गुरु-चेले का संबंध बड़ा संवेदनशील
हालांकि गुरु-चेले का संबंध बड़ा संवेदनशील और बेहद आपसी मसला है, पर चेलों के बारे में जानना जरूरी है। इनके ऊपर अभी तक कोई विस्तृत शोध नहीं हुआ है। इस वजह से उनकी तमाम विशेषताओं से अधिकतर गुरु अनजान रहते हैं और गच्चा खा जाते हैं। साहित्य में सफल गुरु बनने के लिए जरूरी है कि चेलहाई के सारे दांव-पेच आने चाहिए। यह तभी संभव है, जब वह खुद विशुद्ध चेला रहा हो। जितना घुटा और खालिस चेला होता है, आगे चलकर वह उतना ही शातिर गुरु बनता है। असल चेला तो वही है, जो गुरु को उसके ही अखाड़े में पछाड़ दे। हमारे एक प्रसिद्ध गुरु का कहना था, 'पहले एक छोटे अखाड़े में प्रवेश करिए। अपने गुरु की सेवा कर दो-चार पैंतरे सीखिए और फिर दांव पाते ही सबसे पहले गुरु को ही चित्त कर दीजिये।' ज्ञानी जन इसे गुरुद्रोह नहीं कहते। इससे गुरु को वास्तविक मुक्ति मिलती है; साहित्य से भी और इस भौतिक संसार से भी। जो वाकई में 'गुरु' होते हैं, वे ऐसे चेलों के इरादे पहले ही भांप लेते हैं। अपने चेले से वे हमेशा सतर्क रहते हैं। उनमें गुरुदक्षिणा की लालसा भी नहीं बचती।
चेलहाई का काम सबसे कठिन
चेलहाई का काम सबसे कठिन होता है। अपने मनोरथ दबाकर गुरु जी पर फोकस करना पड़ता है। चेला गुरु जी का 'साहित्यिक-स्टाल' चलाता है, मजूरी में उसे साहित्य का हर 'सम्मान' मिलता है। चेला जब तक ठीक-ठाक नहीं लिखता-पढ़ता, गुरुजी का आशीष बना रहता है। जैसे ही चेले का साक्षात्कार अच्छे लेखन से होता है, उसके बुरे दिन शुरू हो जाते हैं। गुरु के होते और किसी की प्रशंसा करना महापाप है। इससे गुरु तो कुपित होते ही हैं, साहित्य के सारे पुण्यों, सम्मानों से वह वंचित हो जाता है। ऐसे चेले अधम कोटि की श्रेणी में आते हैं।
गुरुदक्षिणा मिलने का समय आ गया
चोटी का चेला किसी-किसी को ही नसीब होता है। ऐसा चेला गुरु के जीते जी अपने सारे सपने पूरे कर लेता है। गुरु द्वारा अर्जित की गई हर तरह की संपत्ति पर उसका 'वैध' अधिकार होता है। इसके लिए उसे गुरु की आज्ञा भी नहीं लेनी पड़ती। गुरु जी के लिए यह साफ संदेश होता है कि अब गुरुदक्षिणा मिलने का समय करीब आ गया है। इस तरह दोनों को मुक्ति मिलती है।
चेलों की 'लंपट कोटि'
चेलों की एक 'लंपट कोटि' भी है, जो आजकल तेजी से बढ़ रही है। इनके 'इनबाक्स' हमेशा ओवरफ्लो रहते हैं, जबकि बेचारे गुरु जी एक-एक कमेंट को तरसते हैं। ऐसे तत्व गुरु जी को गोष्ठियों के बजाय इंटरनेट मीडिया में घेरते हैं। उनकी 'अमृत-वाणी' पर सवाल उठाते हैं। गुरु जी की नई किताब बेचने से इन्कार कर देते हैं। नामुराद गुरु की कविता में छंद-दोष निकालते हैं। व्यंग्य में 'सरकार' और 'सरोकार' ढूंढ़ते-फिरते हैं। गुरु फिर भी 'गुरु' ठहरे। ऐसे चेलों का इलाज अपने पास रखते हैं। बचा हुआ मंत्र फूंक देते हैं। कभी हर किताब की पन्नी काटने वाले कन्नी काटने लगते हैं। असभ्य चेलों के नाम सभी 'सम्मान-सूचियों' से आदर के साथ यह कहकर कटवा देते हैं कि ये इतने छोटे सम्मान के योग्य नहीं। इसका असर यह होता है कि फिर किसी को गुरु जी के 'प्रिय' चेले को सम्मानित करने की हिम्मत नहीं होती। गुरुओं को इस हालत में लाने वाले ऐसे चेलों का कभी भी कल्याण नहीं हो सकता।