वफादारी और कुछ नहीं बल्कि विकल्पों की कमी का दूसरा नाम है
वफादारी कोई गुण नहीं होता
बिक्रम वोहरा।
ऐसा क्यों होता है कि हमें आशा की कोई किरण तभी दिखाई देती है जब हम निराश या हताश होते हैं? क्योंकि, Oliver Twist (चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यास का एक पात्र) की तरह हमें भूख तो बहुत होती है, लेकिन हमारे हिस्से में कुछ बचा नहीं होता. हालांकि, Oliver को तो फिर भी खाने की तलाश थी. हमारे राजनेताओं के लिए यह महज भूख नहीं, लालच का मामला है. उदाहरण के लिए, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) को ही ले लीजिए. वर्षों तक उनकी निष्ठा कांग्रेस पार्टी से जुड़ी रही, लेकिन अब बीजेपी की नजर उन पर बनी हुई है, और यह उन्हें खूब रास भी आ रहा है.
क्योंकि उन्हें तो केवल नवजोत सिंह सिद्धू से हिसाब चुकता करना है और इसके लिए पार्टी कोई मायने नहीं रखती. लेकिन फिर पार्टी मेनिफेस्टो में आपके उस यकीन का क्या हुआ? सच तो यह है कि आप सालों तक एक ब्रांड का प्रचार करते रहे, लेकिन अब आपके लिए आपसी प्रतिस्पर्धा ही मायने रखती है. और इसके बावजूद आप एक ईमानदार समर्थक कहलाना चाहते हैं.
ख़्वाहिशों के आगे वफादारी और निष्ठा जैसे शब्द बेमानी लगते हैं
अमरिंदर सिंह ऐसे एकमात्र उदाहरण नहीं हैं. सचिन पायलट को याद करें. महज 26 की उम्र में वह मंत्री बन गए, कांग्रेस पार्टी के एक सितारा साबित हुए. लेकिन, जब उनके और अशोक गहलोत के बीच ठन गई, तब उन्होंने यह नहीं सोचा कि पार्टी मुझसे बड़ी है, पार्टी ने मुझे इतना कुछ दिया है. जो चाहिए था वो नहीं मिला तो वफादारी और निष्ठा जैसे शब्द बेमानी लगने लगे. गुलाम नबी आज़ाद का भी पार्टी से छत्तीस का आंकड़ा हो गया. जब राज्यसभा से उनकी गमगीन विदाई हुई, और उन्होंने दलीय राजनीति से ऊपर उठकर भाषण दिया, तो बीजेपी में सभी ने एक कुशल राजनेता के रूप में उनका स्वागत किया, जबकि कांग्रेस बेहद खामोशी से उन्हें सुनती रही.
ऐसा लगा कि जैसे उनके और पार्टी के बीच सबकुछ खत्म हो गया है. एसएम कृष्णा के मामले में भी ठीक ऐसा ही हुआ. वो 46 वर्षों तक कांग्रेस से जुड़े रहे. इस दौरान उन्होंने सत्ता का सुख भोगा, पार्टी ने भी उन पर काफी लाड़-प्यार दिखाया. लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा कि पार्टी में उन्हें किनारे किया जा रहा है तो अचानक उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. जबकि उन 46 सालों में सत्ता के गलियारों में उनका आधार बनाने में पार्टी ने जरूर जमकर खर्च किया होगा.
नौकरशाही और प्राइवेट सेक्टर का भी यही हाल है
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ राजनीति में ही होता है. इस तरह की मौकापरस्ती इन दिनों परंपरा बन चुकी है. हम नौकरशाही में भी देखते हैं कि अफसर अपने राजनीतिक आकाओं की चापलूसी करते हैं और समय बदलने पर वे भी बदल जाते हैं. प्राइवेट सेक्टर में भी लोग तरक्की के लिए एक कंपनी छोड़कर दूसरी का दामन थाम लेते हैं. और प्रमोशन और प्रशंसा के लिए पहली कंपनी की अंदरूनी जानकारियां दूसरी कंपनी को दे देते हैं.
बॉस और स्टाफ के लिए अलग-अलग मापदंड होना भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार होता है. जो हो गया उसे भूलकर आगे बढ़ने में आखिर क्या हर्ज है? ऑफिस के वरिष्ठ अधिकारी अपना वर्चस्व दिखाने के लिए छंटनी और कटौती से लेकर स्टाफ को लंबी छुट्टी पर भेजने तक कई तिकड़म आजमाते हैं. और उम्मीद रखते हैं कि उनके काम के लिए कृतज्ञता जाहिर की जाए, भले ही उन्होंने सिर्फ अपनी सुविधा देखकर ऐसा किया हो. लेकिन उनके अधीन काम करने वाला कोई अगर इसका विरोध करे तो वो इसे विश्वासघात मान बैठते हैं.
वफादारी कोई गुण नहीं होता
विडंबना ये है कि भरोसा, विश्वास, कृतघ्नता, निराशा, दुख और भय ये सभी भावनाएं बॉस अपने अधीनस्थों के लिए व्यक्त करते हैं. असल में वफादारी, कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ विकल्पों की कमी का नाम है. इन दिनों पारंपरिक नैतिकता का तेजी से पतन हो रहा है. वास्तव में मौजूदा मौकापरस्ती की असल वजह यह है कि हमने यह मान लिया है कि किसी भी के प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है. हमारे पुराने आदर्श, उन पुराने कपड़ों की तरह हो चुके हैं, जो अब फैशन में नहीं हैं.
Forbes में लिखते हुए Rob Asghar खुलकर कहते हैं- वफादारी कोई गुण नहीं होता, भले ही इसे एक अत्यावश्यक गुण के तौर पर देखा जाता हो. और वफादार व्यक्ति कोई संत नहीं होता, भले ही वह खुद को संतों का भी संत समझता हो. वफादारी न तो गुण है और न ही अवगुण. यह केवल एक वृति है, एक मनोदशा है, एक मजबूरी है. व्यावहारिक तौर पर इसने मानव इतिहास में बुरी घटनाओं और हालातों को बढ़ावा दिया है, आज के दौर के दफ्तरों में इसकी कोई अहमियत नहीं रह गई है.
नई सोच के मुताबिक वफादारी अपने आप में एक झूठा वादा है. दरसअल ये निष्ठा, ईमानदारी और पारदर्शिता जैसे दूसरे मूल्यों पर लगाए जाने वाला झूठा लेबल है. तकनीक के दौर में इस दुराग्रह ने हमें ऐसा जकड़ लिया है कि अपना अस्तित्व बनाए रखना ही हमारी प्राथमिकता बन गई है. प्रतिस्पर्धा में बने रहने की चाह और लक्ष्य हासिल करने की इच्छा वफादारी से ज्यादा अहम हो गई है. लेकिन कहते हैं ना कि डूबते जहाज से कूदने वाले चूहे ही ज्यादा समझदार माने जाते हैं.