अपने घरों की ओर पैदल ही निकल पड़े लोगों में से कितनों ने सफर के बीच दम तोड़ा, इसकी कोई आधिकारिक संख्या उपलब्ध नहीं है। मजदूरों ने जितनी पीड़ा झेली, उनकी कहानियां सिर्फ दिल्ली के आसपास ही नहीं बल्कि पंजाब, महाराष्ट्र, बिहार और गुजरात समेत पूरे देशभर में बिखरी पड़ी हैं। उस समय के हालात देखकर अर्थशास्त्री ज्यां ट्रेज ने कहा था कि यदि लोगों को आपातकालीन राहत नहीं पहुंचाई गई तो लाखों लोग भूख से मर जाएंगे। श्रम मंत्रालय ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को कल्याण योजनाओं के तहत उपकर के रूप में प्राप्त 52 हजार करोड़ की राशि को निकाल कर निर्माण क्षेत्र के करीब 3.5 करोड़ पंजीकृत श्रमिकों के खाते में डालने का निर्देश दिया परन्तु लाखों श्रमिक अपंजीकृत थे और ऐसे में वे इस राहत राशि के पात्र नहीं है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का 1.7 लाख करोड़ का प्रोत्साहन पैकेज भी अपर्याप्त रहा।
रोजगार सर्वेक्षण बताता है कि भारत के 80 फीसदी से अधिक कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं जिसमें एक तिहाई दिहाड़ी मजदूर हैं। यह देश के विभाजन के बाद प्रवासियों का सबसे बड़ा पलायन था। हद तो तब हो गई जब गरीब प्रवासी श्रमिकों को बसों को साफ करने वाले कैमिकल युक्त पानी से नहलाया गया। ये वो गरीब लोग थे जिनके पास घर से काम करके पैसे कमाने का विकल्प नहीं था।जिन राज्यों से मजदूरों का पलायन हुआ उन्होंने लॉकडाउन के अनुभवों से स्वयं और सुविधा सम्पन्न वर्ग के बीच अंतर को ज्यादा अच्छे से पहचाना। इन मजदूरों की सहायता के लिए सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संगठनों ने आगे आकर मोर्चा संभाला और इन मजदूरों की यथासंभव सहायता की। लोगों ने दिन-रात सड़कों पर भोजन की व्यवस्था की। सूखे भोजन और पानी की भी व्यवस्था की। लोग देवदूत बन गए और इन्हीं देवदूतों की सेवा से देश के मजदूर बड़े संकट से बच गए। तब से पलायनकर्ता मजदूरों के लिए किसी कारगर नीति की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। ऐसा महसूस किया गया कि कोई ऐसी योजना तैयार की जाए ताकि इन मजदूरों को अपने गांव में भी काम मिल जाए। अब क्योंकि लॉकडाउन लगभग पूरी तरह से खुल चुका है, प्रवासी मजदूर अब शहरों की ओर लौटने लगे हैं।
देश में 10 करोड़ कामगार संगठित क्षेत्र में हैं तथा 40 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था में संक्रमण की सर्वाधिक मार असंगठित क्षेत्र पर पड़ी है लेकिन साथ ही संगठित क्षेत्र में भी नौकरियां घटी हैं। इस स्थिति में मजदूरों के कल्याण के लिए कार्यक्रमों और योजनाओं की दरकार है। अब नीति आयोग ने पलायन करने वाले श्रमिकों की समस्याओं का हल करने के लिए राष्ट्रीय नीति का प्रारूप तैयार किया है। कई राज्यों, विशेषज्ञों और सिविल सोसाइटी की तरफ से कोई नीति बनाने की मांग की जा रही थी। श्रम विभाग में पलायन करने वाले मजदूरों के लिए एक अलग इकाई का गठन किया गया। सभी राज्यों के श्रम विभाग में पलायनकर्ता श्रमिकों के लिए एक विभाग की स्थापना के लिए कहा गया है। आधार के माध्यम से इन श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अन्तर्गत लाया जाएगा। कुशल और अकुशल श्रमिकों की पहचान की जाएगी।
पलायनकर्ता श्रमिकों और व्यापार, उद्योग जगत के सम्पर्क में दूरियों को कम करने का प्रयास किया जाएगा। यही सही है कि मनरेगा जैसी योजनायें मजदूरों के लिए संजीवनी बनी हैं लेकिन अभी लॉकडाउन पूर्व की स्थितियां सृजित करने में काफी लम्बा समय लगेगा। छोटे स्व-रोजगार में लगे या अनियमित मजदूरों से जीविकोपार्जन करने वाले लोगों का पेंशन, बीमा और अन्य कल्याण कार्यक्रमों से जोड़ने की दिशा में बहुत काम किया जाना बाकी है। कुछ ऐसी ठोस पहल करने की जरूरत है ताकि लौटे हुए श्रमिकों को गांव में या आसपास काम मिल सके। उम्मीद है कि रोजगार गारंटी योजना के साथ जीविका, कौशल और ऋण उपलब्धता से संबंधित पहलों से ग्रामीण भारत की आर्थिकी में बेहतरी आएगी। प्रवासी कामगारों के जल्दी नहीं लौटने के चलते कुछ क्षेत्रों में नकारात्मक असर भी पड़ा है। स्थितियां सामान्य होने पर सभी क्षेत्रों में काफी संख्या में मजदूरों की जरूरत पड़ेगी। उम्मीद है कि नीति आयोग की पलायनकर्ता मजदूरों के प्रबंधन की नीति कारगर साबित होगी। इस दिशा में तेजी से काम करने की जरूरत है।