आदित्य नारायण चोपड़ा: स्वतन्त्र भारत का इतिहास गवाह है कि जब-जब भी इस देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था की जनमूलक शासन प्रणाली को खतरा पैदा हुआ है, तब-तब इस देश की न्यायपालिका ने खड़े होकर संविधान का शासन स्थापित करने की पहल की है। केवल इमरजेंसी का 18 महीने का समय ऐसा जरूर कहा जा सकता है जब स्वयं न्यायपालिका मूक हो गई थी। इस अवधि को छोड़ कर न्यायपालिका में बैठे न्यायमूर्तियों ने संविधान को सर्वोपरि रखते हुए आम लोगों को उनके प्रजातान्त्रिक अधिकार देने में कभी कोई चूक नहीं की। बेशक कुछ अपवाद हो सकते हैं मगर सम्पूर्णता में यही कहा जायेगा कि न्यायपालिका ने लोकतन्त्र के आधार ‘लोक’ अर्थात लोगों के मान-सम्मान की रक्षा के लिए संविधान में दिये गये उनके अधिकारों की सर्वदा सुरक्षा की और तय किया कि लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें सर्वप्रथम उन्ही के कल्याण व हित के लिए निर्णय करें और काम करें। मणिपुर के मामले में हम देख रहे हैं कि यहां की मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाओं का सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकारों को चेतावनी दी कि वे आवश्यक कदम उठायें वरना मजबूर होकर उन्हें कार्रवाई करनी पड़ेगी। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने जिस तरह पूरे देश के लोगों को चेताया है कि मिणपुर जैसी घटनाएं किसी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकतीं उसी से इस राज्य के मुख्यमन्त्री एन. बीरेन सिंह को एहसास होना चाहिए था कि उन्होंने अपने राज्य के लोगों का मुखिया होने का हक खो दिया है और उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर जिस आदमी की नाक के नीचे पुलिस के साये में मणिपुर में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके लोगों की भीड़ ने पैदल घुमाया और उन्हें खेतों में खदेड़ कर जिस तरह एक युवा स्त्री के साथ सामूहिक बलात्कार किया, उसे यह मुख्यमन्त्री सामान्य कानून-व्यवस्था का मामला मान रहा है और अपने प्रदेश में अपने शासन के दौरान ही दो जनजातियों के आपसी गृहयुद्ध को होता देख रहा है उससे लगता है कि यह सारा काम उसकी सरकार के संरक्षण में ही हुआ। अब तो इस बारे में एक पक्का सबूत भी सामने आ गया है। जिन दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया उनमें से कम वय की एक युवती ने एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार को बताया है कि भीड़ के हवाले उसे खुद पुलिस द्वारा ही किया गया। क्या इससे अधिक संवैधानिक व्यवस्था के समाप्त हो जाने का कोई और प्रमाण मिलेगा। संविधान का शासन देखना न्यायपालिका का काम होता है क्योंकि हर राज्य की सरकार और उसके चुने हुए प्रतिनििध संविधान की कसम उठा कर ही अपना काम शुरू करते हैं और भारतीय लोकतन्त्र में पुलिस भी संविधान से ही बन्धी होती है। मगर क्या कयामत बरपा हो रही है कि मणिपुर में पुलिस थानों से ही हथियार लूटे जा रहे हैं और इनका प्रयोग प्रदेश की जनजातियों के समूह एक-दूसरे के खिलाफ कर रहे हैं। क्या हम इसे कानून- व्यवस्था की समस्या कहेंगे? मणिपुर की जनता के साथ यह सरासर अन्याय कहा जायेगा क्योंकि अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए अपने वोट की ताकत से राज्य में चुनी हुई सरकार स्थापित की थी। इस सरकार का काम राज्य की जनजातीय समस्या का हल करना था मगर इसने तो उल्टा इस समस्या को गृहयुद्ध जैसा बना दिया। क्या समाज के दो समुदायों को एक- दूसरे का जानी दुश्मन बना कर किसी राज्य में कानून का शासन स्थापित हो सकता है? आपसी दुश्मनी निकालने के लिए जिस तरह महिलाओं को लक्ष्य करके उनके साथ पैशाचिक कृत्य किया गया क्या उसे कोई भी सभ्य देश बर्दाश्त कर सकता है। हम अपने समाज को क्या बना रहे हैं ? राजनीति का पहला काम जनता को सभ्य बनाना होता है और सभ्यता भाईचारे को बढ़ावा देती है। लेकिन देखिये संसद में क्या हो रहा है? दो दिन बीत गये मगर मणिपुर जैसे भयावह मुद्दे पर चर्चा ही नहीं हो पा रही है और सत्ता व विपक्ष को संसद के दोनों सदनों के सभापतियों ने इस विषय पर उलझा रखा है कि चर्चा किस नियम के अन्तर्गत हो। राष्ट्र को झकझोर कर देने वाली घटना जब भारत के किसी भी भाग होती है तो विपक्ष का ही यह दायित्व बनता है कि वह सरकार को मजबूर करे कि वह उस विषय पर संसद में खुल कर चर्चा कराये। जब देश की सड़कों पर कोहराम मचा हुआ हो तो संसद कैसे चुप रह सकती है क्योंकि वह इसी देश के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है। मगर दोनों सदनों बैठते हैं और स्थागित हो जाते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि चर्चा विपक्ष के दिये गये स्थगन प्रस्ताव या अन्य किसी कठोर नियम के तहत हो।