जिसके चलते यहां के किसान गेहूं उत्पादन के बंपर रिकॉर्ड स्थापित कर रहे हैं, पर कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (सवंर्धन एवं सरलीकरण) अधिनियम से यहां के किसान एमएसपी को लेकर आशंकित हैं। किसानों को लगता है कि एमएसपी की जिम्मेदारी से भागने वाली सरकार उन्हें निजी बाजार के हवाले करने जा रही है। सरकारी मंडियों के बाहर निजी बाजार पर सरकार का नियंत्रण नहीं है।
शांता कुमार कमेटी में कहा गया सिर्फ छह फीसद किसानों को मिल रहा एमएसपी
वास्तव में गेहूं एवं धान की सरकारी खरीद के लिए एमएसपी अभी तक केवल सरकारी फरमान ही है। तमाम फसलों में से सिर्फ 23 फसलें ही एमएसपी के दायरे में हैं। 2015 में संसद में पेश की गई शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि सिर्फ छह फीसद किसानों को ही एमएसपी मिल रहा है। जाहिर है 94 फीसद किसान निजी बाजार के हवाले हैं। पंजाब के मालवा इलाके की सरकारी मंडियों में कपास 4400 से 4600 रुपये क्विंटल बिक रहा है, जबकि एमएसपी 5515 से 5825 रुपये क्विंटल तय है। मानसा जिले की बरेटा मंडी के एक किसान की मानें तो कपास पर उसकी प्रति क्विंटल लागत 3700-4100 रुपये बैठ रही है, बाकी खर्च अलग है। मुश्किल से उन्हें 400-500 रुपये प्रति क्विंटल कमाई हो पाती है। दोआबा की मंडियों में मक्का 1850 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी के बजाय 800-1000 रुपये प्रति क्विंटल पर बिक रहा है। वहां के मक्का उत्पादक किसान भी भारी नुकसान से परेशान हैं।
60 बरस पुरानी पंजाब की मंडियों का अस्तित्व खतरे में पड़ना तय
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य अधिनियम को लेकर केंद्र सरकार का दावा है कि इससे किसानों को उनकी उपज का बेहतर दाम मिलेगा। एपीएमसी मंडियों के बाहर खरीद पर मार्केट फीस और आढ़ती कमीशन लागू नहीं होगा। जब खरीदार को करीब 8.5 फीसद मार्केट फीस और आढ़ती कमीशन की बचत होगी तो वह सरकारी मंडियों से बाहर ही खरीद करेगा। इससे 60 बरस पुरानी पंजाब की मंडियों का अस्तित्व खतरे में पड़ना तय है। कमीशन की कमाई खोने से खौफजदा आढ़ती तो बड़ी कंपनियों के खरीद एजेंट बन खुद को सुरक्षित कर लेंगे, पर मंडी बोर्ड और बाजार समिति के हजारों कर्मचारियों के वेतन, ग्रामीण इलाकों की सड़कों का विकास और प्राकृतिक आपदा में फसलों के नुकसान के मुआवजे खतरे में पड़ जाएंगे, जो मंडियों से सरकार को सालाना 4000 करोड़ रुपये की कर कमाई से दिया जाता है। आखिर जब उत्पाद निर्माता पर लागू होने वाला अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) ग्राहक का कानूनी अधिकार है तो फसलों का न्यूनतम आरक्षित मूल्य किसान का कानूनी अधिकार क्यों नहीं है?
2003 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार के समय हुई थी एपीएमसी एक्ट में संशोधन की शुरुआत
उपभोक्ता कानून के तहत सरकार उपभोक्ताओं पर एमआरपी लागू करती है। इसी तर्ज पर अब किसानों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए फसलों पर भी एमएसपी के बजाय एमआरपी लागू हो। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने भी किसानों को एमएसपी बतौर कानूनी अधिकार देने के निर्देश केंद्र सरकार को दिए हैं। कृषि लागत एवं मूल्य कमेटी ने भी अपनी ताजा रिपोर्ट में एमएसपी को किसानों का अधिकार बनाने की वकालत की है। एपीएमसी एक्ट में संशोधन की शुरुआत 2003 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार के समय हुई थी। एक्ट में संशोधन से किसानों के पास फसलें बेचने के दो विकल्प थे-सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियां और अनियंत्रित खुले बाजार। अब नए कानून से पहला विकल्प खतरे में है और किसानों के पास केवल दूसरा विकल्प बचेगा। फिर किसान पूरी तरह से अनिंयत्रित बाजार के हवाले होंगे। यूरोपीय देशों और अमेरिका के किसानों के लिए पिछले छह दशक से निजी बाजार खुले हैं। ये इतने ही अच्छे होते तो वहां के किसान मुश्किल में न होते। वहां की सरकारें एक किसान को औसतन 60,000 अमेरिकी डॉलर सालाना सब्सिडी देती हैं, जबकि भारतीय किसान को औसतन 175 अमेरिकी डॉलर सब्सिडी मिलती है।
कुल मिलाकर फसलों का न्यूनतम आरक्षित मूल्य निर्धारित हो और सरकारी एजेंसियां इसे सरकारी मंडियों के बाहर भी सुनिश्चित करें। खुले बाजार में इससे कम भाव किसानों को न मिले। कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य अधिनियम को किसानों के हित में प्रभावी बनाने के लिए एपीएमसी निंयत्रित सरकारी मंडियों और खुले बाजार में निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा हो, इसके लिए निजी बाजार भी राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रित हों। मंडी एवं निजी बाजार ऐसे दाम सुनिश्चित करें, जिससे किसानों की लागत निकलने के साथ कमाई भी हो।