मुख्यमंत्री बदलने के मायने
मुख्यमंत्री को बदलना सवालिया और असंवैधानिक नहीं है
दिव्याहिमाचल.
मुख्यमंत्री को बदलना सवालिया और असंवैधानिक नहीं है। यह कोई सरकारी स्थायी कर्मचारी का पद नहीं है। चुनावी जनादेश के बाद जिस शख्स को मुख्यमंत्री चुना जाता है, वह शपथ-ग्रहण के बाद संवैधानिक, सरकारी और कार्यपालिका का शीर्ष अधिकारी बनता है। वह सरकार और जनता के प्रति जवाबदेह होने के साथ-साथ अपनी पार्टी के प्रति जिम्मेदार भी होता है। बेशक मुख्यमंत्री का पद बिल्कुल अस्थायी और अस्थिर भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि उससे विकास और सामाजिक-आर्थिक योजनाओं के क्रियान्वयन पर असर पड़ता है, लिहाजा संविधान में पांच साल के कार्यकाल की व्यवस्था की गई है। यदि मुख्यमंत्री के प्रति सत्तासीन पार्टी और खासकर विधायकों के भीतर ही असंतोष और विद्रोह की स्थितियां बन जाती हैं या किसी बेहद संवेदनशील मुद्दे पर जनमत पार्टी के खिलाफ लगता है और चुनाव प्रभावित हो सकता है, तो पार्टी आलाकमान मुख्यमंत्री बदलने का फैसला भी ले सकता है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में, किसी भी दल को, एक आलाकमान नियंत्रित करता है। वह पार्टी अध्यक्ष, पार्टी महासचिव, पोलित ब्यूरो, केंद्रीय समिति या संसदीय बोर्ड आदि कुछ भी हो सकता है, लेकिन पार्टी आलाकमान ही सर्वोच्च और राष्ट्रीय नेतृत्व होता है। भाजपा ने बीते दो माह के दौरान उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात के मुख्यमंत्री बदले हैं। उत्तराखंड का मामला कुछ संवैधानिक पेंच वाला था और वहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक में येदियुरप्पा लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे। भाजपा और येदियुरप्पा को पर्यायवाची ही माना जाता था। अब उनकी उम्र 78-79 साल की हो गई है और वह अस्वस्थ भी रहने लगे हैं।
जाहिर था कि नए नेतृत्व को चुना जाए और उसे दायित्व सौंपा जाए। गुजरात में विजय रूपाणी अप्रत्याशित तौर पर मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन्होंने 5 साल से अधिक का कार्यकाल पूरा किया है। चूंकि एक साल बाद ही गुजरात विधानसभा के चुनाव होने हैं, लिहाजा परिवर्तन के तौर पर नए नेतृत्व की बाजी खेली गई है। गुजरात देश के प्रधानमंत्री मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह का गृह-राज्य है, लिहाजा भाजपा का बहुत कुछ दांव पर भी है। भाजपा गुजरात में 1995 से लगातार सत्ता में है, लिहाजा सरकार-विरोधी लहर का भी कुछ असर हो सकता है। नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल एक बार के विधायक हैं। उन्हेें सीधे ही मुख्यमंत्री बनाया गया है। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित और असंवैधानिक नहीं है। जब 2000 में भुज के विध्वंसक भूकंप के बाद नरेंद्र मोदी को भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री तय कर गुजरात भेजा था, तब वह एक बार के विधायक भी नहीं थे। कोई प्रशासनिक अनुभव भी नहीं था। मोदी दशकों से पार्टी संगठन में ही काम कर रहे थे। वैसे भी स्वतंत्र भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं कि किसी को मुख्यमंत्री पद के लिए अचानक ही चुन लिया गया हो अथवा कांग्रेसी सरकार के दौरान रातोंरात मुख्यमंत्री को बदल भी दिया गया हो। यकीनन मुख्यमंत्री बनाने के कुछ मानक तो हैं, लेकिन राजनीतिक दल बुनियादी तौर पर जातीय समीकरण ही आंकते रहे हैं। भाजपा ने पाटीदार मुख्यमंत्री बनाने के आग्रहों का सम्मान किया है, क्योंकि पटेल सबसे ताकतवर और भाजपा-समर्थक जातीय समुदाय रहा है। भूपेंद्र पटेल पाटीदारों में लोकप्रिय और ईमानदार नेता माने जाते रहे हैं।
बहरहाल भाजपा के हालिया दौर में राष्ट्रपति प्रणाली की सियासत ही जारी है। चुनाव कोई भी हो और किसी भी राज्य में होना हो, भाजपा का सर्वसम्मत चेहरा प्रधानमंत्री मोदी ही हैं। फिर गुजरात तो उनका अपना प्रदेश है, जहां उनके नाम पर ही वोट पडऩे तय हैं। दरअसल रूपाणी कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रबंधन और व्यवस्था को कारगर तरीके से दुरुस्त नहीं रख पाए। आरोप हैं कि करीब 3 लाख लोग संक्रमण से मरे, लोगों को सहज ही इलाज नहीं मिल पाया, अस्पतालों के बाहर एंबुलेंस की कतारें दिखाई देती थीं, लेकिन वे लोगों को आसानी से उपलब्ध नहीं थीं, लिहाजा जनता का एक निर्णायक वर्ग भाजपा के खिलाफ माना जा रहा था। गुजरात उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के खिलाफ कई तल्ख टिप्पणियां भी की थीं। भाजपा नेतृत्व ने असंतोष के चेहरे को ही बदलने का निर्णय लिया। शेष प्रधानमंत्री मोदी संभाल सकते हैं। दरअसल 2022-23 में कई राज्यों के चुनाव होने हैं। भाजपा वहां सरकार में है अथवा नहीं है, लेकिन 2024 के आम चुनाव की तैयारियां और भूमिकाएं शुरू कर दी गई हैं।