लखीमपुर और राजनीति

लखीमपुर खीरी कांड में मृत चार किसानों और एक पत्रकार का अंतिम अरदास समारोह मौके की गरिमा के अनुकूल तो हुआ ही

Update: 2021-10-13 06:06 GMT

लखीमपुर खीरी कांड में मृत चार किसानों और एक पत्रकार का अंतिम अरदास समारोह मौके की गरिमा के अनुकूल तो हुआ ही, इसका शांतिपूर्ण समापन स्थानीय प्रशासन के लिए भी किसी राहत से कम नहीं रहा। संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में कुछ राजनेताओं के पहुंचने की खबर को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं, लेकिन आयोजकों और नेताओं, दोनों ने अपने-अपने तईं मर्यादित आचरण ही किया। किसी भी समाज में शांति-व्यवस्था के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि सभी अपने-अपने दायरे का सम्मान करें। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने कई परिवारों को कभी न भूलने वाला जख्म दे दिया है, पर चिंता इस बात की थी कि इसके बाद पैदा हुए जनाक्रोश व राजनीतिक सरगर्मियों से समाज को कहीं और गहरे जख्म न मिल जाएं। लेकिन कल के कार्यक्रम से यही संदेश निकला कि शांतिपूर्ण तरीकों से भी इंसाफ की मांग की जा सकती है और उसके लिए दबाव बनाया जा सकता है।

निस्संदेह, इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए राज्य सरकार की भूमिका समझदारी भरी रही। प्रशासन ने पीड़ित परिवारों और खीरी के आंदोलित किसानों से संवाद करने में देरी नहीं की। मृतकों के आश्रितों के लिए नगद मुआवजे व दूसरे राहत उपायों की घोषणा, नामजद एफआईआर, और फिर आरोपी मंत्री-पुत्र की गिरफ्तारी से लोगों में यही संदेश गया कि प्रशासन का रवैया टालमटोल वाला नहीं है। मुमकिन है, इसमें आसन्न विधानसभा चुनाव और इस दुखद घटना के आरोपियों के विरुद्ध व्यापक जनभावना ने बड़ी भूमिका निभाई हो, पर क्या यही आदर्श स्थिति भी नहीं है? कोई भी देश या समाज अपराध या अपराधियों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता, लेकिन उसके सभ्य होने की कसौटी यही है कि पीड़ित और उत्पीड़क के प्रति उसका आचरण कैसा रहा? क्या वह पीड़ित के साथ इंसाफ और उत्पीड़क को दंडित कर सका? लखीमपुर खीरी मामले पर सियासत अभी होगी। आगामी विधानसभा चुनावों तक न तो किसान संगठन, और न ही भाजपा विरोधी पार्टियां इसकी आंच मद्धम पड़ने देंगी। वैसे भी, जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें किसानों का काफी रसूख व असर है। उत्तर प्रदेश सरकार के लिए चुनौती दोहरी है। एक तो उसे राजनीतिक स्तर पर अपने विरोधियों का मुकाबला करना है और दूसरी, कानून-व्यवस्था को बनाए रखना है। अब तक लखीमपुर मामले में जैसी मुस्तैदी बरती गई है, यदि वह आगे भी बनी रही, तो सत्तारूढ़ पार्टी कहीं बेहतर बचाव करने में समर्थ होगी, साथ ही जल्द न्याय की उम्मीद लोगों को असंतुष्ट होने से भी रोकेगी। वैसे तो, यह किसी भी शासन-प्रशासन का स्वाभाविक गुण होना चाहिए, लेकिन सरकारों की दलगत पक्षधरता ने हमारे प्रशासनिक ढांचे को किस कदर नुकसान पहुंचाया है, यह बताने की जरूरत नहीं है। लखीमपुर खीरी कांड और उसके बाद के घटनाक्रम तमाम राज्य सरकारों के लिए एक सबक है कि त्वरित कार्रवाई कैसे समाज में शांति बहाल करती है। अगर हमारे शासक यह समझ लें कि बेहतर प्रशासन सर्वोत्तम राजनीति है, तो उन्हें अपने विरोधियों की बाड़ेबंदी की दरकार ही न हो। वैसे भी, लोकतंत्र में इस तरह की कोशिशें जनता के मन में संदेह को ही जन्म देती हैं।

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