1992 में जब से महिलाओं को सशस्त्र बलों में शामिल किया गया, तब से उन्होंने हर दृष्टि से बेहतरीन योगदान कर सुर्खियां बटोरी हैं. महिला अधिकारियों ने अपने कोर्स में अव्वल आने से लेकर, स्वॉर्ड ऑफ ऑनर जीतने, टुकड़ियों के नेतृत्व करने, संयुक्त राष्ट्र मिशन में भाग लेने और संगठन तथा राष्ट्र की बेमिसाल सेवा कर पुरस्कार और प्रशंसा जीतने तक हर तरह की धारणाएं तोड़ी हैं.
फरवरी 2020 में हेडलाइंस बने स्थायी आयोग के मामले की बात करें, तो माननीय सुप्रीम कोर्ट के दो ऐतिहासिक फैसलों और जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ के स्पष्ट रुख के बाद भी, जिसमें कहा गया था कि परमानेंट कमीशन के लिए विचार करते समय महिला अधिकारियों की पूरी सर्विस रिकॉर्ड को ध्यान में रखा जाए, सेना ने इन अधिकारियों की परफॉर्मेंस के साथ सिर्फ पहले पांच वर्षों की सर्विस रिकॉर्ड को ही ध्यान में रखा और उनके 20 साल से ऊपर की शानदार सेवा को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया.
5 साल की सेवा के बाद किस मानदंड पर ठहराया गया अयोग्य?
615 महिला अधिकारियों (Women Officers) में से 72 को प्रतीक्षित आदेश (Order Awaited) के बहाने भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया और 28 को परमानेंट कमीशन के लिए अनफिट घोषित कर दिया गया. उन्हें बेतरतीब तरीके से यह कह कर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया कि उन्होंने 60 फीसदी स्कोर नहीं किया है. विडंबना यह है कि इन 28 महिला अधिकारियों को 5वें और 10वें साल के दो चरणों में इन्हीं मानदंडों पर सेवा विस्तार दिया गया था और आगे भी वो अपनी सेवा दे सकती थीं. इसलिए, मेरे दिमाग में यह सवाल आता है कि अगर वे सेना के नियमों के अनुसार सर्विस के लिए अयोग्य थीं, तो फिर यहां तक कैसे पहुंचीं, 5 साल की सेवा के मुख्य मानदंड के बाद अब उन्हें जज क्यों किया जा रहा है?
15 वर्षों तक न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं
इनमें से अधिकांश महिला अधिकारियों ने अब तक 20 वर्ष से अधिक की सेवा पूरी कर ली है और अब उनकी सिर्फ 6-9 वर्ष की सर्विस बाकी है. इन 72+28 असंतुष्ट अधिकारियों, (जिन्हें परमानेंट कमीशन से वंचित किया गया और जिनके रिजल्ट होल्ड पर रख गए) में से अधिकांश कई मेडल से सम्मानित (Highly Decorated) हैं और बेहतरीन सर्विस रिकॉर्ड के साथ कई मुकाम हासिल कर चुकी हैं. इनमें से कुछ अकादमी और अपने कोर्स की टॉपर हैं, तो कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें संयुक्त राष्ट्र मिशनों के लिए चुना गया था और कई अवॉर्ड भी जीत चुकीं हैं. सर्विस और उम्र के इस पड़ाव में स्थायी आयोग से वंचित रखना इन 28 वीमेन ऑफिसर्स का अपमान है, जिन्होंने करियर के अहम वर्षों में दो दशकों से अधिक समय तक अपनी सेवा दी और 15 वर्षों तक न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं.
मैं इस बात से सहमत हूं कि सभी पुरुष अधिकारियों को भी स्थायी आयोग नहीं मिलता, लेकिन इस मामले में कोर्स के हिसाब से वेकेंसी तय कर परमानेंट कमीशन दिया जाना ज्यादा मुनासिब होता. यह एक स्पेशल केस है जिसमें सरकार ने स्वेच्छा से अदालतों में लड़ाई को आगे बढ़ाया और इससे एक बड़ा बैकलॉग बन गया. इन महिलाओं को भारतीय संविधान में मौजूद समानता के अधिकार के लिए आखिर कब तक संघर्ष जारी रखना है, अपने आदेशों को लागू कराने के लिए न्यायिक प्रणाली को हर बार क्यों जोर लगाना पड़ता है?
बिना किसी गलती के इनके भविष्य को अंधेरे में छोड़ दिया जाता है
एक सिस्टर ऑफिसर के रूप में मेरे लिए इन 100 से ज्यादा महिला अधिकारियों को संघर्ष करते देखना पीड़ादायक है, क्योंकि बिना किसी गलती के उनके भविष्य को अंधेरे में छोड़ दिया गया है. परमानेंट कमीशन दिए जाने कि नीति फरवरी 2010 में हाई कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद तैयार की जा सकती थी. केन्द्र सरकार द्वारा हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के बजाय पिछले एक दशक में आसानी से कोर्स के मुताबिक स्थायी आयोग बोर्ड गठित किया जा सकता था. लगभग तीन दशकों के दौरान 615 महिला अधिकारियों के बैकलॉग से अनावश्यक अटकलें पैदा हुईं, बार-बार अदालतों के चक्कर लगाने में इन अधिकारियों ने अपनी ऊर्जा और वक्त गंवाया और अब आदेश लागू नहीं होने से परेशान हैं.
महिला अधिकारियों को क्यों नहीं मिलता रिड्रेसल सिस्टम का मौका?
सेना की रिड्रेसल सिस्टम (Redressal System) के मुताबिक, हर अधिकारी को किसी भी कमजोर ACR/टिप्पणी के बारे में समय पर सूचित किया जाता है ताकि नकारात्मक मूल्यांकन पर वो अपना पक्ष रख सकें. जबकि इन महिला अधिकारियों को कभी भी रिड्रेसल के लिए कोई मौका नहीं दिया गया और 14 जुलाई 2021 को डिक्लासिफिकेशन रिजल्ट (Declassification Result) के साथ 58 दिनों के अंदर इन्हें रिलीज करने का आदेश जारी कर दिया गया.
मूलभूत अधिकार की इस लड़ाई में देरी, इनकार और लगातार मुश्किलों का सामना करने में न सिर्फ इन महिला अधिकारियों ने इतने सालों में मानसिक तनाव झेला है, बल्कि उनकी गरिमा को भी भारी चोट पहुंची है. संस्था में उचित हक दिए जाने से पहले हर बार खुद को साबित करने की इस जरूरत से मुझे दुख होता है. ये उस देश के लिए बेहद शर्म की बात है जहां 49 फीसदी की आबादी में कुछ ही महिलाएं सशस्त्र बलों जैसे चुनौतीपूर्ण करियर का विकल्प चुनती हैं.
भारतीय सेना समेत सभी क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव से परे महिलाओं को समान अवसर देते हुए हमारा महान राष्ट्र हर दिन कदम आगे बढ़ा रहा है. यह दिल को छू लेने वाली बात जरूर है. लेकिन इस तरह की खबरें सिर्फ समाचार पत्रों के पहले पन्ने की हेडलाइन और ब्रेकिंग न्यूज तक सीमित रह जाती हैं, क्योंकि अदालत के आदेश पूरी तरह से लागू नहीं किए जाते.
भारतीय वायु सेना और नेवी में मिलने लगा है परमानेंट कमीशन और पेंशन
जैसा कि बेंच ने भी अपने फैसले में कहा था, यहां यह बताना जरूरी है, कि भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना इस मामले में कहीं आगे रही है. क्योंकि उन्होंने फरवरी 2010 में उच्च न्यायालय के फैसले के तुरंत बाद महिलाओं को परमानेंट कमीशन और पेंशन दिए जाने के आदेश को लागू कर दिया था, लेकिन भारतीय सेना ऐसा करने में नाकाम रही.
इन वीमेन ऑफिसर्स की पूरी सर्विस प्रोफाइल और उनकी कामयाबियों पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि उन्हें मनमाने तरीके से निष्कासित किया गया, क्योंकि उनकी वास्तविक सेवा के मुताबिक उनका ठीक मूल्यांकन नहीं किया गया. इसलिए, मेरे हिसाब से उन्हें परमानेंट कमीशन नहीं दिए जाने का फैसला निराधार और कई मायनों में मनमाना है.
न्याय के लिए यह लड़ाई वास्तव में बहुत लंबी साबित हो गई. इसके बावजूद ये महिलाएं सरकार और न्यायिक व्यवस्था में पूर्ण विश्वास रखते हुए पूरी शान और साहस के साथ अपना सिर ऊंचा कर खड़ी हैं. अपनी वर्दी और भारतीय सेना के लिए आदर और सम्मान उनके लिए किसी गहरी भावना से कम नहीं है. लेकिन अब भी वे जीवन को बदलने वाले न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं.