भी तेल भंडार खोलने के मायने
आयात शुल्क में कटौती के बाद भी जब घरेलू बाजार में पेट्रो उत्पादों के दामों पर कोई खास असर नहीं पड़ा
लीडिया पॉवेल। आयात शुल्क में कटौती के बाद भी जब घरेलू बाजार में पेट्रो उत्पादों के दामों पर कोई खास असर नहीं पड़ा, तो भारत सरकार ने अपने रणनीतिक भंडार से 50 लाख बैरल तेल निकालने का फैसला किया है। इससे पहले अमेरिका ने भी अपने 60 करोड़ बैरल भंडार में से पांच करोड़़ बैरल तेल निकालने की घोषणा की थी। कई अन्य देश भी ऐसा करने जा रहे हैं। इस कवायद का मूल मकसद अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों को थामना है। रणनीतिक भंडार से तेल निकालने के बाद इन देशों का आयात घट सकता है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग की कमी आ सकती है, जिससे दाम पर स्वाभाविक रूप से दबाव कम हो सकेगा।
किसी भी देश के लिए उसका रणनीतिक भंडार एक बीमा की तरह होता है, जो मुश्किल वक्त में काम आता है। युद्ध, आतंकी हमला, ऊर्जा संकट या तेल की आपूर्ति में होने वाली अस्थाई गड़बड़ियों से निपटने में इसका इस्तेमाल होता है। चूंकि दुर्दिन के लिए यह भंडार किया जाता है, इसलिए आम दिनों में इसका उपभोग महंगा सौदा हो सकता है। यही वजह है कि अभी भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह एक महंगी नीति मानी जा रही है। पहले के दिनों में पेट्रोलियम निर्यातक देश तेल का भंडार रखा करते थे, लेकिन बाद में भारत जैसे राष्ट्र भी भंडारण करने लगे। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के तमाम सदस्य देशों के लिए 90 दिनों का भंडार रखना अनिवार्य है। अपने यहां इंडियन स्ट्रैटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व्स लिमिटेड (आईएसपीआरएल) इसका प्रबंधन करती है। एक आकलन के मुताबिक, भारत में आपात इस्तेमाल के लिए करीब 3.7 करोड़ बैरल कच्चा तेल है, जिससे कम से कम नौ दिनों तक देश की जरूरतें पूरी हो सकती हैं।
खपत के मामले में भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। घरेलू बाजार में ऊंची कीमत यहां की सबसे बड़ी समस्या है। अगर रणनीतिक भंडार के इस्तेमाल से तेल के घरेलू दाम कम होते हैं, तो यह अच्छी बात है। मगर यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि ऐसा होगा ही। इसकी एक बड़ी वजह हमारी कर-प्रणाली है। कीमत के मामले में तेल पर लगने वाला टैक्स उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष है, जितना अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम। अगर कच्चे तेल की कीमत घट भी गई, तो भारतीय बाजार में ज्यादा टैक्स वसूली के कारण आम उपभोक्ताओं को अधिक राहत शायद ही मिल सकेगी। अलबत्ता, यह कवायद अमेरिका जैसे देशों के लिए काफी फायदेमंद है। वहां उपभोक्ताओं पर कर का भार ज्यादा नहीं है। यही वजह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन रणनीतिक भंडार के इस्तेमाल को अपनी सरकार के लिए मुफीद मान रहे हैं। वह मान रहे हैं कि उनकी घटती लोकप्रियता भी इस एक कदम से वापस पाई जा सकती है, जिसका फायदा उनको मध्यावधि चुनाव में हो सकता है।
माना यह भी जा रहा था कि कई देशों द्वारा उठाए गए इस कदम से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम कम हो जाएंगे। तेल की कीमतें पिछले कई दिनों से जिस तरह से चढ़ी हुई हैं, वह कई देशों के लिए चिंता का विषय है। ओपेक देशों से अनुरोध किया गया था कि वे उत्पादन बढ़ाएं, ताकि तेल आपूर्ति बढ़ सके और दाम नियंत्रण में आ सकें। मगर ऐसा नहीं हो सका। पर, रणनीतिक भंडार के इस्तेमाल की घोषणा के बाद भी तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा है। मंगलवार को अमेरिका द्वारा यह एलान किए जाने के बावजूद कि वह चीन, भारत, दक्षिण कोरिया, जापान, ब्रिटेन जैसे देशों के साथ मिलकर अपने रणनीतिक भंडार से लाखों बैरल तेल निकालने जा रहा है, कच्चे तेल के दाम तीन प्रतिशत ऊपर चढ़ गए। अब भी यह 80 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है, जो काफी ज्यादा माना जा रहा है।
हालांकि, अर्थशास्त्री तेल की स्थानीय कीमत के बहुत कम होने के पक्षधर नहीं हैं। दाम में बहुत ज्यादा कमी का अर्थ होता है, अर्थव्यवस्था में तेज गिरावट। मगर इसकी कीमत बहुत ज्यादा होना भी उचित नहीं। यही कारण है कि एक तर्कसंगत दर की वकालत बार-बार की जाती है। माना जाता है कि 60-70 रुपये प्रति लीटर से अधिक कीमत पर तेल न बिके। मगर इसके लिए रणनीतिक भंडार से तेल निकालना बहुत अच्छी रणनीति नहीं है। हमें नीतिगत मोर्चे पर ऐसी पहल करनी होगी कि पेट्रो उत्पादों के दाम कम रहें।
एक मुश्किल और है। विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का अनुमान है कि 2022 तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम चढ़े रहेंगे। ऐसे अनुमानों की अपनी पेचीदगियां जरूर हैं और अब तक का अनुभव यही बताता है कि तेल को लेकर करीब-करीब आधे अनुमान गलत साबित होते हैं, फिर भी यह मानने का फिलहाल कोई कारण नहीं है कि पेट्रो उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय कीमतें जल्द गिरने वाली हैं। लिहाजा, 2023 या उसके बाद ही हम अपने भंडार को फिर से भर सकने में सक्षम हो सकेंगे। फिर, तेल उत्पादन को लेकर अगर हमने आज निवेश बढ़ाया भी, तो उसका असर अगले चार-पांच साल के बाद दिखेगा। इसका मतलब है कि अगले दो साल तक एक अतिरिक्त दबाव सरकार पर होगा।
साफ है, तेल का गणित काफी अप्रत्याशित है। इस पर आर्थिक दबाव और राजनीतिक दबाव भी काम करते हैं। बाजार में आपूर्ति और मांग का भी अपना गुणा-भाग है। फिर, ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में तेल उत्पादन पर कई भौगोलिक दबाव भी हैं। ऐसे में, रणनीतिक भंडार को खाली करने का तात्कालिक असर बेशक पड़े, लेकिन लंबे समय के लिए यह बहुत ज्यादा फायदेमंद नहीं है। हमें पेट्रो उत्पादों पर लगने वाले टैक्स कम करने होंगे, तभी कीमतें गिरेंगी। करीब 48 रुपये बेस प्राइस का तेल उपभोक्ताओं के हाथों तक पहुंचते-पहुंचते लगभग 103 रुपये का हो जाए, तो कर में कटौती करना कहीं ज्यादा अनिवार्य हो जाता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)