उत्तर प्रदेश में कम मतदान

उत्तर प्रदेश के पांचवें चरण के चुनाव में जिस तरह पिछले चार चरणों की अपेक्षा कम मतदान प्रतिशत रहा है, उसे लेकर राजनैतिक दल और चुनावी पंडित अपने-अपने कयास लगा रहे हैं

Update: 2022-03-01 03:29 GMT

आदित्य नारायण चोपड़ा: उत्तर प्रदेश के पांचवें चरण के चुनाव में जिस तरह पिछले चार चरणों की अपेक्षा कम मतदान प्रतिशत रहा है, उसे लेकर राजनैतिक दल और चुनावी पंडित अपने-अपने कयास लगा रहे हैं और हार-जीत का गुणा-भाग कर रहे हैं परन्तु इसका कारण मुख्य रूप से यह जान पड़ता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों में प्रवास भी करते हैं जिसकी वजह से इन इलाकों में प्रायः मतदान प्रतिशत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुकाबले कम रहता है। दूसरे पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग राज्य के पश्चिमी इलाके के लोगों के मुकाबले अधिक सब्र और धीरज वाले माने जाते हैं जिसके चलते वे उग्रता का किसी भी क्षेत्र में प्रदर्शन करने से बचते हैं। इसके साथ ही राज्य के इन क्षेत्रों में जातियों का गणित पश्चिम के मुकाबले दूसरी बनावट का है जिसमें अधिसंख्य ग्रामीण जातियां केवल ठाकुरों को छोड़ कर शान्त चित्त से राजनैतिक प्रतिक्रिया देने में माहिर मानी जाती हैं। वैसे यदि गौर से देखा जाये तो इस क्षेत्र के लोगों की राजनैतिक वरीयता विचारमूलक ज्यादा रही है जिसकी वजह से पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादी नेताओं स्व. डा. राम मनोहर लोहिया की 'संसोपा' व आचार्य नरेन्द्र देव की 'प्रसोपा' का भी खासा प्रभाव रहा परन्तु 1967 के चुनावों में यहां भारतीय जनसंघ को शानदार सफलता मिली थी और हालत यह थी कि बहराइच जिले की सभी छह की छह विधानसभा सीटों पर इसके प्रत्याशी जीते थे और लगती दो लोकसभा सीटों पर भी इसका कब्जा था परन्तु 1969 के मध्यावधि विधानसभा चुनावों में स्व. चौधरी चरण सिंह की भारतीय क्रान्ति दल पार्टी ने जहां कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था वहीं जनसंघ को भी धक्का पहुंचाया था जिसे राजनीति में स्व. इन्दिरा गांधी के धमाकेदार उदय ने पुनः बदलते हुए कांग्रेस को सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया परन्तु इन्दिरा जी की मृत्यु के बाद केवल 1985 में ही कांग्रेस विधानसभा में बहुमत प्राप्त कर सकी और उसके बाद 1990 के चुनावों से पुनः जनसंघ के नये संस्करण भारतीय जनता पार्टी ने अपनी धाक जमानी शुरू कर दी। यह भी हकीकत है कि इन चुनावों में भाजपा को पूर्वी उत्तर प्रदेश से अच्छा समर्थन प्राप्त हुआ था हालांकि तब तक जातिमूलक बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी भी अपने जातिगत गणित की वजह से अच्छा समर्थन जुटाने में कामयाब हो गई थी। मगर इन चुनावों से राज्य की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन आ गया था और कांग्रेस चौथे नम्बर की पार्टी बन गई थी। यह इतिहास लिखने का मन्तव्य केवल इतना है कि हम उत्तर प्रदेश विशेष कर पूर्व के इलाके के लोगों के मिजाज को समझ सकें। इसके साथ यह जानना भी जरूरी है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रारम्भ से ही पश्चिमी क्षेत्र के मुकाबले आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ रहा है जिसकी वजह से इसके कुछ सीमित इलाकों में कम्युनिस्टों का भी प्रभाव रहा है परन्तु 1990 के बाद श्रीराम मन्दिर आन्दोलन व मंडल आयोग से प्रभावित राजनीति ने इस राज्य के सियासी समीकरणों को पूरी तरह बदल डाला और वोट जातिगत गणित के आधार पर पड़ने लगे जिसमें 27 वर्ष बाद जाकर 2017 में आधारभूत परिवर्तन आया और राज्य की जनता ने प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के आगोश में भाजपा को तीन चौथाई बहुमत दे दिया। मगर 2022 के चुनाव मूल रूप से मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के पांच वर्ष के शासन के रिपोर्ट कार्ड के आधार पर हो रहे हैं। इन पांच वर्षों के भीतर केन्द्र की मोदी सरकार ने अपनी जो भी गरीब कल्याणकारी योजनाएं बनाई हैं उन्हें लागू करने का काम राज्य सरकार ने ही किया है और इन योजनाओं का सबसे ज्यादा लाभ पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को इसलिए मिला है क्योंकि गरीबी इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक है।भारत की गरीबी निःसन्देह जातिगत संरचना से जुड़ी हुई है अतः कल्याणकारी योजनाओं का सर्वाधिक लाभ अनुसूचित जातियों से लेकर पिछड़े वर्ग के लोगों को ही मिला है। अतः पूर्वी क्षेत्र तक जातिमूलक जातियों की वोट पाने की अपील धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती जा रही है और इनके प्रतिबद्ध कहे जाने वाले मतदाताओं में पहले जैसा उत्साह नहीं देखा जा रहा है। जहां तक शहरी मतदाताओं का सवाल है तो कानून-व्यवस्था के मुद्दे से वह इस तरह विचलित नजर आते हैं कि उनके सामने भाजपा का कोई ठोस विकल्प नजर नहीं आता है जिसकी वजह से उनमें भी उत्साह की कमी देखी जा रही है। हालांकि शुरू में समाजवादी पार्टी के नेता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 'बदलाव' की अलख जगाने की कोशिश की थी परन्तु मतदाताओं का इसमें आकर्षण समाजवादी पार्टी के पिछले शासन के अनुभवों की वजह से पैदा नहीं हो सका जिसे भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार का केन्द्रीय मुद्दा बनाया हुआ है।

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