श्रमिक सहभागिता दर : कार्यबल में घटती महिलाओं की हिस्सेदारी
दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
देश में महिलाओं की श्रमिक सहभागिता दर में, जो पूरे विश्व के अनुपात में वैसे ही बहुत कम है, और तेजी से गिरावट आई है। बेन ऐंड कंपनी और गूगल की एक संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार यह गिरावट पंद्रह से चौबीस वर्ष की उम्र की महिलाओं में सबसे ज्यादा है। उल्लेखनीय है कि श्रम शक्ति भागीदारी दर 16 से 64 वर्ष आयु समूह के लोगों की कार्य श्रम हिस्सेदारी को दर्शाती है, जो वर्तमान में कार्यरत हैं या रोजगार की तलाश कर रहे हैं। अध्ययनरत किशोर, गृहिणी अथवा 64 वर्ष की आयु से अधिक के व्यक्ति इसमें सम्मिलित नहीं हैं।
इसी रिपोर्ट के अनुसार मई–अगस्त, 2019 में लैंगिक अनुपात में महिलाओं पर बेरोजगारी की मार ज्यादा पड़ रही है। इसी समय जहां शहरी पुरुषों में बेरोजगारी की दर छह प्रतिशत है, वहीं चौबीस प्रतिशत शहरी महिलाएं बेरोजगार हैं। ग्रामीण क्षेत्र में भी पुरुषों में बेरोजगारी का औसत छह प्रतिशत है, वहीं पंद्रह प्रतिशत महिलाएं बेरोजगार हैं। 10 प्रतिशत स्नातक पुरुष बेरोजगार हैं, वहीं महिलाओं में यह प्रतिशत 35 है।
महिलाओं की श्रमिक सहभागिता दर 1990 में 35 प्रतिशत थी, जो साल 2018 में गिरकर 27 प्रतिशत रह गई, जो पड़ोसी देश पाकिस्तान से बेशक बेहतर है, जहां यह आंकड़ा इसी समय 14 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत पहुंची, लेकिन भारत अभी बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे अन्य पड़ोसी देशों से पीछे है। ग्लोबल इकनॉमिक फोरम द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में 156 देशों की सूची में भारत 140वें स्थान पर है।
रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और अवसर में बहुत तेजी से गिरावट हुई है। महिला श्रमबल भागीदारी दर 24.8 प्रतिशत से गिरकर 22.3 प्रतिशत रह गई है। पेशेवर और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका घटकर 29.2 प्रतिशत रह गई है। वरिष्ठ और प्रबंधक पदों पर केवल 14.6 प्रतिशत महिलाएं हैं। केवल 8.9 प्रतिशत कंपनियां ही ऐसी हैं, जहां शीर्ष प्रबंधक पदों पर महिलाएं अपना योगदान दे रही हैं।
लैंगिक समानता बढ़ाने के लिए यदि अभी से प्रयास नहीं किए गए, तो पुरुष और महिलाओं के बीच आर्थिक समृद्धि और रोजगार की खाई भारत में चिंताजनक रूप से बढ़ेगी। वर्तमान रुझानों के अनुसार आने वाले वर्षों में चालीस करोड़ नौकरियों की आवश्यकता अकेले महिलाओं को है। तस्वीर का दूसरा पक्ष रोजगार में तकनीक पर बढ़ती निर्भरता है।
महिलाएं ज्यादातर प्रशासनिक एवं सूचना विश्लेषण जैसे रोजगार में प्रमुख भूमिका निभाती हैं, परंतु अब इन क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और तकनीक के बढ़ते दायरे ने महिलाओं की अधिकता वाले रोजगार के इस क्षेत्र को खतरे में डाल दिया है। जैसे–जैसे रूटीन किस्म की नौकरियों में ऑटोमेशन बढ़ेगा, इसका परिणाम महिलाओं में उच्च बेरोजगारी दर के रूप में सामने आएगा।
विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, देश की जनसंख्या में महिलाओं की संख्या 48 प्रतिशत है, लेकिन देश की आर्थिक वृद्धि का लाभ महिलाओं को उतना नहीं मिल पाया। शिक्षा में ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्र की महिलाओं की तादाद बढ़ रही है, लेकिन वे रोजगार में उतना योगदान नहीं दे रही हैं। इसके लिए कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक कारक भी जिम्मेदार हैं। पुरुषों के लिए ज्यादा शिक्षा का मतलब है बेहतर रोजगार में ज्यादा सहभागिता, लेकिन महिलाओं के लिए ऐसा हमेशा नहीं होता है।
यदि पति बेहतर कमाता है, तो महिलाओं को काम करने की क्या जरूरत वाली मानसिकता भी एक बड़ी बाधा है। सरकार ने महिलाओं को उद्यमी बनाने के लिए 2011 में विश्व बैंक के समर्थन से राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (दीनदयाल अंत्योदय-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन) शुरू किया, जिसमें अब तक पांच करोड़ महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों और उनके उच्च महासंघों से जोड़ा गया है।
इन समूहों ने विभिन्न वाणिज्यिक बैंकों से लगभग 30 अरब डॉलर का लाभ उठाया है। ऐसी स्थिति में रोजगार के नए अवसर पैदा करना आज की जरूरत है। महिलाओं में उद्यमशीलता का विकास कर भारत की अर्थव्यवस्था को जहां गति दी जा सकती है, वहीं समाज को लैंगिक रूप से बराबरी वाले समाज में परिणत करके दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।