पांच साल की बच्ची के सामने मर्द अपने पैंट की जिप खोल सकते हैं, यह भी अपराध नहीं- बॉम्बे हाईकोर्ट
पिछले दिनों चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज से संबंधित बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का एक फैसला काफी सुर्खियों में रहा था
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पिछले दिनों चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज से संबंधित बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का एक फैसला काफी सुर्खियों में रहा था, जिसमें जज पुष्पा गनेडीवाला ने कहा था कि "नाबालिग बच्ची की छातियों को कपड़े के ऊपर से छूना यौन अपराध नहीं है क्योंकि 'स्किन टू स्किन' टच नहीं हुआ है." यह केस एक 39 साल के आदमी द्वारा एक 12 साल की बच्ची के यौन उत्पीड़न का था, जिसमें निचली अदालत ने आरोपी को पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस, 2012) के सेक्शन 8 के तहत तीन साल के कारावास की सजा सुनाई थी.
जजमेंट के 5 दिन बाद जब अचानक यह केस और जज गनेडीवाला का अजीबोगरीब फैसला सोशल मीडिया पर ट्रेंड होने लगा, तब जाकर लोगों का इस पर ध्यान गया. जाहिरन विरोध की आवाज तो उठनी ही थी. विरोध इतना तीखा हुआ कि उच्चतम न्यायलय को भी इसका संज्ञान लेना पड़ा. भारत के अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में पेश करते हुए कहा कि यह 'बेहद विचित्र फैसला' है और यह 'एक खतरनाक मिसाल' पेश करेगा. इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर बेंच के फैसले पर रोक लगा दी
अब कानून के जानकार इस केस से सुर्खियों में आई जज पुष्पा गनेडीवाला के पुराने फैसलों की पड़ताल कर रहे हैं. इस विवादास्पद फैसले से चार दिन पहले 15 जनवरी, 2021 को जज गनेडीवाला ने चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज के एक दूसरे केस में ऐसा ही विचित्र फैसला सुनाया था, जिसमें उन्होंने कहा कि एक नाबालिग बच्ची (इस केस में जिसकी उम्र पांच साल है) का हाथ पकड़ना और अपने पैंट की जिप खोलना पॉक्सो कानून के तहत यौन हमला नहीं है, बल्कि भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ए के तहत सेक्सुअल हैरेसमेंट है. यह केस था 'लिबनस बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र,' जिसमें एक 50 साल के पुरुष पर एक 5 साल की छोटी बच्ची का यौन शोषण करने का आरोप था.
बच्ची की मां ने अदालत में गवाही दी थी कि अभियुक्त ने उसकी बेटी का हाथ पकड़ा हुआ था और उसके पैंट की जिप खुली थी. निचली अदालत ने इसे पांच साल की बच्ची के साथ गंभीर यौन अपराध मानते हुए अभियुक्त को पॉक्सो एक्ट की धारा 10 के तहत पांच साल के कारावास और 25,000 रु. जुर्माने की सजा सुनाई थी.
जब इस फैसले के खिलाफ अपील बॉम्बे हाईकोर्ट गई तो केस पहुंचा पुष्पा गनेडीवाला की सिंगल बेंच में. उन्होंने एक बार फिर निचली अदालत के फैसले को पलट दिया. अपने फैसले में जज गनेडीवाला ने कहा-
"बच्ची का सिर्फ हाथ पकड़ना और अपने पैंट की जिप खोलना पॉक्सो के तहत आपराधिक यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता."
फैसले में आगे वह कहती हैं, "यह भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ए के तहत सेक्सुअल हैरेसमेंट का मामला जरूर है, जिसके लिए अधिकतम तीन साल की सजा हो सकती है. चूंकि अभियुक्त पहले ही पांच महीने जेल में बिता चुका है. इसलिए उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए इतनी सजा काफी है."
आगे यह कहने की जरूरत नहीं कि बेसिकली नागपुर हाईकोर्ट ने अभियुक्त को बरी कर दिया.
जैसाकि जज ने 19 जनवरी के फैसले में कहा था कि पॉक्सो कानून इसलिए इस केस पर लागू नहीं होता क्योंकि यहां 'स्किन टू स्किन टच' नहीं हुआ है. पॉक्सो की इसी परिभाषा को इस दूसरे केस पर भी लागू करते हुए जज ने कहा कि "पॉक्सो कानून में दी गई यौन हमले की परिभाषा के तहत यौन इरादों से यौन अंगों का स्पर्श करना या करवाना जरूरी है. चूंकि इस केस में यौन अंगों का स्पर्श नहीं हुआ है इसलिए पॉक्सो कानून इस पर लागू नहीं होता."
यह सारे फैसले एक आजाद लोकतांत्रिक देश में, कानून की किताब पलटते, कानून को कोट करते और कानून का हवाला देते हुए दिए जा रहे हैं. कानून की ऐसे व्याख्या की जा रही है कि एक 12 साल की बच्ची की छातियों को कपड़े के ऊपर से दबोचना यौन अपराध नहीं है, एक पांच साल की बच्ची के सामने अपने पैंट की जिप खोलकर खड़े हो जाना और उसे अपना लिंग दिखाना अपराध नहीं है.
ये तो शुरुआत है. अभी और जाने क्या-क्या सुनना बाकी है कि ये भी और वो भी अपराध नहीं है.
हमारी आजादी 73 साल पुरानी है, जबकि इस आजाद देश के बच्चों को सुरक्षा देने और बचाने वाला ये कानून पॉक्सो सिर्फ 8 साल पुराना है. एक आजाद देश को 65 साल लग गए एक ऐसा कानून बनाने में, जो वयस्कों के यौन अपराधों से बच्चों की रक्षा कर सके और अपराधियों को सजा दे सके.
दुनिया के विकसित मुल्कों की तरह हमारे पास कोई ऐसा सामाजिक अध्ययन और आंकड़ा नहीं है, जिसे देखकर मैं ये समझ सकूं कि आजादी के 73 सालों में इस देश के कितने मां-बाप ने उनके बच्चों के साथ यौन अपराध करने वाले आदमी को सजा दिलाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया. मुझे ये तो नहीं पता कि कितने न्याय मांगने गए और कितनों को न्याय मिला, लेकिन मुझे ये जरूर पता है कि कितने बच्चों के साथ यौन शोषण हुआ है. भारत सरकार के महिला बाल विकास मंत्रालय का साल 2007 का एक सर्वे है, जिसके मुताबिक इस देश के 53 फीसदी लोग बचपन में यौन शोषण का शिकार हो चुके हैं. इसे ऐसे समझिए कि इस देश का हर दूसरा बच्चा यौन शोषण का शिकार है.
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एनसीआरबी का साल 2018 का आंकड़ा कहता है कि इस देश में रोज 109 बच्चे यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं. रोज 109 बच्चे. संख्या डराने वाली लगती है न. लेकिन मैं कहूंगी कि इस आंकड़े पर यकीन मत करिए क्योंकि एनसीआरबी ने एक-एक बच्चे से जाकर नहीं पूछा है कि उसके साथ यौन शोषण हुआ क्या. एनसीआरबी ने सिर्फ उन केसेज का गुणा-भाग कर आपको डेटा पकड़ा दिया, जो इस देश की पुलिस और न्यायिक संस्थाओं के रजिस्टर में दर्ज किए गए. इसलिए यह संख्या भरोसेमंद नहीं क्योंकि आपको भी पता है कि बचपन में आपके साथ भी यौन शोषण हुआ था और आपने किसी से नहीं कहा था. अपनी मां से भी नहीं. आपको ये भी पता है कि जब आपने कहा था तो घरवालों ने आपको चुप रहने के लिए कहा था. जैसे आपके माता-पिता पुलिस और अदालत में नहीं गए, इस देश के अधिकांश मां-बाप अपने बच्चे की चड्ढी उतारने और उसकी छातियां छूने वाले अपराधी के खिलाफ शिकायत करने पुलिस के पास नहीं जाते. इसलिए एनसीआरबी का ये आंकड़ा जमीनी हकीकत का एक हजारवां हिस्सा भी नहीं.
अव्वल तो कोई कोर्ट का दरवाजा खटखटाता नहीं और जो जाता है, उसे न्याय की थाली में सजाकर ऐसे कालजयी फैसले मिलते हैं कि कपड़े के ऊपर से ब्रेस्ट दबोचना अपराध नहीं, पैंट की जिप खोलना अपराध नहीं.