बाहरी बताने वाले जान लें राम से अनजान नहीं है बंगाल, हिंदी के अलावा सबसे अधिक रामकथाएं बांग्ला में

बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच शह-मात की राजनीतिक लड़ाई सांस्कृतिक धरातल पर भी लड़ी जा रही

Update: 2021-02-05 12:35 GMT

बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच शह-मात की राजनीतिक लड़ाई सांस्कृतिक धरातल पर भी लड़ी जा रही है। इसकी ताजा मिसाल है कोलकाता में पिछले दिनों नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर केंद्र सरकार के कार्यक्रम के दौरान बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी की नाराजगी। कार्यक्रम में कुछ लोगों द्वारा 'जय श्रीराम' के नारे लगाने से नाराज ममता ने इसे अपना व्यक्तिगत अपमान मानते हुए वहां बोलने से इन्कार कर दिया। जय श्रीराम के नाम पर ममता का आक्रोश नया नहीं है।


2019 में भी कुछ लोगों द्वारा 'जय श्रीराम' के नारे लगाने पर ममता अपनी कार से उतरकर उनसे भिड़ गई थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन ने ममता का साथ देते हुए कहा कि जय श्रीराम बंगाली संस्कृति से जुड़ा हुआ नहीं है। इसके कुछ ही दिन बाद बंगाल के सरकारी स्कूल में 10वीं की परीक्षा में यह भड़काऊ प्रश्न पूछा गया कि 'जय श्रीराम के नारे का समाज पर हानिकारक प्रभाव' पर एक रिपोर्ट लिखें। वहीं टीएमसी से जुड़े बौद्धिक-सांस्कृतिक संगठनों ने रामनवमी के त्योहार पर आरोप लगाया कि बंगाल में उत्तर भारतीय संस्कृति थोपने का प्रयास हो रहा है। सवाल है कि ममता दीदी को जय श्रीराम पर गुस्सा क्यों आता है? एक प्रश्न यह भी है कि क्या श्रीराम का बंगाली जीवन-संस्कृति से कोई संबंध नहीं है?


ममता बनर्जी की राजनीतिक ताकत का सबसे बड़ा आधार मुसलमान हैं

दरअसल सत्ता विरोधी लहर झेल रहीं ममता बनर्जी की राजनीतिक ताकत का सबसे बड़ा आधार बंगाल के मुसलमान हैं, जिनकी तादाद लगभग 30 प्रतिशत है। उन्हें लुभाने के लिए ममता बनर्जी विभिन्न उपायों में लगी रहती हैं। इस क्रम में कई बार मुस्लिम मजहबी प्रतीकों के प्रति उनका अतिरिक्त झुकाव और हिंदूू धार्मिक प्रतीकों के प्रति बेरुखी दिखती है। वहीं बंगाल चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी के आने की खबर और बंगाल के फुरफुरा-शरीफ दरगाह के प्रभावशाली मौलाना अब्बास सिद्दीकी द्वारा एक नई पार्टी बनाने के एलान से ममता की बेचैनी बढ़ गई है। ऐसे में वह 'जय श्रीराम' नारे पर आक्रोश व्यक्त कर मुसलमानों को संदेश देना चाहती हैं।

पंद्रहवीं शताब्दी में कृतिबासी रामायण की रचना

इस राजनीतिक उठापटक में श्रीराम को बंगाली संस्कृति से बाहर उत्तर भारत के सांस्कृतिक पुरुष के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐसे में यह जानना प्रासंगिक होगा कि भारतीय आर्यभाषा परिवार की भाषाओं में संस्कृत-अपभ्रंश के बाद सबसे पहली रामायण हिंदी या गुजराती में नहीं, बल्कि बांग्ला भाषा में रची गई थी। पंद्रहवीं शताब्दी में कृत्तिवास ने बांग्ला में कृतिबासी रामायण की रचना की थी। तुलसीदास रचित रामचरितमानस से लगभग सौ वर्ष पहले ही कृतिबासी रामायण की रचना हो गई थी। बंगाल में कृतिबासी रामायण की वही लोकप्रियता है, जो हिंदी क्षेत्रों में रामचरितमानस की है। आज भी बंगाली हिंदुओं के घर में होती है।

कृतिबासी रामायण के कई प्रसंगों का प्रभाव अन्य भाषाओं की रामकथाओं पर पड़ा

श्रीराम को बंगाली संस्कृति में बाहरी बताने वाले बुद्धिजीवियों को यह जरूर जानना चाहिए कि कृतिबासी रामायण के कई प्रसंगों का प्रभाव अन्य भाषाओं की रामकथाओं पर पड़ा है। जैसे राम-रावण युद्ध में जब श्रीराम निराश हो रहे थे, तब राम ने शक्ति (दुर्गा) की पूजा की और रावण पर विजय पाई। कृतिवास की यह नई उद्भावना थी, वाल्मीकि कृत आदि रामायण से अलग। राम द्वारा शक्ति आराधना की इस कथा के आधार पर हिंदी में तो महाकवि निराला ने राम की शक्ति पूजा नामक एक प्रसिद्ध काव्य कृति ही रच दी। हिंदी के अतिरिक्त सबसे अधिक रामकथाएं बांग्ला भाषा में हैं। यही नहीं, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने मध्यकाल में ही बंगाल में हरे रामा-हरे कृष्णा को गुंजायमान कर दिया था।

गुरुदेव श्रीराम के चरित्र से बहुत प्रभावित थे

स्वयं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर श्रीराम के चरित्र से बहुत प्रभावित थे। पद्म विभूषण से सम्मानित प्रसिद्ध शिक्षाविद् भबतोष दत्त अपनी पुस्तक 'रवींद्रनाथ टैगोर ऑन द रामायण एंड द महाभारत' में लिखते हैं कि टैगोर की दृष्टि में रामकथा मनुष्य के उच्चतम आदर्श स्थापित करती है। रवींद्रनाथ अपनी नृत्य नाटिका 'रक्त करबी' की भूमिका में अथवा काव्य रचना 'अहल्यार प्रति' में श्रीराम के चरित्र को आनंद, शांति और महानता का पर्याय बताते हैं। तब श्रीराम क्या सिर्फ उत्तर भारत के हैं? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है कि बंगाल के अलावा तमिलनाडु के नेताओं-बुद्धिजीवियों ने भी कुछ इसी तरह के प्रश्न किए थे।

राम पर सांस्कृतिक विवाद के पीछे कई कारण

राम पर सांस्कृतिक विवाद के पीछे कई कारण हैं। एक तो सांस्कृतिक आवरण में यह राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई है। दूसरा कारण है भारतीय चिंतन-दर्शन की आधी-अधूरी समझ, जिसमें जाने-समझे बिना विभिन्न देवी-देवताओं को अलग खांचों में बांटकर देखा जाता है। पश्चिम के एकेश्वरवादी चिंतन के प्रभाव में शैव (शिव-पूजक), वैष्णव (विष्णु-राम-कृष्ण के आराधक) एवं शाक्त (शक्ति या दुर्गा के उपासक) को अलग-अलग, बल्कि एक-दूसरे का विरोधी तक मानते हैं। जबकि तुलसीदास ने राम के लिए लिखा है कि शिवद्रोही मम दास कहावा, सोई नर मोहि सपनेहु नहीं भावा। अर्थात जो शिव का विरोधी है, वह मुझे (राम को) सपने में भी प्रिय नहीं है। चाहे वह मेरा सेवक क्यों न हो।

श्रीराम वह सांस्कृतिक पुरुषोत्तम हैं, जो हर देश काल में पूज्य हैं

एक ओर श्रीराम दुर्गा को मां मानकर उनकी पूजा करते हैं तो दूसरी तरफ श्रीराम स्वयं दुर्गा के पति शिव के इष्टदेव हैं। रामकथा के प्रामाणिक शोधकर्ता फादर कामिल बुल्के के अनुसार जिन आदर्शो, जीवन मूल्यों और सामाजिक समरसता की प्रतिष्ठा के लिए श्रीराम संघर्ष करते हैं वे पूरे भारतीय जीवन संस्कृति में रचे-बसे हैं। यहां 'जै रामजी की' अथवा 'राम-राम' कहना धार्मिक के बजाय एक सांस्कृतिक-लौकिक अभिवादन है। जय श्रीराम इसी का एक अन्य रूप है। कामिल बुल्के ठीक कहते हैं कि श्रीराम वह सांस्कृतिक पुरुषोत्तम हैं, जो हर देश काल में पूज्य हैं। कृतिबासी रामायण या रवींद्रनाथ टैगोर श्रीराम के बारे में इन्हीं विचारों की पुष्टि करते हैं। श्रीराम के नाम पर गलतफहमी फैलाने वालों को यह बात समझ लेनी चाहिए।


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