मुकदमेबाजी : फैसलों का लंबा खिंचता इंतजार, आंकड़ों में बढ़ता 'अपराध' और कैदियों से पटे जेल

सौंपने का आदेश दिया है। तब तक जेलों में बंद कैदियों का इंतजार जारी रहने वाला है।

Update: 2022-04-01 01:49 GMT

विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में जेल (कारागार) किसी भी अपराध का दंड है। यानी जेल, तंत्र का वह अंग है, जो इस दर्शन पर आधारित है कि अपराधियों को समाज से दूर रखकर एक ऐसा वातावरण दिया जाए, जहां वे आत्म चिंतन कर सकें। पर क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? सरकार ने लोकसभा में 25 मार्च को जानकारी दी है कि देश की विभिन्न अदालतों में 4.70 करोड़ से अधिक मुकदमे अटके हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट में ही 70,154 मुकदमे लंबित हैं। देश की 25 उच्च अदालतों में भी 58 लाख 94 हजार 60 केस अटके हुए हैं।

इन लंबित मुकदमों की संख्या दो मार्च तक की है। इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में जेल सुधारों की त्वरित आवश्यकता है। जिसका एक बड़ा कारण लंबित मुकदमों का बढ़ना, न्यायाधीशों की कमी और सभी जेलों का क्षमता से ज्यादा भरा होना है। जिसका परिणाम कैदियों के खराब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में आ रहा है। जेल में यंत्रणा आम है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट 'जेल सांख्यिकी भारत 2020' के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत की जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी ऐसे हैं, जिन्हें विचाराधीन कैदी के तौर पर जाना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इन कैदियों के ऊपर जो आरोप लगे हैं, उनकी सुनवाई अदालत में चल रही है। अभी तक इनके ऊपर लगे आरोप सही साबित नहीं हुए हैं। रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि देश की जिला जेलों में औसतन 136 प्रतिशत की दर से कैदी रह रहे है।
इसका मतलब यह है कि 100 कैदियों के रहने की जगह पर 136 कैदी रह रहे हैं। फिलहाल, भारत की 410 जिला जेलों में 4,88,500 से ज्यादा कैदी बंद हैं। 2020 में, जेल में बंद कैदियों में 20 हजार से ज्यादा महिलाएं थीं, जिनमें से 1,427 महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थे। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या दुनिया भर के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में काफी ज्यादा है।
उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 और 25 उच्च न्यायालयों में 1,098 है। उच्च न्यायालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, दिसंबर, 2021 तक 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 898 फास्ट ट्रैक अदालतें काम कर रही हैं। न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, उस समस्या के हल का एक पक्ष हो सकता है, जो भारत की खराब जेल व्यवस्था का एक बड़ा कारण है। जजों की संख्या कम होने से जेल में लंबित कैदियों की संख्या बढती जाती है, जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत की जेलों में बंद 69 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। यानी भारत की जेलों में बंद हर दस में से सात कैदी मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के इंतजार में हैं। इस समस्या के सामाजिक-आर्थिक पक्ष भी हैं। देश में गरीब व्यक्ति के लिए इंसाफ की लड़ाई ज्यादा कठिन है। जिन्हें अच्छे और महंगे वकील मिल जाते हैं, उनकी जमानत आसानी से हो जाती है। दूसरी ओर बहुत मामूली से अपराधों के लिए भी गरीब लोग लंबे समय तक जेल में सड़ने को विवश होते हैं।
आपराधिक मुकदमों में ज्यादातर के पूरा होने में औसत रूप से तीन से दस साल का समय लगता है, हालांकि दोषसिद्धि का समय मुकदमों के लिए जेल में बिताए समय से घटा दिया जाता है, लेकिन इसकी वजह से कई निर्दोषों को बगैर किसी अपराध के जेल की सज़ा काटनी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अमिताभ रॉय की अध्यक्षता वाली समिति देश भर की जेलों की समस्याओं को देख रही है और उनसे निपटने के उपाय सुझा रही है। मार्च की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति को अगले छह माह में अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है। तब तक जेलों में बंद कैदियों का इंतजार जारी रहने वाला है।

सोर्स: अमर उजाला 


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