लखीमपुर खीरी कांड : हिंसा और मॉब लिंचिंग से कैसे बचेगा देश
लखीमपुर खीरी कांड
- शंभूनाथ शुक्ल। हिंसा का जवाब सामूहिक हिंसा या मॉब लिंचिंग नहीं होती. यदि ऐसा होता तो पुलिस, क़ानून और संविधान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता. इसीलिए 1927 में गांधी जी ने चौरीचौरा कांड के बाद अपना आंदोलन वापस ले लिया था. तब पुलिस की गोली से गुस्साए किसानों ने थाना फूंक दिया था. लेकिन अब फिर उत्तर प्रदेश में ऐसी सामूहिक हत्याएं (मॉब लिंचिंग) आम होती जा रही हैं. कम से कम उत्तर प्रदेश में तो यही दिख रहा है.
इन सामूहिक हत्याओं पर अंकुश लगाने की बजाय सत्ता पक्ष और विपक्ष इस तरह की घटनाओं को मौन स्वीकृति देने लगा है. पिछले कुछ वर्षों से शुरू हुई ये घटनाएं अब सड़कों तक आ गई हैं. शुरू-शुरू में सेक्युलर जमात ने ऐसी घटनाओं पर हंगामा ज़रूर किया था, पर अब वो भी ऐसी घटनाओं पर आंख मूंदे हैं. शायद इसकी वजह यह है कि अब ये घटनाएं जातियों में घुस आई हैं.
यूपी बनी प्रयोगशाला
कोई डेढ़ साल पहले सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ की सीमा पर यादवों और ब्राह्मणों के बीच ऐसी घटनाएं हुईं. दो सप्ताह पहले मिर्ज़ापुर में पटेलों ने एक ब्राह्मण युवक को घर से निकाला और पीट-पीट कर उसकी जान ले ली. उस ब्राह्मण युवक ने पहले एक पटेल युवक को गोली मारी थी. ताज़ा घटना लखीमपुर खीरी की है, जहां एक गाड़ी किसानों पर चढ़ गई तो किसानों ने दो गाड़ी फूंक दीं और चार लोगों को पीट-पीट कर मार दिया. इसका शिकार एक निर्दोष पत्रकार भी हो गया. निश्चय ही लखीमपुर खीरी में जो हादसा हुआ, वह दुःखद है. हालांकि जिस तरह से किसानों के गुस्से को जायज ठहराया जा रहा है, वह कहीं न कहीं मॉब लिंचिंग को स्वीकृति है. दोनों तरफ के मृत किसानों के परिजनों को 45-45 लाख रुपए का मुआवजा देकर फिलहाल लीपा-पोती कर दी गई है. लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि सामूहिक हिंसा पर ऐसी चुप्पी क्या संविधान परक है?
चौरीचौरा की पुनरावृत्ति
यकीनन लखीमपुर खीरी भी कुछ वैसा ही कांड है, जैसा 1927 में चौरीचौरा में हुआ था. व्यक्तिगत हिंसा के बदले में सामूहिक हिंसा. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री राजेश मिश्र के निर्वाचन क्षेत्र में तीन अक्टूबर को यह घटना घटी. गृह राज्यमंत्री के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का प्रोग्राम तय था. उधर तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों ने उप मुख्यमंत्री के दौरे को रोकने का निश्चय किया. पहले तो उन्होंने उस स्थान पर धरना दिया, जहां केशव प्रसाद मौर्य का हेलीकॉप्टर उतरने वाला था. लेकिन वे सड़क मार्ग से पहुंच गए तो किसान उनका विरोध करने उनके कार्यक्रम स्थल तक जाने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच एक तेज रफ़्तार गाड़ी आई और किसानों के ऊपर चढ़ गई. इसमें चार किसान मारे गए. किसानों ने ग़ुस्से में सड़क से गुजरने वाली गाड़ियों को रोक कर तोड़-फोड़ शुरू की. दो गाड़ियां फूंक दी गईं और इस बदले की हिंसा में भी चार अन्य लोग मारे गए.
आरोप और प्रत्यारोप
किसानों का कहना है, कि वे लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे. उन पर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के समर्थकों ने गाड़ी चढ़ा दी. किसानों के अनुसार गाड़ी अजय मिश्र का बेटा आशीष मिश्र चला रहा था. जबकि मंत्री अजय मिश्र का कहना है, कि हादसे के समय उनका बेटा न तो गाड़ी में था न वहां पर. उल्टे किसानों ने जो गाड़ियां फूंकीं उनमें उनका ड्राइवर तथा तीन और लोग मारे गए. इस घटना के बाद से उत्तर प्रदेश में राजनीति गर्म हो गई है और विपक्ष इस हादसे का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए सक्रिय हो गया है. साथ ही पहले से ही अपनी पुलिस को लेकर कठघरे में खड़ी उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार और भी संकटों में घिर गई है. फ़िलहाल तो कांग्रेस, सपा और बसपा के नेताओं को नज़रबंद कर लिया गया है लेकिन उनके कार्यकर्त्ता सड़क पर उतर आए हैं. कई जगह तोड़-फोड़ और हिंसा भी हुई. अलबत्ता मृतकों के मुआवजे के बाद एक समझौता हो गया है.
सबकी नज़रें चुनाव पर
उत्तर प्रदेश में पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं. यह चुनाव केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के लिए भी बहुत अहम है. उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं. उत्तर प्रदेश की विशालता और विविधता देश की दशा और दिशा तय करती है. इसलिए न सिर्फ प्रदेश की विपक्षी पार्टियां बल्कि दूसरे प्रदेशों के राजनीतिक दल तथा कांग्रेस भी एक्टिव हो गई हैं. कांग्रेस को भी यूपी से उम्मीद है, साथ ही दूसरे प्रदेशों के विपक्षी दलों को इस बहाने तीसरे विकल्प की भी आस है. पश्चिम बंगाल से जीत कर निकलीं ममता बनर्जी और पंजाब में हाल में बनाए गए नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी तथा जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी उत्तर प्रदेश की आंच में अपने हाथ सेकने में लगे हैं. और ये सभी नेता परोक्ष रूप से सामूहिक हिंसा को किसानों का सामूहिक गुस्सा बता रहे हैं. लेकिन सच्चाई इसके उलट भी हो सकती है.
हिंदुत्व का जवाब जातियां
इस सच्चाई को समझने के लिए कुछ समाज और राजनीति के दर्शन को भी समझना होगा. बीजेपी ने हिंदुत्व-हिंदुत्व कर समाज को हिंदू बनाम मुस्लिम में बांट दिया है. लेकिन वह भूल जाती है कि राजनीति कभी स्थिर नहीं होती. वह निरंतर गतिशील रहती है. बीजेपी के हिंदुत्व की काट है समाज को वर्ग के बजाय जातियों में विभाजित कर देना. आज बीजेपी के विरुद्ध सभी दल यही कर रहे हैं. किसान के बहाने उन्होंने ओबीसी समुदाय को अलग करने की ठानी है. आज किसान कौन है, सिर्फ़ ओबीसी जातियां. क्योंकि सवर्ण जातियां गांव छोड़ चुकी हैं. इसके अलावा ज़मींदारी उन्मूलन, ग्राम सुधार योजनाओं तथा मनरेगा का लाभ भी किसानों के बहाने इन्हीं ओबीसी जातियों को मिला. ये मेहनती जातियां धीरे-धीरे गांवों के सभी संसाधनों पर क़ाबिज़ हो गईं और मंडल के ज़रिए नौकरशाही में भी इनको प्रवेश मिल गया. लेकिन इनको यह मलाल है कि चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी केंद्र की राजनीति में उनकी दख़ल अभी हाशिए पर है. इसके अतिरिक्त बीजेपी के हिंदुत्व से आहत मुस्लिम, ईसाई और सिख आदि अल्पसंख्यक भी इस बहाने एकजुट हो रहे हैं. यह एकजुटता बहुलतावाद को जन्म देती है. इसका नतीजा है सामूहिक हिंसा का दौर.
राजनीति करो वैमनस्य ना फैलाओ
यह नाज़ुक वक़्त है, सभी राजनीतिक दलों को समझना होगा कि एक बार भी यदि सामूहिक हिंसा को स्वीकृति मिली तब उसे रोका नहीं जा सकता. सोशल मीडिया के इस युग में अराजक तत्त्व फौरन इसे खाद-पानी मुहैया कराने लगते हैं. इसलिए सिर्फ़ भरपूर मुआवजा कोई हल नहीं है, बल्कि सभी दलों को मिल-बैठ कर एक पारस्परिक सहमति बनानी होगी. जातियों को खंड-खंड करने से जाति नहीं टूटती बल्कि पारस्परिकता, सहिष्णुता और समरसता से जाति व धर्म के बंधन टूटते हैं. राजनीति सदैव चलायमान रहती है. इसलिए बेहतर यह है कि समाज को भी उसके अनुरूप बनाया जाए ताकि विविधता में एकता के सूत्र बने रहें. लखीमपुर खीरी की इस घटना से सबक़ नहीं लिया तो आगे के हादसों को रोक नहीं पाएंगे.