कुरुक्षेत्र: मुल्क को अंधेरी सुरंग से निकालने में जुटे धरती पुत्र करजई! उनकी यह युक्ति ही बचा सकती है अफगानिस्तान को गृह युद्ध से
किसी भी देश के संकटकाल में उसके नेताओं की परीक्षा होती है
विनोद अग्निहोत्री
किसी भी देश के संकटकाल में उसके नेताओं की परीक्षा होती है। अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसने साबित कर दिया है पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई न सिर्फ एक कुशल राजनयिक हैं, बल्कि वह सच्चे माटी के लाल (धरती पुत्र) भी हैं। संकटग्रस्त अफगानिस्तान में इस समय हामिद करजई ही वह शख्स हैं जो भारत समेत तमाम लोकतांत्रिक देशों और तालिबान नेतृत्व के बीच पुल का काम करके स्थिति को संभाल सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक भारत के संपर्क सूत्र लगातार करजई के संपर्क में भी हैं और प्रयास कर रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारतीय हित सुरक्षित रहें। धरती पुत्र हामिद करजई अपने मुल्क को उस अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने में जुटे हैं, जो अफगानिस्तान को बीस साल पहले के अंधेरों में पहुंचा सकती है।
हामिद करजई अगर चाहते तो राष्ट्रपति अब्दुल गनी की तरह उनसे भी पहले काबुल छोड़कर जा सकते थे, क्योंकि तालिबान काबुल की तरफ बढ रहे हैं, इसका अंदेशा उन्हें खासा पहले हो गया था। लेकिन करजई न सिर्फ काबुल में रुके बल्कि उन्होंने गनी को भी समझाने की कोशिश की कि किस तरह तालिबान से बात करके मामले को सुलझाया जाए। लेकिन गनी मौका पाते ही काबुल से निकल गए जबकि हामिद करजई काबुल में रहकर अपने पूर्व सहयोगी और अफगानिस्तान के सीईओ अब्दुल्ला अबदुल्ला के साथ मिलकर तालिबान नेतृत्व के साथ बातचीत करके वैकल्पिक व्यवस्था के प्रारूप को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। भारत के लिए करजई अफगानिस्तान में उसके हितों की रक्षा का एक बड़ा माध्यम हो सकते हैं जो तालिबान नेतृत्व और भारत के बीच की खाई में पुल का काम कर सकते हैं।
हामिद करजई ने राष्ट्रपति के रूप में और पद से हटने के बाद भी कई बार भारत की यात्रा की। उनकी शिक्षा भी भारत में हुई है और भारत के साथ उनके रिश्ते बहुत गहरे हैं। कई बार मुझे उनसे बात करने का मौका मिला और एक बार तो अमर उजाला और थिंक टैंक आईपीसीएस के संयुक्त बुलावे पर वह तीन दिन की यात्रा पर आगरा भी आए, जहां उनके कई कार्यक्रम हुए। अपने हर संबोधन में करजई ने भारत और अफगानिस्तान के मजबूत रिश्तों की जरूरत पर बल दिया और उन्होंने कहा कि दोनों देश एक दूसरे की जरूरत हैं।
अब जो अफगानिस्तान में हो रहा है, उसे हामिद करजई ने कई साल पहले ही भांप लिया था। इसलिए वह हमेशा इस पक्ष में थे कि अफगानिस्तान सरकार को तालिबान से बात करके कोई न कोई ऐसा रास्ता जल्दी से जल्दी निकाल लेना चाहिए जो अफगानिस्तान के साथ साथ पूरे दक्षिण-पश्चिम एशिया क्षेत्र के हित में हो और सबको स्वीकार हो। उन्हें अंदेशा था कि अमेरिकी फौज कभी भी अफगानिस्तान छोड़कर जा सकती है। इसलिए वह भारत से भी लगातार आग्रह करते रहे कि वह अफगान सरकार को इस बात के लिए राजी करे। लेकिन अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल गनी को अमेरिका पर इस कदर भरोसा था कि उन्होंने करजई की सलाह पर जरा भी गौर नहीं किया। अगर वक्त रहते कर लिया होता तो शायद तालिबान और तत्कालीन अफगान सरकार सत्ता साझेदारी का कोई ऐसा रास्ता निकाल लेते जो सबको मंजूर होता और अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के बाद यह अफरातफरी नहीं मचती। करजई ने कई बार तालिबान को अपने अफगान भाई कहकर वैश्विक मंचों से संबोधित किया और इसी वजह से तालिबान नेतृत्व के बीच करजई की साख और दोस्ती बढ़ गई। इसी वजह से करजई काबुल में हैं और लगातार तालिबान के साथ बातचीत कर रहे हैं।
भारत-अफगानिस्तान रिश्तों की मजबूती के प्रबल पक्षधर हामिद करजई ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान अफगानिस्तान में विदेशी निवेश, परियोजनाओं और सुरक्षा संबंधी मामलों में भारत को खासी तरजीह दी। वह लगातार भारत और पाकिस्तान के बीच भी अच्छे रिश्तों की वकालत करते रहे हैं। लेकिन जब भी पाकिस्तान और भारत के बीच उन्हें चुनना हुआ तो उन्होंने भारत को चुना। इसलिए भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान में भी उनके कई लोगों से बेहद करीबी निजी रिश्ते हैं और इन दिनों भारत और अफगानिस्तान के बीच करजई प्रमुख संपर्क सूत्र बने हुए हैं।
काबुल से मिलने वाली खबरों के मुताबिक भले ही तालिबान ने काबुल, कंधार समेत सभी प्रमुख शहरों और प्रांतों पर कब्जा कर लिया हो, लेकिन अफगानिस्तान में अभी पूर्ण शांति स्थापित नहीं हुई है और तालिबान के विरोधी भी गोलबंद होने लगे हैं। जलालाबाद में तालिबान के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे और वहां संघर्ष की भी खबरें हैं। कई जगह महिलाओं ने शांतिपूर्ण तरीके से पोस्टर-बैनर लेकर तालिबान के खिलाफ प्रदर्शन किया है। राष्ट्रपति गनी भले ही देश छोड़कर चले गए हों लेकिन उपराष्ट्रपति सालेह ने तालिबान की सत्ता को स्वीकार नहीं किया है और वह पंजशीर इलाके में नॉर्दन अलायंस की फौजों के साथ फिर से तालिबान को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। पंजशीर का इलाका अभी भी तालिबान के प्रभाव और असर से मुक्त है और यहां कभी भी तालिबान अपना कब्जा नहीं जमा सका। पंजशीर के शेर के नाम से मशहूर ताजिक नेता अहमद शाह मसूद जिन्हें धोखे से अलकायदा ने मरवा दिया था, उनके बेटे इस इलाके में नॉर्दन अलायंस की कमान संभाले हुए हैं। उज्बेक नेता रशीद दोस्तम के बारे में अभी पक्की खबर नहीं है कि वो अपनी फौजों को लेकर तालिबान के साथ मिल गए हैं या सालेह के साथ मिलकर नॉर्दन अलायंस को फिर से खड़ा करेंगे।
अफगानिस्तान में करीब 38.4 फीसदी आबादी पख्तूनों (पठानों) की है जिनका बहुसंख्यक समर्थन तालिबान को है, जबकि करीब 22 फीसदी ताजिक, हजारा और सादात मिलाकर 24.5 फीसदी, छह फीसदी उज्बेक और करीब नौ फीसदी अन्य जातीय (नस्लीय) समूह हैं। अन्य समुदाय तालिबान को पश्तूनों और सुन्नी मुसलमानों का संगठन मानते हैं और तालिबान की अधीनता स्वीकार नहीं करते। इसीलिए अन्य सारे समूहों के कबीलाई प्रमुखों ने तालिबान के खिलाफ नॉर्दन अलांयस बनाकर पंजशीर को आधार क्षेत्र बनाते हुए कई सालों तक पहले भी लड़ाई की है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद नार्दन एलांयस को ही आगे करके अमेरिका और नाटो देशों ने तालिबान को खदेड़ा था। इसके बाद पश्तून समुदाय की भावनाओं को शांत करते हुए हामिद करजई जो पश्तूनों के करजई कबीले से आते हैं, को राष्ट्रपति बनाकर पूरे अफगानिस्तान को एकजुट किया। करजई सरकार में पश्तूनों के साथ साथ ताजिक, उज्बेक, हजारा और अन्य सभी समुदायों को साझेदारी दी गई हालांकि शासन पर पश्तूनों का ही वर्चस्व रहा। लेकिन करजई की कामयाबी थी कि उन्होंने सभी समुदायों का विश्वास अर्जित करते हुए उन्हें बीस साल तक एकजुट रखा।
पिछले बीस सालों में अफगानिस्तान में लोगों ने खुली हवा में सांस ली है और लोकतंत्रिक अधिकारों का उपयोग किया है। विश्व समुदाय ने भी एक बदले हुए अफगानिस्तान के साथ रिश्ते बनाए और भारत समेत कई देशों ने वहां निवेश किया, व्यापार बढ़ाया और कई विकास परियोजनाओं को पूरा किया। यह सब हामिद करजई के 12 सालों के शासनकाल में शुरू हुआ और अब्दुल गनी के आठ साल के कार्यकाल में आगे बढ़ा। बीस साल पहले जब तालिबान के कब्जे से अफगानिस्तान मुक्त हुआ था, तब करजई ने एक ऐसे देश का शासन संभाला जो बुरी तरह बर्बाद हो चुका था। दुनिया में उसकी साख एक मध्यकालीन कबीलाई देश की बन चुकी थी। लेकिन करजई ने नए अफगानिस्तान की मजबूत बुनियाद खड़ी की, जिस पर भरोसा करके अरबों-खरबों डॉलर का निवेश अनेक देशों ने अफगानिस्तान के पुनर्निमाण के लिए किया।
लेकिन अब जब तालिबान ने पंजशीर और उत्तरी अफगानिस्तान के कुछ इलाकों को छोड़कर पूरे अफगानिस्तान पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है और पंजशीर में फिर तालिबान विरोधी ताकतों की गोलबंदी शुरू हो गई है तब अफगानिस्तान की सामुदायिक एकता फिर बिखरने का खतरा पैदा हो गया है। इसीलिए हामिद करजई, अब्दुल्ला अब्दुल्ला और गुलबुद्दीन हिकमतयार तालिबान नेतृत्व को लगातार समझा रहे हैं कि बीस साल पुराने इतिहास को दोहराने की बजाय एक ऐसी सरकार बनाई जाए, जिसमें पश्तूनों के साथ सभी समुदायों को उनकी तादाद के हिसाब से हिस्सेदारी मिले और अफगानिस्तान की भावी सरकार तालिबान की नहीं अफगानिस्तान की सरकार कहलाए। करजई और अब्दुल्ला तो वरिष्ठ राजनेता हैं जबकि हिकमतयार खुद अफगानिस्तान के बेहद कद्दावर कबीलाई नेता हैं जो खुद भी पश्तून हैं और उनके पास लड़ाकों की बड़ी फौज रही है।
हिकमतयार ने कभी भी तालिबान का नेतृत्व मंजूर नहीं किया और वह भी लगातार उनके खिलाफ मोर्चा लेते रहे हैं। लेकिन अब ये तीनों नेता चाहते हैं कि अफगानिस्तान में इस्लामी हुकुमत तो कायम हो, जैसी कि दुनिया के दूसरे इस्लामी मुल्कों में है, लेकिन वैसी नहीं जैसी तालिबान ने बीस साल पहले बनाई थी और उसे वैश्विक मंच पर मान्यता नहीं मिली थी। करजई क्योंकि न सिर्फ पूर्व राष्ट्रपति हैं बल्कि पश्तून भी हैं और उन्हें गैर-पश्तूनों का भरोसा भी हासिल है, इसलिए उनकी भूमिका बेहद अहम है और संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, चीन, रूस, भारत समेत पूरी दुनिया इसे समझती है। इस समय करजई को चीन रूस तुर्की जैस उन देशों का समर्थन भी हासिल है जो खुले तौर पर तालिबान का समर्थन कर रहे हैं। अगर करजई अपनी मुहिम में कामयाब हो गए तो न सिर्फ अफगानिस्तान एक अंधेरी सुरंग से बाहर निकलेगा बल्कि पूरा दक्षिण एशिया और दुनिया के दूसरे मुल्क भी चैन की सांस लेंगे। क्योंकि तब अफगानिस्तान में एक स्थाई और सर्व स्वीकार्य सरकार होगी जिसे संयुक्त राष्ट्र समेत दुनिया के सभी देशों की मान्यता होगी और जो अंतर्राष्ट्रीय कानून नियमों और संस्थाओं के निर्देशों का पालन भी करेगी।
इस सरकार में तालिबान भी होंगे और गैर तालिबान भी। तब अफगानिस्तान गृह युद्ध में भी नहीं फंसेगा और विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकेगा। लेकिन अगर तालिबानी अपनी जिद पर अड़े रहे और वापस बीस साल पुराने जमाने में लौटना चाहेंगे तो न सिर्फ अफगानिस्तान का दुर्भाग्य होगा बल्कि साथ ही दक्षिण एशिया में भी आतंकवाद और संघर्ष बढ़ने का खतरा पैदा हो जाएगा। भारत के लिए तो यह गंभीर चुनौती हो सकती है लेकिन साथ ही रुस, चीन और पाकिस्तान जैसे देश जो अभी तालिबान के साथ खड़े दिख रहे हैं, वे भी ज्यादा दिनों तक आतंकवादी खतरे से महफूज नहीं रह पाएंगे।
चीन में उईगुर मुस्लिम अलगाववाद फिर सिर उठा सकता है तो पाकिस्तान में पश्तून बहुल उत्तर पश्चिम इलाकों (फाटा) में तालिबान का प्रभाव बढ़ेगा और पाकिस्तान तालिबान के नाम से जाने जाने वाले इस इलाके के लड़ाके समूह अफगानिस्तान की तर्ज पर पाकिस्तान में भी तालिबान हुकूमत कायम करने के लिए उपद्रव कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि हामिद करजई अपनी कोशिशों में सफल हों और अफगानिस्तान में एक सर्वस्वीकार्य और समावेशी सरकार बन सके। तब तक भारत के लिए देखो और इंतजार करो की नीति पर ही चलना बेहतर होगा।